एक राष्ट्र एक चुनाव के विषय पर सर्वप्रथम हमने 2014 में बनी बीजेपी सरकार से सुना था, जिसपर चर्चा करने की बात कही गयी थी। हाल ही में बनी मोदी 2 के नाम से चर्चित इस सरकार ने कई पार्टियों को इस पर विचार करने को कहा है। जिसमें लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को एक साथ कराने की बात कही जा रही है।
सरकार से मेरे कुछ सवाल
- इससे पंचायत राज चुनावों को क्यों अलग रखा गया है? जिसमें 30 लाख लोगों को चुना जाता है और इसके लिए क्या प्रावधान किए गए हैं?
- दूसरा इस पैटर्न को लाने के पीछे जो कारण बताए जा रहे हैं, उनमें से एक कारण लगातार चुनावों के चलते होने वाले पैसों के खर्च को बताया गया है। अगर एक चुनाव होगा तो पैसों की काफी बचत होगी। सवाल यहां यह है कि क्या वाकई में सरकार खर्च को लेकर इतनी चिंतित है?
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि चुनावों के दौरान काले धन का उपयोग किया जाता है। जिसे रोकने के लिए निर्वाचन आयोग को कदम उठाने चाहिए। जैसे-कोई भी चुनाव हो तो वह स्टेट फंडिंग से हो। कोई भी पार्टी अपनी जेब से एक रुपया खर्च नहीं करेगी। अगर कोई भी पार्टी कॉरपोरेट जगत से पैसा लेती है, तब निर्वाचन आयोग को उस पार्टी का चुनाव रद्द कर देना चाहिए और उस पर 15 साल का बैन लगा देना चाहिए।
- तीसरा प्वाइंट यह दिया जा रहा है कि हमारे पास सिक्योरिटी की कमी है। यह भी मुझे पूरी तरह बेतुका बहाना लग रहा है।
- चौथा, कहा जा रहा है कि चुनावों के दौरान हमेशा जनजीवन प्रवाभित होते हैं। मानते हैं कि लगातार चुनावों से कुछ परेशानियां होती हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपने लिए खुद गड्ढा खोद लें। गड्ढे से मेरा मतलब है कि एक राष्ट्र एक चुनाव तब ही होगा जब संविधान में बदलाव होंगे। जिसमें राष्ट्र और राज्य पार्टियों का भी समर्थन चाहिए।
हम अगर देखें तो काफी जगहों पर बीजेपी ही सत्तासीन है और वह इस नीति को अपनाने के लिए तैयार है। मैं आपको बता दूं अगर ऐसा होता है तब संविधान से नॉन कॉन्फिडेंस मोशन नाम की चीज़ को खत्म कर दिया जाएगा। चीन में जहां आजीवन काल के लिए राष्ट्रपति को चुना जाता है, उसी तरह भारत में पांच साल के लिए एक सरकार को चुना जाएगा।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर कोई सांसद या विधायक अयोग्य पाया जाता है या फिर उसकी मृत्यु हो जाती है तब उप-चुनाव किए जाएंगे या नहीं? नेताओं के अंदर मेढ़क की प्रवृत्ति होती है। जैसे- मेढ़क सिर्फ बारिश आने पर बाहर आता है, उसी प्रकार पांच साल के लिए यह नेता छिप जाएंगे। बार-बार चुनावों की बदौलत ही यह नेता लोग जनता के सम्पर्क में रहते हैं और अपने कर्तव्य का थोड़ा बहुत पालन करते हैं।
इतिहास इस बात का गवाह है कि 1952 से लेकर 1991 तक और 1996 से लेकर 2004 तक की लोकसभाएं भंग होती रही हैं। कुछ 38 दिन पहले या कुछ कुल 13 दिनों में। सिर्फ 1991-96 और 2004-19 के बीच की लोकसभा ही अपना कार्यकाल पूरा कर पाई हैं।
यह विषय सिर्फ एक पर्दा है, जो बहुत ही सफाई के साथ उन मुद्दों को ढक रहा है, जिसकी आज भारत में बहुत ज़रूरत है। जैसे- गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, किसानों की आत्महत्या, बलात्कार पर कानून और कृषि आदि क्षेत्र पर ध्यान देना चाहिए और कोई कठोर कदम उठाना चाहिए परंतु हमारे प्रधानमंत्री को इन सबसे ज़्यादा ज़रूरी एक राष्ट्र एक चुनाव का मुद्दा महत्वपूर्ण लग रहा है।