संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हाल में हुई मीटिंग में भारत ने अमेरिका, इज़रायल, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के खिलाफ जाकर इस द्वीपसमूह की संप्रभुता के लिए अफ्रीकी देश मॉरीशस का समर्थन किया, क्या भारत अपनी वर्तमान विदेश नीतियों और अपने सामरिक हितों के लिए आगे भी इसी तरह इन महाशक्तियों के खिलाफ जाएगा? इस द्वीपसमूह में अमेरिका और ब्रिटेन जैसी शक्तियों की क्या रूचि है, क्यों वे इस द्वीपसमूह को छोड़ना नहीं चाहते हैं?
इन सब सवालों के जवाब जानने से पहले यह जान लेते हैं कि चागोस द्वीपसमूह विवाद क्या है?
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत ने ब्रिटेन से हिन्द महासागर स्थित चागोस द्वीपसमूह पर अपनी कब्ज़ा छोड़ने को कहा है। हालांकि, यह फैसला ब्रिटेन के लिए बाध्यकारी नहीं है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में ब्रिटेन के लिए यह एक बड़ी कूटनीतिक हार है। इस द्वीपसमूह की संप्रभुता को लेकर ब्रिटेन और मॉरीशस के बीच विवाद काफी लंबे समय से चल रहा है।
- मॉरीशस, 1638 से ही एक उपनिवेश रहा है।
- मॉरीशस और चागोस द्वीपसमूह पर 1638 से 1710 के बीच डचों का कब्ज़ा रहा।
वर्ष 1773 में, यह क्षेत्र फ्रांस का उपनिवेश था। फ्रांस ने वृक्षारोपण के जरिये डिएगो गार्सिया पर अपना उपनिवेश स्थापित किया। - फ्रांस इसका इस्तेमाल नारियल और मछली व्यवसाय के लिए करता था
- 1814 में पेरिस संधि के तहत फ्रांस ने इन दोनों को ब्रिटेन को सौंप दिया
- 3 दिसंबर 1810 से 12 मार्च 1968 तक तकरीबन 157 साल ये दोनों ब्रिटेन के उपनिवेश रहे
- मॉरीशस को 1968 में ब्रिटेन से आज़ादी मिल गई। हालांकि, ब्रिटेन ने चालाकी से चागोस को 1966 में मॉरीशस से अलग कर दिया।
- 1966 में एक समझौते के तहत, ब्रिटेन ने इस द्वीपसमूह और इसके एक एंटोल डिएगो गार्सिया को नौसेनिक अड्डे के निर्माण के लिए अमेरिका को पट्टे पर दे दिया।
हालांकि, इसके लिए ब्रिटेन को अमेरिका से कोई राशि नहीं मिली लेकिन बदले में उसे पोलरिस मिसाइलों की खरीद में भारी छूट मिल गई। इस समझौते की शर्त यह थी कि यहां कोई भी मानव आबादी ना रहे। 1971 में इस द्वीप पर रह रहे लगभग 1,500 लोगों को जबरन निष्कासित किया गया, जिसके बाद उन्हें मॉरीशस या शेसल्स में शरण लेनी पड़ी।
- ब्रिटेन ने अपने फायदे के लिए इस द्वीप पर रहने वाले लोगों के लिए खाद्य आपूर्ति प्रतिबंधित कर दी थी और मजबूरन यहां के निवासियों को भागना पड़ा।
- 2002 में कुछ चागोसवासियों को ब्रिटेन ने अपने यहां का वीज़ा दे दिया।
- 2012 में ‘यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स’ ने इस द्वीपसमूह में स्थानीय लोगों के निष्कासन को लेकर ब्रिटेन के खिलाफ फैसला सुनाया।
- फरवरी 2019 में संयुक्त राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय अदालत ने चागोस पर कब्ज़े को लेकर ब्रिटेन के खिलाफ फैसला सुनाया।
- इसके बाद, हाल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इसे लेकर वोटिंग हुई जिसमें भारत समेत 116 देशों ने मॉरीशस का समर्थन किया जबकि अमेरिका, इज़रायल, ऑस्ट्रेलिया और मालदीव ने यूके का समर्थन किया।
- फ्रांस और जर्मनी समेत 55 देश इस वोटिंग में अनुपस्थित रहे।
- ब्रिटेन ने इसे लेकर कहा कि वह चागोस पर मॉरीशस के नियंत्रण की बात से इत्तेफाक नहीं रखता है लेकिन इस मत पर कायम है कि जब यहां उसके रक्षा संबंधी कार्य पूरे हो जाएंगे, तो वह इसे मॉरीशस को सौंप देगा।
- मॉरीशस सरकार ने कहा कि यह स्वतंत्रता के पहले से ही हमारा था, तो इस पर ब्रिटेन का अधिकार कैसे हो गया? ब्रिटेन ने स्थानीय लोगों को निकालकर मानवीय परिस्थितियों का उल्लंघन किया है।
- मॉरिशस के समर्थन में भारत ने कहा है कि इसे उपनिवेशवाद से निजात दिलाने की प्रक्रिया तब तक अधूरी है, जब तक यह हिस्सा ब्रिटिश नियंत्रण में है।
मॉरीशस का कहना है कि ब्रिटेन ने अंतर्राष्ट्रीय मानकों का उल्लंघन कर चागोस को हड़प लिया जबकि ब्रिटेन इसे अपना हिस्सा ब्रिटिश इंडियन ओसियन टेरिटरी बताता है और उसका व अमेरिका का संयुक्त रूप से यहां सैन्य अड्डा भी है। हालांकि, अंतर्राष्ट्रीय अदालत ब्रिटेन की इस बात का समर्थन नहीं करता है।
अब सवाल यह है कि चागोस को ब्रिटेन क्यों नहीं देना चाहता है?
इस क्षेत्र के प्रमुख प्राकृतिक संसाधन नारियल और मछली हैं, जिससे ब्रिटेन की काफी कमाई होती है। ब्रिटेन यहां से मछली पकड़ने के लिए लाइसेंस जारी करता है और इसकी फीस लेता है। साथ ही, यहां अमेरिका और ब्रिटेन का संयुक्त रूप से सैन्य अड्डा है। इस द्वीप पर कुछ निर्माण परियोजनाओं का भी निर्माण कार्य चल रहा है।
चूंकि, अमेरिका ब्रिटेन का करीबी साझेदार है और हिंद महासागर में चीन की बढ़ती ताकत के बीच वह इस द्वीपसमूह पर नियंत्रण खत्म नहीं करना चाहता है। ब्रिटेन को इसके बदले एक तरह से सुरक्षा की गारंटी और कई अन्य सामरिक लाभ मिलते हैं।
अमेरिका के लिए चागोस स्थित डिएगो गार्सिया एंटोल क्यों महत्वपूर्ण है?
ब्रिटेन ने 1966 में 50 वर्षों के लिए यह एंटोल अमेरिका को पट्टे पर दे दिया था और 2016 में उसने इसकी समयावधि बढ़ाकर 2036 तक कर दी। हिंद महासागर के केंद्र में स्थित चागोस द्वीपसमूह में लगभग 60 द्वीपसमूह और सात एंटोल शामिल हैं। इसका सबसे बड़ा द्वीप डिएगो गार्सिया है।
चागोस द्वीपसमूह और मॉरीशस के बीच निकटतम दूरी 1700 किलोमीटर है। इस द्वीप के पश्चिम में सोमालिया का तट और इसके पूर्व में सुमात्रा का तट स्थित है और ये दोनों लगभग 1,500 नॉटिकल माइल्स दूर हैं। चागोस द्वीपसमूह, भारतीय उप-महाद्वीप के दक्षिण से लगभग 1,000 नॉटिकल माइल्स की दूरी पर स्थित है।
1960 और 1970 के दशक में ब्रिटेन ने ईस्ट ऑफ स्वेज नीति के तहत यहां से आंशिक रूप से हटने का फैसला लिया और इसके साथ ही पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण एशिया में सोवियत रूस का प्रभाव बढ़ने लगा। इसे काउंटर करने के लिए अमेरिका को 1960 के दशक की शुरुआत में एक ऐसे सैन्य-तंत्र की ज़रूरत महसूस हुई, जो युद्ध या आपातकाल की स्थिति में आकस्मिक सैन्य संचालन को सुचारु रूप से चला संभव बना सके।
इसके तहत, अमेरिका ने यहां जहाज़ों और विमानों के लिए एक संचार स्टेशन, एक हवाई क्षेत्र और ईंधन आपूर्ति डिपो बनाया। रणनीतिक रूप से यह द्वीपसमूह पूर्वी अफ्रीका, पूर्वी एशिया और दक्षिण एशिया के मध्य में स्थित है जो अफगानिस्तान, चीन और मध्य पूर्व में अमेरिकी सेना के लिए एक चौकी (आउटपोस्ट) प्रदान करता है।
रिपोर्ट्स के अनुसार, इस द्वीप पर अमेरिका के 1700 सैन्यकर्मी और 1500 नागरिक कॉन्ट्रैक्टर्स हैं। यहां 50 ब्रिटिश सैनिक भी हैं। शीत युद्ध के वक्त अमेरिका ने डिएगो गार्सिया से ही सोवियत संघ (अब रूस) की गतिविधियों की निगरानी की थी। इसके अलावा, 1991 के खाड़ी युद्ध में, 1998 के इराक युद्ध में और 2001 के दौरान अफगानिस्तान में कई हवाई अभियानों को अमेरिका ने डिएगो गार्सिया से ही संचालित किया था।
रणनीतिक रूप से यह पूर्वी अफ्रीका, पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के मध्य में स्थित है। शीत युद्ध के बाद से अमेरिका इसे अपने सुरक्षा और विदेश नीति के दृष्टिकोण से हिंद महासागर क्षेत्र में अन्य नौसैनिक गतिविधियों की निगरानी और आतंक के खिलाफ युद्ध के लिए महत्वपूर्ण बताता आ रहा है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की अगर बात करें तो हिंद महासागर क्षेत्र में चीन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और वह दूसरे देशों की समुद्री सीमा में भी दखलनदाज़ी कर रहा है। ऐसे में वैश्विक पटल में शक्ति संतुलन के लिए यहां अमेरिका की उपस्थिति और भी महत्वपूर्ण हो गई है।
भारत ऐसी स्थिति में क्या करे, वह मॉरीशस का पूरी तरह समर्थन करे या अमेरिका के खिलाफ जाए, क्या यह संभव है?
इस क्षेत्र में भारत के दुविधा की स्थिति है, एक तरफ भारत भू-राजनीतिक दृष्टि से मॉरीशस के साथ है लेकिन सामरिक परिपेक्ष्य से भारत के हित अमेरिका के साथ हैं। संयुक्त राष्ट्र में अगर भारत की विदेश नीति की बात की जाए तो वह हमेशा से ही इस बात का प्रबल समर्थक रहा है कि जो पहले उपनिवेश रहे हैं, उन पर पूरा अधिकार स्थानीय देशों का होना चाहिए।
हिंद महासागर में अगर बड़ी शक्तियों के बीच किसी भी तरह का संघर्ष हुआ, तो इसका सीधा-सीधा प्रभाव हमारे व्यापरिक मार्गों और अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। परंपरागत रूप से, भारत हिन्द महासागर क्षेत्र में बड़ी शक्तियों के प्रतिद्वंद्विता का विरोध हमेशा से करता रहा है लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह संभव नहीं है। वह भी जब, तब चीन आक्रामक रूप से हमारी घेराबंदी कर रहा है। अमेरिका और भारत के वर्तमान रिश्तों की बात की जाए तो भारत इस क्षेत्र में अमेरिका की मांगों का विरोध नहीं कर सकता है लेकिन यह मॉरीशस के साथ भी अपनी दोस्ती को खतरे में नहीं डाल सकता है।
इस स्थिति में भारत, अमेरिका, ब्रिटेन और मॉरीशस के बीच एक मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है। मैंने डीयू में इंटरनैशनल रिलेशंस सब्जेक्ट के दौरान एक बात पढ़ी थी कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कुछ भी स्थाई नहीं होता है, सबसे पहले खुद के हित होते हैं और बाद में किसी दूसरे के। ऐसे में मॉरीशस को भी भारत, अमेरिका और चीन की बढ़ती ताकत को ध्यान में रखते हुए बातचीत आगे बढ़ाने चाहिए लेकिन ब्रिटेन को इस द्वीप पर अपना आधिपत्य छोड़ना चाहिए।
अंत में बस यही कि चागोस द्वीपसमूह पर मॉरीशस की संप्रभुता के मुद्दे को केवल कूटनीति और बातचीत के माध्यम से ही हल किया जा सकता है, जिसमें भारत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
संदर्भ- ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, बीबीसी, अलजजीरा