बेरोज़गार इस देश की वह प्रजाति है, जिसका भविष्य सत्ता में आने को आतुर हर सरकार के सपने में उज्जवल है। इन सबके बीच हकीकत इससे बिल्कुल परे है। मामला राजस्थान का है, जहां 2018 , 2017 और यहां तक कि 2011 और 2013 तक की भर्तियों की कोई सुध लेने वाला तक नहीं है।
7 साल तक क्या भला कोई रोज़गार के लिए लड़ाई लडता रहेगा? हां, एक बात ज़रूर है कि नौकरी की उम्मीद में राजस्थान के औसत युवा उम्र के अगले पड़ाव में पहुंचने की सीमा पर हैं। सरकारों से गुहार लगाकर भी इन्हें कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं है।
सरकारों की खुदगर्ज़ियां इस देश के युवाओं को इस स्तर तक कमज़ोर बनाने के लिए आतुर हैं कि कोई विद्यार्थी मेहनत के बल पर सरकारी नौकरी लेने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाए।
युवाओं का टूटता विश्वास और सरकारों से मिले आश्वासन अब विद्रोह की अग्नि से धधकने लगे हैं लेकिन मैं समझता हूं कि इसमें कोई गलती भी नहीं है। आखिर उन स्टूडेंट्स ने क्या गुनाह किया जिन्होंने कई चरणों का इम्तिहान पास कर लिया है और बेवजह आज भी सरकारी तंत्र की लेटलतीफी का शिकार बने जा रहा है।
कुछ दशकों से राजस्थान का इतिहास यह रहा है कि पांच साल काँग्रेस और पांच साल बीजेपी ने राज किया है लेकिन सरकारों के बदल जाने से भी हालात आज जस के तस बने हुए हैं। भर्तियों का कोर्ट मे अटकना और लम्बे समय तक परिणाम जारी ना हो पाना, ऐसे कारण रहे हैं जिससे परीक्षार्थियों का मनोबल टूटने लगा है, फिर भी युवा 50 डिग्री की भयंकर गर्मी में सडकों पर अपने हक की लडाई लड़ रहे हैं।
आलम यह है कि अधीनस्थ बोर्ड, कार्मिक विभाग और सीएमओ द्वारा लगातार इन बेरोज़गारों को धोखा देने का काम किया जा रहा है। एक विभाग से दूसरे विभाग और दूसरे विभाग से तीसरे विभाग की परिक्रमा में ही परीक्षार्थियों का जीवन गुज़र रहा है।
सरकार को संवेदनशील होने की ज़रूरत
सरकारों के गैर-ज़िम्मेदाराना फैसले और परीक्षाओं में हुई गडबड़ियां ही इन सबके पीछे की बड़ी वजहें हैं। दर्ज़न भर से ज़्यादा भर्तियां प्रक्रियाधीन हैं, जिनमें सरकार द्वारा प्रस्तावित गुर्जर आरक्षण और EWS आरक्षण मुख्य वजह बताई जा रही है फिर वही सवाल सामने आ खड़ा होता है कि आखिर और कितना इंतज़ार?
सूचना सहायक, एलडीसी और पीटीआई जैसी दर्ज़न भर्तियां एक साल गुज़र जाने के बाद भी आज गाईडलाइन के इंतज़ार में बैठी हैं। युवाओं की सरकार, डिजिटल राजस्थान, मैं नहीं हम और सबका साथ, सबका विकास जैसे नारे अब सिर्फ खोखले दावे लगने लगे हैं।
बेरोज़गारों के लिए इंतज़ार कहीं सरकार के खुद के अस्थिर होने का संकेत तो नहीं दे रहे हैं? पिछले दिनों हार के बाद छपी मीडिया रिपोर्ट से तो यही स्पष्ट होता है। शायद सुदूर भविष्य की कोरी कल्पना के साकार होने पर ही कोई जवाब मिल पाए। किंतु इस देश के भविष्य की बागडोर संभालने को धूप में खड़े इन बेरोज़गार युवाओं का विरोध भी नाजायज़ तो नहीं है।