Site icon Youth Ki Awaaz

कौन हैं ग्रेटा थन्बर्ग, जिन्होंने जलवायु के प्रति दुनिया को चेताया है

आपने ग्रेटा थन्बर्ग  का नाम सुना है? स्वीडन की यह लड़की अभी 18 की भी पूरी नहीं हुई है। पूरी दुनिया में मशहूर हो चुकी इस लड़की ने लाखों लोगों की भावनाओं को झकझोरा और किशोरों की एक बड़ी लड़ाई को जन्म दिया जो “स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट” से जानी जा रही है। इस आंदोलन ने यूरोप की ग्रीन पार्टियों को वापस मुख्यधारा में ला दिया। यूरोप के कई देशों ने आंदोलन के दबाव में जलवायु परिवर्तन की अपनी नीतियों में बड़े संशोधन किए।

एस्पर्जर सिंड्रोम (Asperger syndrome) से प्रभावित हैं ग्रेटा 

मैं कई दिनों से यही सोच रहा हूं कि इतनी कम उम्र में स्कूली बच्चों और युवाओं का एक विश्वव्यापी आंदोलन, ग्रेटा कैसे खड़ी कर पाई? ऐसी हिम्मत उसमें कहां से आई? 8 वर्ष की उम्र में ग्रेटा को जलवायु परिवर्तन के बारे में पता चला और 15 वर्ष की उम्र तक उसके अंदर इस विषय को लेकर गहरी चिंता बैठ गई।

राजनीतिज्ञों की अकर्मण्यता और विशेषकर सयाने लोगों के दोगलापन उसके बर्दाश्त के बाहर था। सबसे पहले उसने अपने माँ-बाप को मजबूर किया कि वे अपनी आदतें बदलें। कई सालों तक बेटी के कठिन सवालों से जूझते रहने के बाद, ग्रेटा की माँ अब हवाई सफर नहीं करती हैं। परिवार अब शाकाहारी हो चुका है।

15 वर्ष की ग्रेटा एस्पर्जर सिंड्रोम(Asperger syndrome) नाम की मानसिक अवस्था से प्रभावित है। इस अवस्था में लोग कुछ खास विषयों पर चिंता में बहुत गहरे धंस जाते हैं। उन्हें उन मुद्दों पर व्यावहारिक तरह से गोलमोल बोलना नहीं आता। उन्हें तस्वीर काली या सफेद दिखाई देती है, स्लेटी नहीं। ऐसे लोग आमतौर पर सामाजिक मेलजोल में कच्चे होते हैं। ग्रेटा ने अपनी इस कमज़ोरी को बड़ी ताकत में बदला। आज वह जलवायु परिवर्तन के आंदोलन के इतिहास में घटने वाली सबसे अच्छी खबर बन गई है।

ग्रेटा थनबर्ग, फोटो क्रेडिट – फेसबुक

बच्चों को पूछने दें सवाल

क्या आपको पता है के जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले देश कौन से हैं। अंदाज़ा कुछ ज़्यादा गलत नहीं है आपका। हम उन देशों में से एक हैं, जो जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे पर सच बताइये, हममें से कितने इस विषय पर चर्चा भी करते हैं। क्या हमारे बच्चे इस विषय पर उतनी जानकारी रखते हैं जितनी उन्हें होनी चाहिए? यह सवाल इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जैसा कि ग्रेटा का कहना है,

बड़ों की चिंता इस विषय पर बिल्कुल नहीं है, क्योंकि उन्हें बच्चों की कोई फिक्र नहीं है। कम-से-कम बच्चे बड़ों की तरह दोगले तो नहीं। बच्चे तो सवाल पूछें। बिंदास पूछें।

पर हम तो बच्चों के सवाल पूछने की आदत पर ही टूट पड़ते हैं। कम-से-कम मुझे तो यह लगता है के ज़्यादा सवाल पूछने वाला बच्चा हमारे देश में पसंद नहीं किया जाता। रटे हुए उत्तर देने वाला बच्चा ही मेधावी कहा जाता है। वह बच्चा जो पहले माँ बाप और बाद में टीचरों की आंख का तारा बनता है। असल में इस रोबोट बनाने वाली व्यवस्था का वह उत्तम प्रोडक्ट है। हमारा समाज और यह व्यवस्था पीढ़ियों से ऐसे रोबोट बनाने में जुटी हुई है।

मैं एक उदाहरण देता हूं। आपने श्रवण कुमार का नाम तो सुना होगा पर क्या आपने नचिकेता की कहानी कभी सुनी है? दोनों कहानियां हमारे भारतीय पौराणिक इतिहास में दर्ज हैं पर दोनों में से अधिक प्रसिद्ध कौन सी हैं?

मुझे तो लगता है कि श्रवण कुमार की कहानी अधिक प्रसिद्ध है। क्यों? चूंकि श्रवण कुमार अंधे माँ-बाप के तीर्थ यात्रा की आकांक्षा के आगे अपना जीवन त्याग देता है और वहीं नचिकेता अपने पिता से प्रश्न पूछता है और पिता नाराज़ होकर उसे यमराज को भेंट कर देते हैं। प्रश्न पूछने वाले बच्चे ही एक लोकतंत्र की उम्मीद होते हैं। अब जिस समाज में सवाल पूछना अच्छा ना माना जाता हो, उस समाज में ग्रेटा कैसे जन्म लेगी?

बेहतर क्लर्क बनाने की व्यवस्था

मेरे बच्चे जिस स्कूल में जाते हैं, उसकी प्रिंसिपल महोदया से मैंने कहा कि बच्चों के बहुत ज़्यादा एग्ज़ाम मत लीजिए, अभी फर्स्ट में ही तो हैं।  उस बेचारी ने अपनी लाचारी रख दी कि अगर ऐसा करेंगे तो बाकी पेरेंट्स नाराज़ हो जाएंगे। अब इससे मैं क्या अंदाज़ा लगाऊं? हमारा समाज पहले ही दर्जे से बच्चों को घुड़दौड़ में जोत देना चाहता है। अब जब हर महीने एग्ज़ाम की तैयारी करेंगे, तो स्पष्ट है, सवालों के सही उत्तर रटेंगे ही और जो उसे याद ना हो, तो एक एक करके हम ही उसके आत्मविश्वास को चोट पहुंचाने लगते हैं।

हमारा समाज विडम्बना की पराकाष्ठा को पार कर गया है। हमें हमारे नेता अंगूठा छाप भी चलेंगे लेकिन हमें हमारा बच्चा आइंस्टीन से कम नहीं चाहिए। यह और बात है कि हम आइंस्टीन भी नहीं पैदा कर पाते, क्योंकि आइंस्टीन तो ऐसी शिक्षा प्रणाली की वजह से बर्बाद होने वाले थे। उनके बारे में गणित के अध्यापक का मत था के यह लड़का जीवन में कभी गणित नहीं पढ़ पाएगा। अब हर बच्चा आइंस्टीन तो है नहीं, बहुतों का तो दिल बैठ जाएगा, अपने टीचर से ऐसा सुनते ही।

अब तो युवा भी बेज़ुबान हो चुके हैं। वो या तो सड़कों पर दंगा करते हैं या फिर व्यवस्था के आगे दुम हिलाते हैं। “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे “ का फैशन अब जा चुका है। उच्च शिक्षा की बढ़ती कीमतों की वजह से मध्यम वर्ग के बच्चे के कंधे पर 16 साल की उम्र में ही कर्ज़ का बोझ है। मैं अपने पिताजी का धन्यवाद देते नहीं थकता जिन्होंने मुझे इस कर्ज़ से बचाया, जिससे मैं अपनी शर्तों पर जीवन जी पाया हूँ।

मेरी बच्चों को सलाह है कि इस व्यवस्था के खिलाफ बागी होने की ट्रेनिंग ग्रेटा के यूट्यूब वीडियो से ले लें। यह व्यवस्था उन्हें एक “बेहतर क्लर्क” बनाने की ओर तेज़ी से काम कर रही है। इसके झांसे में ना आएं।

Exit mobile version