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राजनीति में क्यों सफल नहीं हो पा रहे हैं राहुल गॉंधी?

मुझे बदनाम करने को सिर्फ मैं ही काफी हूं, क्या हैसियत तुम्हारी, जो मुझे बड़ा कर पाओ।

मानवीय जीवन में यह एक आम घटना है, जब हम अवसाद में होते हैं तब सोचने, समझने की क्षमता क्षीण होने लगती है। निर्णय क्षमता विचलित होने लगती है। हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गॉंधी भी शायद इसी प्रकार के अवसाद से ग्रसित दिखाई दे रहे हैं।

अवसाद की वजह क्या हो सकती है?

ज़ाहिर सी बात है, हमारे रिपोर्ट कार्ड में यदि हमें ग्रेस मार्क्स से पास होना पड़े तो हम भी अवसाद का शिकार हो सकते हैं। लोकसभा चुनावों में आए नतीजों को देखा जाए तो कॉंग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है। व्यक्तिगत तौर पर राहुल गॉंधी का परफॉर्मेंस देखा जाए तो वह तो उससे भी ज़्यादा विचलित कर देने वाला है, अमेठी में तो वह फेल हो ही चुके हैं। अब इसको अवसाद की वजह माना जाए या अंतर्मन में अपने शीर्ष नेतृत्व के प्रति गुस्से का ज्वालामुखी, यह तो राहुल ही बता सकते हैं।

क्या अभी भी परिपक्वता की कमी है?

फोटो सोर्स- Getty

राहुल गॉंधी जब से सक्रिय राजनीति में आए हैं, तब से ही अपरिपक्वता का तमगा उनके माथे पर सजा हुआ है। महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर नकारात्मक राजनीति के चलते उन्हें इसका खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा है। “चौकीदार चोर है”, नारे का विफल होना इसका संकेत हो सकता है। कई बार राहुल गॉंधी ने अपनी अपरिपक्वता को स्वयं ज़ाहिर कर अपने विरोधियों को यह मौका उपहार स्वरूप दिया है लेकिन क्या 10 वर्ष का समय अंतराल भी उन्हें परिपक्व बनने के लिए काफी नहीं है क्या? या इसे उनके परिवार का रहमोकरम माना जाए कि उनके पास अनंतकाल तक यह मौका है कि वह परिपक्व हो सकते हैं।

क्या अपने विरोधियों की काट ढूंढने में विफल हुए हैं राहुल?

हमारा देश अनगिनत बुनियादी मुद्दों वाला देश है, जहां बेरोज़गारी है, पानी की समस्या है, किसानों का दर्द तो जगज़ाहिर है। महिला सुरक्षा, बाल विकास, शिक्षा, उद्योग, नोटबंदी, GST ना जाने कितने मुद्दे हैं, फिर भी क्या राहुल गॉंधी इनको भुना नहीं पाए हैं? उसकी वजह यह है कि राष्ट्रीय परिपेक्ष्य की राजनीति छोड़ उन्होंने एक नई धारा पकड़ ली है, जिसमें कि व्यक्तिगत राजनीति होने लगी और उसी के फेर में राहुल फंसते चले गएं और चुनाव हार गएं। 72000 जैसा लोकलुभावन वादा भी उन्हें बचा नहीं पाया।

विवाद जो उनका पीछा नहीं छोड़ते

राहुल गॉंधी और विवाद अक्सर साथ-साथ चलते नज़र आते हैं। इन विवादों को जन्म अक्सर वह स्वयं ही देते हैं और अपने विरोधियों को यह मौका दे देते हैं कि उनपर वे हावी हो जाते हैं।

यह कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जो उन्हें अब स्वयं के भीतर सुधारने चाहिए। अपनी गलतियों से सीखकर ही व्यक्ति परिपक्व बनता है।

राहुल गांधी का मोबाइल प्रेम

हाल ही में हुए कई मौकों पर राहुल अपने मोबाइल की वजह से विवादों में घिरे नज़र आएं। आखिर ऐसा क्या है इस मोबाइल में, जो इन्हें एक परिपक्व राजनेता से एक गैरज़िम्मेदार इंसान बना देता है। क्या यह एक बचकानी हरकत नहीं है कि शहीदों की श्रद्धांजलि सभा में भी कोई नेता अपना मोबाइल टटोलने लगे?

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर ट्वीट करते हुए राहुल जी ने कटाक्ष करते हुए लिखा, “New India”। मतलब राहुल जी क्या आज भी योग दिवस को सिर्फ मोदी से जोड़कर ही देख रहे हैं? जबकि योग दिवस तो पूरी दुनिया ने मनाया है। बहरहाल, राहुल जी को यह इकलौती तस्वीर मिली मखौल उड़ाने के लिए, जिसमें आर्मी के जवान डॉग स्क्वाड के साथ योग करते नज़र आ रहे हैं।

श्रद्धांजली संदेश लिखना हो, भाषण पढ़ना हो और ना जाने कितने मौकों पर यह मोबाइल राहुल की आलोचना का कारण बना है। या तो राहुल जी को राष्ट्र के नाम एक संदेश देना चाहिए, जिसके ज़रिए लोगों को यह पता चल सके कि मोबाइल के ज़रिए वे कौन सा ऐसा महान कार्य करते हैं, जिससे समाज का भला हो सकता है या फिर उन्हें इस मोबाइल प्रेम को कम कर देना चाहिए। कम-से-कम कुछ खास जगहों और हालातों में।

मेरे लेख को पढ़ने के बाद हो सकता है कि कुछ लोग मुझे भक्त कहने लगे लेकिन मैं मोदी के गुफा में जाकर तपस्या करने को भी उतना ही बड़ा आडंबर मानता हूं, जितना कि राहुल का अपना जनेऊ दिखाने को। राहुल गॉंधी देश में पनप रहे राष्ट्रवाद को नहीं समझ पा रहे हैं और मोदी उसी राष्ट्रवाद पर सवार होकर अपना परचम लहरा रहे हैं। यदि उन्हें परिपक्व राजनेता बनना है तो ना जाने अभी कितना और समय लगेगा। इसी आस में उनके चाहने वाले उनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं।

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