इसमें कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की दिशा में बेहतरीन काम किया है। करिक्युलम से लेकर लर्निंग-टीचिंग मेथड्स और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर टीचर्स ट्रेनिंग के लिए एक्सपर्ट्स की मदद ली गई है।
बेहतरीन काम के प्रभावी नतीजे भी सामने आएं लेकिन सरकारी स्कूलों में कैमरे लगाने का कदम जो दिल्ली सरकार उठाने जा रही है, उसे जनसामान्य से इतर अगर एक्सपर्ट्स डिसकोर्स में देखा जाए, तो इस फैसले में गहरी खामियां नज़र आती हैं। इस फैसले के दिल्ली के सरकारी स्कूलों के चप्पे-चप्पे पर कैमरे लगाए जाएंगे।
कहा जा रहा है कि क्लासरूम सहित पूरे स्कूल परिसर में कैमरे लगाकर उसका एक्सेस ना सिर्फ स्कूल प्रशासन बल्कि बच्चों के अभिभावकों को भी दिया जाएगा, जिससे वे अपने बच्चों की गतिविधियों पर नज़र रख सकें और कक्षा में पढ़ाने वाले टीचर्स भी अपनी ड्यूटी के प्रति संजीदगी रखें।
जहां डर होगा, वहां सीखने-सिखाने का स्पेस स्वत: सिकुड़ेगा
यहां एक प्रकार का विरोधाभास साफ नज़र आ रहा है, जहां एक ओर दिल्ली सरकार स्टैंडर्ड टीचिंग-लर्निंग मेथड्स की बात करती है, वहीं दूसरी ओर कैमरे के माध्यम से निगरानी कर बच्चों के स्वच्छंद रूप से सीखने-समझने की मूलभूत आज़ादी का हनन किया जा रहा है।
इस बात से हम सभी सहमत होंगे कि जहां डर होता है, वहां सीखने-सिखाने का स्पेस स्वतः सिकुड़ने लगता है और पढ़ाई-लिखाई सिर्फ औपचारिकता बनकर रह जाती है। अगर कक्षा में टीचर्स पर नज़र रखी जाएगी तो वे भी बहुत ही सावधानीपूर्वक एक सेट पैटर्न के हिसाब से पढ़ाएंगे और इनोवेशन का स्कोप खत्म हो जाएगा।
टीर्चस को अपनी ड्यूटी के प्रति ईमानदार और संजीदा बनाने के लिए और तरीके भी अपनाए जा सकते हैं। रेगुलर और प्रौपर ट्रेनिंग के साथ अप्रेज़ल जैसे मोटीवेशनल तरीकों से टीचर्स के काम में बेहतरी संभव है और दिल्ली के स्कूलों के टीचर्स से बेहतर उदाहरण कहां मिलेगा, जहां सरकारी स्कूलों का बोर्ड परीक्षाओं का परिणाम निजी संस्थानों से बेहतर रहा है। इसमें टीचर्स के बहुमूल्य योगदान को नकारा नहीं जा सकता है।
निगरानी के माध्यम से आप टीचर्स की परफॉरमेंस में सुधार नहीं कर सकते हैं। अगर उन्हें यह पता होगा कि उन पर हर समय किसी की नज़र है, जो उनके पढ़ाने के ढंग को लगातार टेस्ट कर रही है, तो वे सिर्फ उस नज़र को संतुष्ट करने के लिए पढ़ाएंगे ना कि बच्चों को सिखाने के लिए।
मैंने इसी मसले में कई अभिभावकों को यह कहते सुना है,
बच्चों को इतनी प्राइवेसी की क्या ज़रूरत है? कैमरे के माध्यम से हम यह पता कर पाएंगे कि हमारा बच्चा शैतानी तो नहीं करता, क्लास में उसका व्यवहार कैसा है, वह पढ़ता-लिखता है या नहीं?
यह मानसिकता अपने-आप में बच्चों के लिए घातक है। अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा एक सेट बिहेवरल पैटर्न के हिसाब से व्यवहार करे, ना क्लास में बात करे और ना उसकी नज़रें ब्लैकबोर्ड से हटे। फिर हर डेविएंट बिहेवियर वाले बच्चे के साथ क्या होता है, यह तो बताने के ज़रूरत नहीं है।
अधिकतर माँ-बाप बहुत ही सतही तौर पर चीज़ों को देखते हैं और इसका असर बच्चे की मनःस्थिति पर भी पड़ता है। बच्चे को चाहिए कि उसे स्वच्छंद रूप से विकसित होने का अवकाश मिले। क्लासरूम में ब्लैकबोर्ड और टीचर के अलावा, सीखने के और भी माध्यम हैं। पीयर ग्रुप लर्निंग उनमें से एक है, जहां बच्चा अपने दोस्तों से इंटरैक्शन कर बहुत कुछ सीखता है।
लेकिन हमारी स्कूली शिक्षा ने क्लासरूम में बातचीत करने को क्राइम की श्रेणी में रख दिया है, इससे बच्चा सीखने की एक बहुत ही नैसर्गिक और आसान प्रक्रिया से, कम-से-कम क्लासरूम के भीतर तो वंचित रह जाता है।
क्लास में कैमरे लगाने से बच्चों का बिहेवियर और भी ज़्यादा रेगुलेट किया जाएगा। इससे बच्चों की लर्निंग एटिट्यूड और मन:स्थिति पर क्या असर पड़ेगा, इसपर एक बार गहरी बहस की जानी चाहिए। निगरानी, मुख्यत: पढ़ने-लिखने की गतिविधियों में किसी भी प्रकार से गुणवत्ता इंश्योर नहीं कर सकती है।