भारतीय संसद की पहली बैठक और सांसदों के शपथ ग्रहण समारोह के मौके पर राष्ट्र की अखंडता, एकता, संसदीय गरिमा और पवित्रता बनाए रखने का संकल्प लिया जाता है, जिससे लोकतांत्रिक मूल्य और सिद्धांत मज़बूत हो सके।
इस बार संसद का शपथ ग्रहण समारोह देखकर लग रहा था, जैसे यह कोई जागरण, कीर्तन, जमात और मुशायरे के लिए मंडली चुनी जानी हो। बस ढोल तासें नहीं बजाये गएं। अगर ये भी कर देते तो माहौल थोड़ा और भक्तिमय हो जाता। किसी के मुंह से राधे-राधे, किसी के मुंह से जय श्रीराम और अल्लाह हु अकबर सुनकर ऐसा लग रहा था, मानो देश के गरीब किसान या अन्य श्रेणी के मतदाताओं की बजाय उन्हें सीधे किसी रूहानी ताकत ने चुनकर इस संसद में भेजा हो।
आम जनता ने क्षेत्र के विकास के लिए वोट दिया था, यहां तो भक्तिमय नारे लगाए जा रहे हैं
यदि संसद में नारे ही लगाने हैं तो फिर चुनाव, रैलियां, भाषणबाज़ी ये सब तामझाम क्यों? दो आदमी मंदिर से पकड़ों, दो चार मस्ज़िद से, कुछ गुरुद्वारों से ले लो और कुछ गिरजाघरों से और लगवाओ संसद में नारे, क्योंकि आम मतदाता भी सोच रहा होगा कि चुनाव में उसने जिस नेता को वोट दिया था, वह जीतने के बाद क्षेत्र के विकास और मूलभूत सुविधाओं के लिए काम करेगा लेकिन यहां तो संसद में भक्तिमय नारे लगाए जा रहे हैं।
यह ज़रूर है कि शपथ धर्मानुसार किसी आलौकिक शक्ति को साक्षी मानकर अथवा सत्य निष्ठा के नाम पर ली जाती है परन्तु इसके अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। भारतीय संविधान सभी निष्ठाओं, आस्थाओं और विश्वासों का सच्चा स्वरूप होता है लेकिन इस लोकसभा में धर्म और व्यक्ति विशेष से जुड़े नारे जिस तरह लगाये गए हैं, यह किसी नई कहानी की ओर देश को ले जा रहे हैं।
पूर्ण बहुमत से चुनाव इंदिरा गाँधी ने भी जीता था और 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गाँधी ने भी लेकिन संसद में इंदिरा इंदिरा या राजीव-राजीव के नारे लगाने का ज़िक्र कहीं नहीं मिलता है। 17वीं लोकसभा चुनाव के बाद यह उन्माद दिख रहा है। जिस तरह मोदी-मोदी और धार्मिक नारे लग रहे हैं, उससे संविधान और संसद बौनी नज़र आ रही है।
संसद अब धर्म का जमावड़ा बन गई है
मैंने सुना था कि देश की संसद राष्ट्र भक्तों का जमावड़ा होती है लेकिन अब मेरा व्यक्तिगत मत बदल गया है, यह धर्म, व्यक्ति विशेष और भक्तों का जमावड़ा भी होती है। कोई जय श्री राम तो कोई अल्लाह हु अकबर, जय भीम के नारे लगा रहा था, कोई कह रहा था कि मैं वन्देमातरम नहीं बोलूंगा, क्योंकि मेरा मज़हब इसकी इजाज़त नहीं देता है।
अब जो नेता धार्मिक नारे लगा-लगाकर शपथ ले रहे हैं, अब उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे धार्मिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर काम करेंगे? यानि साफ है कि शपथ लेने में ही झूठ बोल रहे हैं, क्योंकि शपथ के अनुसार तो लिखा है, “मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा”।
धार्मिक लड़ाई की शुरुआत संसद से ही मानी जाए
या तो ये लोग अभी भी चुनावी रैलियों में ही लटके पड़े हैं या फिर अभी से अगले चुनाव के लिए मतदाताओं को रिझाना शुरू कर दिया है पर ऐसे कौन से मतदाता हैं, जो सांसदों से काम नहीं बल्कि धार्मिक नारे सुनना पसंद करते हैं? यदि ऐसा है तो देश में धार्मिक लड़ाई की शुरुआत संसद से ही मानी जाए, क्योंकि अब देश में कहीं नारों, धार्मिक उपदेशों पर हिंसा और दंगे होगे तो ये लोग किस मुंह से किसी को आरोपी ठहरा सकते हैं? अगर कोई आरोपी हुआ भी तो वह पूछ लेगा कि यदि यह फसाद है तो इसकी शुरुआत संसद से हुई थी।
किसको समझाएं कि सीरिया, सूडान, पाकिस्तान, ईरान सोमोलिया समेत विश्व में अनेक देश हैं, जो संविधान की बजाय धार्मिक आधार पर चल रहे हैं लेकिन इस धार्मिक आधार से उन्होंने हासिल क्या किया है, यह सारी दुनिया जानती है। हमारे यहां भी 18 जून 2019 का दिन धार्मिक शक्ति दिखाने का दिन बन गया है। अब यह देखना बाकी है कि जब पहला दिन ही ऐसा था तो बाकि पांच साल के दिन कैसे होंगे?
खैर, एक मियां जी सुबह-सुबह अपनी केले की रेहड़ी पर खड़े थे, ग्राहक ने आकर पूछा मियां जी केले क्या भाव दिए हैं? मियां जी बोले 50 रुपये दर्जन। उसने कहा ठीक सारे पैक कर दो। मियां जी बोले, हूं पागल समझ रखा क्या? सारे तुझे बेच दूंगा तो शाम तक क्या बेचूंगा? ठीक यही हालत अपने देश के नेताओं के हो गए हैं, अब ये नारे और तकरीर यदि एक दिन बेच दिए गएं तो अगले पांच सालों तक क्या बेचेंगे?