“म्हारी छोरी, छोरो से कम है के” दंगल फिल्म के इस डाॅयलाग ने काफी तालियां बटोरी थीं। तालियों की इस आवाज़ ने, खेल के मैदान में और मैदान के बाहर लड़कियों के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव को पीछे की तरफ ढकेल दिया था। यह लैंगिक भेदभाव खेल की दुनिया और मैदान के बाहर दोनों जगहों पर राजनीति करता है।
खेल की दुनिया के बारे में विश्व की पहली महिला धावक, टेनिस खिलाड़ी या अन्य किसी खेल में पहली महिला के सवाल-जवाब को याद कर लिया जाता है लेकिन इस बात की कभी कोई जानकारी नहीं दी जाती है कि पहली महिला खिलाड़ी या सिर्फ महिला खिलाड़ी होने भर का सफर उतार-चढ़ावों भरा रहा है। इसकी जानकारी देना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह उतार-चढ़ाव खेल के मैदान का भी है, जो महिलाओं के साथ भेदभाव करता है।
महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम धन और सुविधाओं का मिलना ही खेल की दुनिया में होने वाला एकमात्र लैंगिक भेदभाव नहीं है, जिसकी चर्चा सामान्य तौर पर हो भी जाती है। पिछले साल फोर्ब्स पत्रिका ने सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली सौ खेल हस्तियों की लिस्ट में एक भी महिला का नाम शामिल करना ज़रूरी नहीं समझा। जबकि उसी साल महिला खिलाड़ियों में शीर्ष स्थान पर सेरेना विलियम्स ने 1.80 करोड़ डॉलर कमाए थे।
महिला खिलाड़ियों के साथ भेदभाव का दूसरा मामला महिला खेलों की मार्केटिंग का भी है, जिसपर धन या संसाधन खर्च नहीं होते हैं। अचानक से खबर आती है कि दूत्ती चंद ने विश्व के किसी दौड़ में स्वर्ण पदक जीत लिया और तब उस खेल समारोह के बारे में जानकारी मिलती है, जहां महिला खिलाड़ियों ने भाग लिया था। यह भेदभाव कम पैसे कमा रही खिलाड़ियों का व्यावसायिक नुकसान करता है।
महिलाओं के खेल की ब्रांडिंग नहीं
सही तरीके से खिलाड़ियों की ब्रांडिंग नहीं किए जाने के कारण उन्हें वह नाम और शोहरत भी नहीं मिलती, जो पुरुष खिलाड़ियों के हिस्से में आसानी से आ जाती है। महिला खिलाड़ियों के साथ कोच और ट्रेनर का साथ भी दोस्ताना व्यवहार में लैंगिक पूर्वाग्रहों का आ जाना महिला खिलाड़ियों के लिए चुनौतिपूर्ण हो जाता है।
इन सबों से पार पाकर अगर महिला खिलाड़ी खेल के मैदान तक पहुंच भी जाती हैं, तो कई बार खेल अंपायर या रेफरी का व्यवहार महिला खिलाड़ियों के साथ पूर्वाग्रहों से भरा हुआ होता है। बीते साल यूएस ओपन के फाइनल में सेरेना विलियम्स और नाओमी ओसाका के बीच खेले गए मैच में चेयर अंपायर का व्यवहार अलग ही कहानी कहता है, जिसपर काफी हंगामा भी मंचा था। मैच के दौरान सेरेना विलियम्स के साथ जो हुआ, उसमें लैंगिक भेदभाव और नस्लवाद की बू साफ महसूस की जा सकती है।
महिला खेल के साथ मुख्य समझने वाली बात यह भी है कि महिलाओं को खिलाड़ियों के तौर पर बहुत कुछ करना होता है, उनको रोल मॉडल बनना होता है और आने वाली नस्लों के लिए रास्ता बनाना होता है। फिर महिला खिलाड़ियों को एक साथ कई काम करने पर भी कम मेहनताना क्यों दिया जाता है?
इस बात से कोई इंकार नहीं है कि हमने महिला खेलों में काफी सफलताएं अर्जित की हैं मगर उसकी रफ्तार जितनी धीमी है, उतनी धीमी महिला खिलाड़ियों की प्रतिभा नहीं है। अब यह ज़रूरी हो गया है कि महिला प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए खेल की दुनिया में भी जेंडर बजट पर बात की जाए, क्योंकि संसाधन के अभाव में महिला खिलाड़ियों की प्रतिभाओं का दमन भी लैंगिक भेदभाव ही है।