Site icon Youth Ki Awaaz

हंगामा है क्यों बरपा, समलैंगिक प्रेम ही तो किया है

Hungama hai kyon barpa play

अकसर जब बात प्रेम की होती है, तो हंगामा ज़रूर बरपता है और जब बात समलैंगिक प्रेम की हो तो हंगामा ही हंगामा होना है। जी, मैं बिलकुल स्टीरियोटाइप वाली बातें कर रही हूं, क्योंकि हमारा समाज स्टीरियोटाइप का वह स्टोर है, जहां आपके जीवन पर सवाल उठाने वाले अलग-अलग वरायटी के स्टीरियोटाइप्स मिल जाएंगे।

खैर, बात ज़्यादा इधर-उधर ना घुमाते हुए और ज़्यादा क्रांतिकारी लाइने ना लिखते हुए मैं सीधे मुद्दे पर आती हूं। पिछला महीना दुनियाभर में समलैंगिक प्रेम के उत्सव के रूप में मनाया गया, जी हां “प्राइड मंथ”। अंग्रेज़ी में कहे तो ‘लव इन द एयर’ वाला माहौल।

“हंगामा है क्यों बरपा” का मंचन करते कलाकार। फोटो सोर्स- पलटन फेसबुक पेज

और इसी ‘लव इन द एयर’ वाली फील के साथ ‘ब्रेख्तिअन मिरर’ और ‘पलटन’ के कलाकारों ने इस महीने समलैंगिक प्रेम का नाट्य मंचन (हंगामा है क्यों बरपा) किया। इस नाटक को लिखा और इसका निर्देशन नूर ज़हीर ने किया है। नाटक की शुरुआत में चे-ग्वेरा और प्रोटेस्ट की बातों से ही आप समझ जाएंगे कि नाटक में कुछ तो क्रांति की बातें होंगी और नाटक में यह क्रांति दो स्तरों पर दिखाई दी। एक प्रेम को कई सीमाओं के बंधनों में बांधने की सोच के खिलाफ और दूसरी पितृसत्ता पर प्रहार करने वाली क्रांति।

अब आप क्रांति से यह नहीं समझ लीजिएगा कि पूरे नाटक में कलाकार इन दो मुद्दों के लिए सिर्फ सड़कों पर नारे लगाने के लिए उतरते होंगे। बेशक, नाटक में यह काम भी हुआ है लेकिन इस क्रांति की कहानी सड़कों पर प्रोटेस्ट मार्च से कई आगे घर की चारदीवारी में चल रही होती है। और समाज में अगर कोई क्रांति यानि बदलाव लानी है, तो उसकी शुरुआत घर की चारदीवारी के अंदर से ही हो सकती है।

इस नाटक की शुरुआत में ही कहा गया कि यह नाटक समलैंगिक प्रेम के सामाजिक एक्सेप्टेंश के साथ ही पुरुषवादी मानसिकता पर भी प्रहार करता है। नाटक में वे बातें देखने को भी ज़रूर मिली, जहां दो लड़कियों के प्रेम की कहानी के बीच एक घरेलू महिला के जीवन की जद्दोजहद भी दर्शायी गई है।

“हंगामा है क्यों बरपा” का मंचन करते कलाकार। फोटो सोर्स- पलटन फेसबुक पेज

एक 20 साल की लड़की (पीहू), जो अपनी समलैंगिक पहचान को अपनाने और उसे समाज (खासकर अपने पिता) के सामने लाने की जद्दोजहद में है, वहीं उसके सामने है एक बोल्ड, मेच्योर और उम्र में भी उससे बड़ी एक बायसेक्शुअल लड़की (सुगंधा)।

दोनों का प्रेम संबंध, सिर्फ रोमांस वाला प्रेम संबंध नहीं है, यह प्रेम संबंध पीहू को खुद को पहचानने का संघर्ष है, अपने प्रेम को जानने और समझने का संघर्ष है और कई ऐसी तमाम चीज़ें जो इस प्रेम के एक्सेप्टेंश के लिए इस समाज से लड़ने के लिए ज़रूरी हैं, उनका संघर्ष।

दूसरी ओर एक ऐसी औरत की कहानी है, जो आजतक उस जीवन को जीती आई है, जहां एक औरत की ज़िन्दगी कभी उसकी नहीं होती। वह एक ऐसी औरत है, जिसका जीवन अपने पति और बच्चों के इर्द-गिर्द चलता है। पति के इर्द-गिर्द चलने वाले जीवन को उसके पति द्वारा उसपर थोपा गया है और बच्चों के इर्द-गिर्द वाले जीवन की इमारत उसने खुद खड़ी की है, पितृसत्ता से ग्रसित मानसिकता की शिकार होते हुए।

“हंगामा है क्यों बरपा” का मंचन करते कलाकार। फोटो सोर्स- पलटन फेसबुक पेज

बहरहाल, इस नाटक में समलैंगिकता और पितृसत्ता दोनों मुद्दों की अलग-अलग परतों की बड़ी ही बेहतरीन तरीके से बात की गई है।

हालांकि नाटक का अंत ही मुझे काफी कमज़ोर लगा और पूरे नाटक की गंभीरता को कमज़ोर करता हुआ दिखा। दरअसल, पूरे नाटक में जो सुगंधा एक मेच्योर और बोल्ड कैरेक्टर में दिखी, वही सुगंधा नाटक के अंत में एक नासमझ और छिछोरी हरकतों वाले एक लड़के (आलोक) के साथ घूमने के लिए जाती है, जो उसके सामने बड़े अजीब तरीके से प्रेम प्रस्ताव रख चुका है। सुगंधा द्वारा उसके प्रेम प्रस्ताव को ठुकराने के बाद भी वह इस प्रेम का ख्वाब देख रहा होता है।

आलोक, हमारे समाज का एक ऐसा पुरुष है, जो लड़कियों को देखते के साथ ही उसके सपने बुनने लगता है, उसे लड़कियों की ‘ना’ से कोई फर्क नहीं पड़ता है, वह किसी लड़की के ‘ना’ कहने पर भी उसे पटाने की पूरी जुगत में लगा रहता है।

हालांकि, सुगंधा यह एक्सप्लेन करती है कि मेरी तरफ से प्रेम या किसी भी रिश्ते के लिए ‘ना’ है और मनाली में कुछ होने भी वाला नहीं है लेकिन सुगंधा का सिर्फ यह कह देना दर्शकों के सामने जा रहे गलत मैसेज के सामने काफी नहीं था।

“हंगामा है क्यों बरपा” का मंचन करते कलाकार। फोटो सोर्स- पलटन फेसबुक पेज

अगर एक मेच्योर लड़की उस लड़के को अपने साथ ले जाने को तैयार होती है, तो यह नाटक फिर ऐसे लड़के को बढ़ावा देता हुआ दिखता है, जिनके लिए आपसी सहमति के कोई मायने नहीं होते हैं, जो अपने प्रेम को कबूलवाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार होते हैं, जिनका लड़कियों को देखते ही लार टपकने लगता है।

सुगंधा बेशक जाती मगर वह अकेली जाती, जैसे पीहू जाती है, जैसे पीहू की मॉं जाती है। जब एक इतने ज़रूरी विषय पर नाटक के अंत में इस तरह का मैसेज निकलकर आए तो थोड़ी निराशा तो होती ही है।

क्योंकि हमारे समाज को इस तरह के नाटक की बेहद ज़रूरत है। हिंदी पट्टी में ऐसे नाटकों का मंचन होना चाहिए, ऐसे और भी नाटक लिखे जाने चाहिए, कविताएं लिखी जाने चाहिए, ताकि समलैंगिक प्यार की लड़ाई की जीत सिर्फ कानूनी सीमा तक सीमित ना रहे उसकी जीत सामाजिक स्तर तक हो।

हिंदी पट्टी के समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी समलैंगिकता को नहीं समझ पाया है (मैं यहां बिलकुल यह नहीं कह रही कि इंग्लिश बोलने या समझने वाला समाज इस ओर प्रगतिशील रूप में मौजूद है)। इसकी एक बड़ी वजह, इस मुद्दे पर हिंदी में ना ही ज़्यादा कंटेंट उपलब्ध हैं और ना ही इस पट्टी में सामाजिक स्तर पर कुछ खास बेहतर काम हो रहे हैं।

जो समाज अभी LGBTQ+ के शाब्दिक मायनों तक को ठीक से समझ नहीं पाया है, उसके लिए समलैंगिक प्रेम एक “अबनॉर्मल” बात होना, कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसे में इस तरह के नाटक इस दिशा में बेहतरीन भूमिका निभा सकते हैं।

 

Exit mobile version