गाँधी को बचाते-बचाते कुछ लोग सावरकर तो नेहरू को बचाते-बचाते कुछ लोग पटेल का विरोध करने लगे। आप खुद को बौद्धिक समझते हैं तो इतना जानते होंगे कि देश का स्वतंत्रता संग्राम कई हिस्सों, स्तरों और वैचारिक मूल्यों के साथ लड़ा गया है लेकिन आपके सेलेक्टिव नैरेटिव ने आपकी जड़े खोद दीं। लोगों को आपकी आवाज़ से भरोसा उठ गया। आपने विरोध को मुद्दों से भी बड़ा बना दिया इसलिए लोगों को आपके मुद्दे नहीं केवल आपका विरोध दिखा।
विरोध करवाना विरोधियों का लक्ष्य
मैं आपसे पूछता हूं सावरकर का विरोध क्यों? क्या इसलिए क्योंकि उन्होंने हिंदुत्व नामक पुस्तक में हिंदुत्व विचारधारा की व्याख्या कर दी? क्योंकि उन्होंने अंग्रेज़ सरकार को माफी पत्र लिखकर क्षमा मांग ली? नहीं, बिल्कुल नहीं। आप सावरकर का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि सावरकर को एक दल ने अपना मानकर उसे अपनी वैचारिक चेतना का प्रतिबिम्ब बना दिया। आपको लगता है कि आप सत्ताधारी दल पर हमला कर रहे हैं लेकिन आप उन प्रयासों पर भी हमले करते हैं, जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की रीढ़ बनते हैं।
आप राष्ट्रवाद और देशभक्ति के वैचारिक अंतर को अगर भगत सिंह के विचारों द्वारा प्रचारित करना चाहेंगे, तब आपको यह समझना पड़ेगा कि इस समय भगत सिंह पॉपुलिस्ट हैं, उनके विचार नहीं। भगत सिंह को राजनीति में गाँधी विरोध और उनके प्रति काँग्रेस की उदासीनता के लिए उछाला जाता है। आप प्रतिक्रिया देते-देते भगत सिंह के विरोध में भी उतर आएंगे, ऐसा आपके विरोधियों का लक्ष्य है।
सावरकर एक क्रांतिकारी के तौर पर लंदन में इंडिया हाउस के सदस्य के रूप में थे। उनके क्रांतिकारी जीवन का पूर्वार्ध जितना प्रभावी था, उत्तरार्ध उतना ही निराशाजनक। ऐसा क्यों हुआ, यह इतिहासकार ही बता पाएंगे। खुद सावरकर 1857 के गदर को प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले पहले व्यक्ति थे। इस पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है।
अब आपको जिस नैरेटिव का जवाब देना है, वो यह है कि सावरकर अंडमान जाते हुए जहाज से कूदे और फ्रांस के समुद्रतट तक तैरते हुए पहुंचे, सावरकर की बढ़ती लोकप्रियता से गाँधी के मन में ईर्ष्या का भाव आ गया। जिसके कारण उन्हें अंग्रेज़ों से कहकर यातनाएं दिलाई गई। आप चाहें तो इस बीमर को लेफ्ट कर सकते हैं लेकिन नहीं! आपको तो आदत है खुद को साबित करने और पूरे इतिहास के पेंच ढीले करने की।
हिन्दू राष्ट्र की भावना से वापसी
सावरकर वैचारिक रूप से बहुत सशक्त और भाषाई कलाबाज़ थे। अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में उन्होंने हिंदुत्व की जो परिभाषा दी थी, उसमें साम्प्रदायिकता का तड़का नहीं है। व्यवहारिक रूप में उनकी गतिविधियां और कार्यप्रणाली जैसी भी रही हो लेकिन विचार से वह हिंदुओं के ही नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र को प्रभावित करने वाले और जन-स्वीकार्यता की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहे थे।
1921 में माफी देने के नाम पर राजनीति में अंग्रेज़ों का विरोध ना करने की शर्त रखी गई थी। “क्विट इंडिया बट लीव योर आर्मी” के नाम पर उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया। गाँधी की हत्या में इन पर जब अभियोग चलाया गया, उसके बाद से हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ तक ने इन्हें राजनीतिक रूप से अछूत मान लिया था लेकिन 80 के दशक में प्रकाशित अमर चित्र कथा के माध्यम से इन्हें हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के साथ पुनः पटल पर खींच लाया गया।
सावरकर एक स्वतंत्रता सेनानी थे मगर वीर बिल्कुल नहीं थे। वह क्रांतिकारी और राजनीतिक जीवन के पशोपेश में झूल रहे थे लेकिन उनके मरने के बाद उन्हें एक नए नैरेटिव हिन्दू राष्ट्र के प्रतिपादक के रूप में राजनीति में घसीट लिया गया। जहां उन्हें एक नया जन्म मिला। उनके जन्म दिवस पर अच्छे कार्यों को याद करते हुए और कमज़ोर मन स्थिति में लिखे गए माफीनामे को मानवीय कमज़ोरी मानते हुए, हम सभी को उन्हें प्रणाम करना चाहिए और एक मुद्दे के रूप में हर जगह भटकने से मुक्त कर देना चाहिए।