खबर पता चली कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने के कारण एक तेंदुए की आग में झुलसकर मौत हो गई। पूरी तरह जली हुई हालत में वह जंगल से भागकर घनसाली शहर पहुंचा लेकिन उसकी हालत इतनी खराब थी कि उसने कुछ ही देर में तड़पते हुए दम तोड़ दिया।
शहर के लोग सामने खड़े तमाशा देखते रहे। वे और कर भी क्या सकते हैं? हर साल उत्तराखंड जलता है और ना जाने कितने पेड़-पौधे, औषधि, वनस्पतियां, प्राणी और पक्षी इस आग की बेरहमी का शिकार हो जाते हैं। इतने मृत गाँव और नकारा क्षेत्र मैंने अपनी जीवन यात्रा में कभी नहीं देखे। यह गाँव मुर्दों का है।
इन्हें ना अपने जंगलों से कोई लेना देना है और ना तो अपने गाँव से और ना ही अपने खेतों से जिन्हें इन्हीं के पूर्वजों ने बड़ी मेहनत से पहाड़ काटकर बनाया था। शायद उन्होंने उस वक्त सपने देखे होंगे कि हमारी अगली पीढियां इन खेतों को सिचेंगी, फसल लहराएगी, गाँव में हमेशा रौनक होगी, त्यौहारों में गीत गाए जाएंगे और ढोल बजेंगे मगर नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
हमें यह सोचकर शर्म आनी चाहिए कि हम सुंदरलाल बहुगुणान के ज़िले की बात कर रहे हैं। जो शख्स जंगल बचाने हेतु पेड़ों से चिपका रहा, जिसने एक ऐसा कैंपेन खड़ा किया जो आज की कोई भी एडवरटाइज़िंग एजेंसी सोच भी नहीं सकती, जिस इंसान के बारे में देश के हर बच्चे ने स्कूल की किताबों में पढ़ा है।
शायद वह सारा ज्ञान किताबों और परीक्षा में पास होने तक ही सीमित रह गया। जंगल बचाने में जिस शख्स का नाम आज भी अव्वल स्थान पर है, उसी का ज़िला हर साल जल रहा है। उत्तराखंड वन विभाग ने गर्मी के सीज़न का नया नाम ‘फायर सीज़न’ दिया है। हमें तो इस देश के बस तीन ही सीज़न पता थे। इस नए सीज़न का अविष्कार करने के लिए वन विभाग का शुक्रिया।
पहाड़ों के उपरी तरफ आग देखकर हम फॉरेस्ट डिपार्टमेंट को फोन करते हैं। गाँव के लोग और फायर डिपार्टमेंट पहुंचकर कमर पर हाथ रखे हमें ज्ञान देते हैं, “यह आग तो नीचे आकर बुझ जाएगी, आप चिंता मत कीजिए आपके घर तक आग नहीं पहुंचेगी, आप निश्चिंत होकर सो जाइए” (जैसे हम इतने सालों से सो रहे हैं ठीक वैसे ही।)
उन जंगलों के बीच और कितने घर हैं जो इस आग में जलकर राख होने वाले हैं। उससे किसी को कोई मतलब नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि वे घर इंसानों के नहीं हैं ना! हमारे देश में बस इंसानों को ही जीने का हक है। सिर्फ इंसानों के मरने पर सीना पीटकर मातम मनाया जाता है। सोशल मीडिया पर लंबी चौड़ी शोक सभाएं चलती हैं।
आग और इंसानी घरों के बीच के जंगल में कितनी चिड़ियां, प्राणी, सांप, बिच्छु, छिपकली, गिरगिट, चीटी, तितलियां और ना जाने किन-किन के घर जलते हैं मगर फिर वही बात कि इनसे हमें क्या फर्क पड़ता है?
हम तो बस तमाशा देखेंगे फिर कहेंगे, “अरे यह तो हर साल होता है। क्या करें ‘फायर सीज़न’ चल रहा है ना, चलो खाना खाते हैं और सो जाते हैं। सुबह जल्दी उठना है ना।”
हम रोज़ सुबह उठते तो हैं लेकिन क्या वह सही में सुबह होती है? क्या सुबह ऐसी होती है? क्या सुबह इतनी भयानक और डरावनी होती है? रात-भर जलकर झुलसने वाली सुबह? तो नहीं चाहिए हमें ऐसी सुबह। लाखों जीवों के प्राण छीनकर मिली हुई सुबह हमें नहीं चाहिए।
बहिष्कार करते हैं हम ऐसी सुबह का। बस ज़रूरत है सुबह का नक्शा बदलने की। हम यहीं इंतज़ार कर रहे हैं, बस ज़रूरत है आपके साथ की। चिपको आंदोलन को फिर से दोहोराने की।
#सुबहबदलनीहै