एक दर्दनाक किस्सा, जिसका प्रदर्शन रोंगटे खड़े कर देने वाला है। एक फिल्म जिसका हर कलाकार अपने किरदार में डूब गया है, जिसका बैकग्राउंड स्कोर हर सीन में जान डाल देता है।
फिल्म की कहानी से लेकर फिल्मांकन के लिए चुने गए लोकेशन तक, जब सब कुछ परफेक्ट हो, जब ऐसा लगे कि आप भी उस पर्दे पर चल रही घटना का एक भाग हैं, कहानी का हर हिस्सा जब हकीकत की तरह समझ आए और सबसे खास बात, जब जाति-धर्म की चक्की में पिस रहा, आपके अंदर का बचा हुआ इंसान सवालों के घेरे में हो, तब जाकर बनती है ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्म।
हमारे देश की सच्चाई से जुड़े एक बेहद डिप्रेसिंग हादसे पर बनी इस फिल्म को देखकर महसूस किया कि कितनी खुशनसीब हूं, जो यह फिल्म देखने को मिली।
फाइल्स बंद कमरे में डाल दी गई, केस भी शट डाउन करने का प्रयास किया गया पर खुशी है कि अब भी वे लोग ज़िंदा हैं, जो सच समझते हैं और उन्हें बेबाकी से दुनिया के सामने रखने की हिम्मत रखते हैं। आज भले ही हमारे आसपास की बिल्डिंग्स की ऊंचाई काफी बढ़ गई हैं, चमकदार घर और शानदार इंटीरियर से सजे कैफे हमें बेहद लुभाने लगे हैं मगर कुछ जगहों और कुछ लोगों के लिए अब भी सब कुछ पहले जैसा ही है। यही वे गलियां होती हैं, जहां हमारे (सबसे बड़े) संविधान के इस ‘आर्टिकल 15’ की हर दिन धज्जियां उड़ती हैं। कभी सत्ता के हाथों तो कभी ऊंचे ढोंगी तबकों के पैरों तले इंसानियत को कुचल दिया जाता है। इन गलियों में इंसानियत के चिथड़े तब भी उड़ते थे और यकीन मानिए आज भी धड़ल्ले से उड़ते हैं।
फिल्म की कहानी-
चलिए बात को इधर-उधर ना घूमाते हुए, सबसे पहले फिल्म की कहानी और उसका आधार जानते हैं। फिल्म की शुरुआत होती है, डरी, सहमी और लहूलुहान हालात में एक बस में बैठी दो लड़कियों से, जिनके साथ एक आदमी बदसलूकी करता नज़र आता है। फिर कहानी दिखाई जाती है, आईपीएस अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की, जिनका ट्रांसफर होता है उत्तर प्रदेश के लाल गॉंव में, जहां पर जाति-धर्म और ऊंच नीच नामक बीमारी से सारा गॉंव पीड़ित नज़र आता है।
कहानी आगे बढ़ती है और फिर वही दो नाबालिक लड़कियां पेड़ से लटकती हुई पाई जाती हैं, जिन्हें आपने फिल्म की शुरुआत में देखा था। वजह सिर्फ इतनी कि वे दलित थी और अपनी दिहाड़ी में महज़ 3 रुपये ज़्यादा मांग रही थी। सत्ता के दबाव और ओछी मानसिकता के बीच घिरा एक पुलिस ऑफिसर कैसे गुनाहगारों तक पहुंचता है, यही इस फिल्म में देखने को मिलता है।
कहानी का आधार-
अब बात करते हैं इस फिल्म की कहानी के आधार की। दरअसल, यह फिल्म साल 2014 के बदायूं गैंग रेप पर आधारित है। बात दें कि 27 मई, 2014 को उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले के कटरा सादतगंज गॉंव में दो दलित लड़कियों का गैंगरेप करके उन्हें पेड़ से लटकाकर उनकी जान ले ली गई थी।
फिल्म की कुछ खास बातें-
सीधे-सीधे शब्दों में कहूं तो फिल्म बेहद शानदार है पर यहां मैं इसकी कुछ खास बातों का ज़िक्र करना चाहूंगी, जिनमें सबसे पहले आते हैं फिल्म के कलाकार। आयुष्मान ने तो पूरी फिल्म को बांधे ही रखा मगर उनके साथ ही कुमुद मिश्रा और सयानी गुप्ता जैसे कलाकार भी अपने किरदारों में खूब जंचे। वहीं मनोज पाहवा ने नेगेटिव रोल भी बखूबी निभाया है। इनके अलावा एक और किरदार आकर्षित करने वाला है और वह है निशाद, जो कि काफी हद तक आपको क्रांतिकारी भगत सिंह की याद दिलाएगा। निशाद के रोल में मोहम्मद जीशान अय्यूब वाकई तारीफ के काबिल हैं। उनका रोले छोटा ज़रूर था मगर कमाल था।
वैसे फिल्म में एक महंत जी का किरदार भी है, जो आज की राजनीतिक हकीकत से जुड़ा है। जहां ब्राह्मण-दलित एकता के नारे लगाने वाला महंत, दलितों के साथ बैठा ज़रूर है मगर अपना खाना और अपने बर्तन तक घर से लेकर आया है।
इन सबसे ऊपर था, अनुभव सिन्हा का डायरेक्शन, जो इससे पहले मुल्क जैसी शानदार फिल्म भी आप लोगों को सौगात में दे चुके हैं। यह उनके निर्देशन का ही कमाल है कि ‘आर्टिकल 15’ का हर एक सीन वास्तविक नज़र आता है। वह सीन जब दोनों लड़कियों को पेड़ से लटकता दिखाया जाता है, वाकई रोंगटे खड़े कर देने वाला था। वहीं एक सीन में उन वर्कर्स को दिखाया गया है, जो गटर और गंदे नालों में नंगे उतारकर उनकी सफाई करते हैं, ताकि हम जैसे लोगों को गंदगी का सामना ना करना पड़े। अगर आपके अंदर इंसानियत ज़िंदा है तो वह सीन भी आपको हिला देगा। समझ आएगा कि अगर ये वर्कर्स अपना काम ना करें, तो देश के क्या हालत हो सकते हैं।
अब आते हैं फिल्म के डायलॉग्स पर। 2 घंटे 13 मिनट की इस कहानी में आपको कई ऐसे पल देखने और सुनने को मिलेंगे, जो आपको झकझोर देंगे। फिल्म में कई जगह पर बाबा साहेब अंबेडकर का ज़िक्र होता है, तो कहीं पर छुआछूत, ऊंच नीच की मानसिकता साफतौर पर देखने को मिलती है। आइये नज़र डालते हैं, फिल्म के कुछ खास डायलॉग्स पर। सबसे पहले सबसे बेहतरीन वाला।
एक सीन में निशाद कहता है,
मैं और तुम इन्हें दिखाई नहीं देते, हम कभी हरिजन हो जाते हैं, कभी बहुजन हो जाते हैं, बस जन नहीं बन पा रहे हैं कि ‘जन-गण-मन’ में हमारी भी गिनती हो जाए
अयान और निशाद के बीच जब संविधान की बात छिड़ती है तो निशाद कहता है,
वो उस किताब की ही नहीं चलने देते, जिसकी ये शपथ लेते हैं।
इस पर अयान कहते हैं,
यही तो लड़ाई है निशाद, उस किताब की चलानी पड़ेगी। उसी से चलेगा देश।
आखिरी सीन में जब दलित होने और अपने हक के लिए लड़ने की गलती की वजह से निशाद को बीच सड़क पर गोलियों से छलनी कर दिया जाता है, उससे पहले वह कहता है,
हम अकेले नहीं हैं दोस्त, हमसे पहले भी कई गए और हमारे बाद भी ऐसे बहुत आएंगे।
वहीं एक सीन में आयुष्मान कहते हैं,
फर्क बहुत कर लिया, अब फर्क लाएंगे।
सच कहूं तो यह फिल्म सीधे तौर पर सिस्टम और उन लोगों की हकीकत बताती है, जो खुद को संविधान से भी बड़ा समझने लगे हैं। इस तरह की घटनाएं हर दिन हमारे आसपास होती हैं मगर हम अंधे बन जाते हैं, क्योंकि शायद यह किसी हमारे अपने के साथ नहीं हुआ है। इतना कुछ कहने के बाद भी अगर आपके मन में कोई शक रह गया हो कि यह फिल्म देखने लायक है या नहीं, तो मैं आपसे कहूंगी कि यह भी आप फिल्म देखने के बाद ही तय करना कि फिल्म देखने लायक थी या नहीं। वैसे आखिर में एक सवाल आपके लिए, यह जात-धर्म के दिखावे से ऊपर उठकर, इंसान बनना क्या इतना मुश्किल है?