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जातिगत भेदभाव को रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बनते कब तक देखेंगे हम?

हमारे देश में प्राचीन काल से ही वेद-पुराणों का हवाला देकर जातिगत व्यवस्था को  सामाजिक मान्यता दी गई है। चार वर्णों में बंटे हिंदू समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के लिए अलग-अलग सामाजिक व्यवस्थाएं हैं।

वर्णों में बंटे समाज में जातिगत आधार पर अमानवीय घटनाओं को अंजाम देने वालों को हिम्मत यह मिलती है कि गरीब और पिछड़े तबके के लोगों के साथ कुछ भी किया जा सकता है। वे बने ही शोषण और सेवा के लिऐ हैं। जिन वेदों का वास्ता देकर इस शोषण को सही ठहराया जाता है, उच्च वर्ण के लोगों में से किसी ने शायद ही उन वेदों का गहराई से अध्ययन किया होगा।

आर्टिकल 15 ने वह सच्चाई दिखाई है, जिससे हम अकसर नज़र घुमा लेते हैं

फिल्म आर्टिकल 15 का दृश्य। फोटो सोर्स- Youtube

आर्टिकल-15 मूवी समाज के हाशिए पर खड़े ऐसे ही लोगों के जीवन पर प्रकाश डालती है, जिसे हम पहले तो देखना ही नहीं चाहते और यदि नज़र पड़ भी जाए तो उपेक्षा से नज़रे घुमा लेते हैं। कई सदियों से चला आ रहा जातिगत भेदभाव हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुका है।

आर्टिकल-15 के एक सीन में पुलिस अधिकारी अपने मातहतों से उनकी जाति के बारे में सवाल कर रहा है, क्योंकि वह जाति को लेकर उन लोगों की संकुचित सोच से परेशान हो चुका है। जब इस एक सीन ने हमें सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया तो वे लोग, जिन्हें हम अछूत बताकर दूर हटाते हैं, वे तो इस वाकये से रोज़ गुज़रते हैं, वे कितना अपमान और दर्द महसूस करते होंगे? इसकी कल्पना करना ही बेहद तकलीफदेह है।

एक बारगी फिल्म का यह संवाद हमें झकझोर तो देता है पर हम चुप ही बैठे रह जाते हैं,

मैं और तुम इन्हें दिखाई ही नहीं देते हैं। हम कभी हरिजन हो जाते हैं, तो कभी बहुजन हो जाते हैं। बस जन नहीं बन पा रहें कि जन-गण-मन में हमारी भी गिनती हो जाए।

हम आज भी उसी संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त हैं, जो हमारे समाज को खोखला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती है। पुरातन सामाजिक व्यवस्था आज हमारे समाज के लिए इस कदर अभिशाप बन गई है, जिसमें गरीब और निचले तबके के लोग घुट-घुटकर जीने को मजबूर हैं।

समाज के ऊंचे तबके ने उन्हें पूरी तरह से निरीह प्राणी घोषित कर दिया है, जिन्हें अपनी मर्ज़ी से कोई काम करने तक का अधिकार नहीं है। उनकी प्रतिभा की कोई कीमत नहीं है, वे सिर्फ शोषित होने के लिए पैदा होते हैं, उनका सबसे ज़्यादा शोषण ऊंचे तबके के उन लोगों द्वारा किया जाता है, जो बुद्धिमान, सलीका पसंद और वृहद सोच रखने का दावा करते हैं और इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं।

फिल्म का एक और डायलॉग पिछड़े तबके के लोगों की वर्तमान स्थिति पर रोशनी डालता है,

ये लोग ऐसे ही हैं, इनके साथ ऐसा ही होता है, ये इनके साथ कुछ भी नया नहीं है और ऐसा ही होता रहेगा

मैंने भी अपने घर में इस तरह के भेदभाव देखे हैं, जिसमें घर में काम करने वाले मज़दूरों, महरी, किसी छोटी जाति के लोगों लिए अलग से बर्तन रखे जाते थे। किसी भी उत्सव में उन्हें अलग पंक्ति में बैठकर खाना खिलाया जाता था। और भी ऐसे कई तरह के भेदभाव भरे नियम सिर्फ उन्हीं के लिए बने होते थे। इतना सब होते हुए भी मैंने कभी भी किसी को उनके लिए अपमानजनक शब्द बोलते नहीं सुना और ना ही काम लेते वक्त किसी भी तरह का अभद्र व्यवहार करते हुए देखा। हम सभी उनके लिए भी सम्मानजनक भाषा का उपयोग आज भी करते हैं।

समाज में यही सिखाया जाता है कि जिस जाति से वे हैं, यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, उसे बदला नहीं जा सकता लेकिन वे भी हमारी तरह इंसान हैं, उनकी उम्र के मुताबिक उनको भी सम्मान दिया जाना चाहिए। चाहे वह घर में सफाई करने वाले कामगार हो या नालियों-गटरों की गंदगी साफ करने वाले मेहतर, जो नंगे बदन उस गंदगी में उतर जाते हैं, जिसकी तरफ हम देखना भी पसंद नहीं करते हैं और बदबू आने पर नाक ढक लेते हैं।

वो सफाई करते हैं तभी सब साफ रह पाते हैं

उच्च वर्गीय लोग तो अपना बचाव यह बोलकर कर लेते हैं कि यह तो उनका खानदानी काम है, वे यही करेंगे लेकिन कभी यह नहीं सोचते हैं कि हमारे घरों को, नालियों को, शौचालयों को साफ करने वाले, मरे हुए पशुओं की सफाई करने वाले, हमारा बचा हुआ बासी खाना भी बड़े कृतज्ञ भाव से खाने वाले, उन लोगों की वजह से ही लोग साफ-सफाई से रह पाते हैं।

रोज़ सुबह घर में आने वाली कामवाली बाई, मैनहॉल के गंदे बदबूदार गड्ढे में घुसा हुआ सफाई कर्मचारी, घरों में शौचालयों की सफाई करने के लिए आने वाला मेहतर, मरे हुए पशुओं को फेंकने वाला और उसका चमड़ा निकालने वाले चमार, सूअर पालने वाले, शवों को जलाने वाले डोम लोग, इन सभी की वजह से ही हमारा घर, वातावरण साफ-सुथरा रहता है। हमारे आसपास सफाई इसलिए रह पाती है क्योंकि दलित समुदाय के लोग सफाई का काम करते हैं।

हमें इन सभी का कृतज्ञ होना चाहिए, उनसे अमानवीय व्यवहार करने की बजाय उन्हें इंसान समझे। हमने जब कई पुरानी सड़ी-गली परंपराओं को मानने से इंकार कर दिया है, तब ऐसे में समाज के एक अहम वर्ग के साथ भेदभाव पर क्यों चुप हो जाते हैं?

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