पीएचडी के काम पर अपने सुपरवाइज़र से हुई बातचीत पर सोचता हुआ, मैं जेएनयू के साबरमती ढाबे पर गर्म पकौड़े और चाय बनने का इंतज़ार कर रहा था। पीछे से आवाज़ आई “यू हैव लाइट, प्लीज़”। मैंने आवाज़ के तरफ देखे बिना ही, जेब से लाइटर निकाल कर बढ़ा दिया और सारा ध्यान तलते हुए गर्म पकौड़ों की तरफ केंद्रित करने की कोशिश करने लगा। “थैंक्यू” के साथ जो हाथ मेरी तरफ लाइटर वापस करने के लिए बढ़ा, उनमें चूड़ियां थी। मैं चौंका, पीछे मुड़ा, तो मेरे सामने जो शख्स खड़ी थी, उनसे मेरा परिचय मेरे अब तक के सामाजीकरण से ही था, मैं ट्रान्सजेंडर समुदाय के बारे में कुछ नहीं जानता था। वो लाइटर देकर चली गई और सामने खाली बेंच पर बैठ सिगरेट और चाय पीने लगी।
गर्म पकौड़े की पहली घानी निकल चुकी थी, मैं पकौड़े-चाय लेकर उस बेंच की तरफ बढ़ा। मैं यहां बैठ सकता हूं। उसने सहमति में अपना सर हिलाया। बातचीत की शुरूआत करते हुए मैंने पूछा “आप जेएनयू से रिसर्च कर रही हैं?” ना के इशारे से सर हिलाते हुए उसने कहा नहीं मैं एक स्कूल टिचर हूं, यहां किसी काम के सिलसिले में आना हुआ। अपनी झिझक तोड़ते हुए मैंने कहा “माफ करे, ये थोड़ा असहज होगा, मैं आपके या आपके पूरे समुदाय के बारे में उतना ही जानता हूं, जितना मुझे मेरे समाजीकरण में बताया गया है। आप मेरी मदद कर सकती हैं, मैं जानना-समझना चाहता हूं ट्रान्सजेंडर समुदाय के बारे में, कहां, क्यों, कैसे, किसलिए सारे सवाल।”
मेरी तरफ वो चौंकते हुए बोली, “उतना तो मुझे भी नहीं पता पर मैं अपने जीवन की दुविधाओं और परेशानियों के बारे में ज़रूर बता सकती हूं क्योंकि कमोबेश हम एक ही तरह की परेशानियों से जूझ रहे हैं। वो परेशानियां हैं, अपनी अस्मिता, अपनी पहचान, अपना अधिकार। पर इस वक्त नहीं, थोड़ी जल्दी में हूं, पर हम फिर मिलेंगे। अपना मोबाईल नं देकर और मेरा मोबाईल नं लेकर वह 615 नंबर बस पकड़कर ओझल हो गई, मेरे सामने कई सवालों को छोड़कर।”
हफ्ते भर बाद उसका फोन आया, इस शनिवार नंदनगर में एक बहुत बड़ी सभा है, ट्रान्सजेंडर समूह की, आप आना चाहोगे? मैंने सहमति दे दी, उसने पता मैसेज कर दिया। शनिवार को पते पर पहुंचकर फोन किया, उधर से आवाज़ आई “मुझे लगा तुम नहीं आओगे, मैं आ रही हूं रिसीव करने।” हम प्रोग्राम के जगह पहुंचे, काफी भीड़ थी हम सबसे पीछे बैठे ताकि बातचीत हो सके।
उसने कहा “समलैंगिक व ट्रान्सजेंडरों की ज़िंदगी में आर्थिक स्वतंत्रता और वर्गीय पृष्ठभूमि का सवाल महत्व रखता है। अभी तक हमारे वर्गीय और जातीय अस्मिता पर कोई बेहतर रिसर्च नहीं हुआ, जिसकी कमी हमलोग महसूस कर रहे हैं पर हर एक व्यक्ति की कहानी बहुत कुछ बयां करती है। मैं अपनी बताती हूं, तुम उसको मेरी नहीं सौ-हज़ार की कहानी समझ सकते हो। मेरी और सौ-हज़ार की कहानियों में विविधता हो सकती है पर अस्मिता, उत्पीड़न और विलगाव एक ही तरह का है।”
कैसा रहा बचपन?
बचपन से अब तक के जीवन में कुछ याद करने लायक तो नहीं है, क्योंकि मेरी कोई भावना नहीं रही, जिसको याद करके खुश हो जाऊं। लड़कियों वाले खेल अधिक पसंद थे, बचपन में कोई मना नहीं करता था, इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। केजी से आठवी तक मेरी पढ़ाई लड़कों के स्कूल में हुई, संकोची थी पर पढ़ने में अच्छी थी। स्कूल में लड़के लड़कियों पर बातें करते, मैं विरोध करती तो सबों का टारगेट हो जाती। जिसने मुझे अलगाव के तरफ ढकेल दिया।
घर में लोगों को कब बताया?
पिताजी से डर अधिक लगता था, माँ को बताया तो उन्होंने कहा “बड़े हो जाओगे तो उम्र के साथ सब ठीक हो जाएगा।” मैं छोटी बहन के कपड़े, गहने, फैशन की चीज़ें पसंद करती थी, खरीदा भी करती पर बहन को दे देती। मुझे एहसास हो गया था कि अगर मैंने सच बोला, तो जीना मुश्किल हो जाएगा।
दोस्तों और घर में सबों से कटकर अलगाव के कारण बोर्ड में अच्छे नम्बर नहीं आ सके। अपनी समस्या को लेकर एक डाक्टर से मिला जिसने मुझे मनोचिकित्सक के पास भेज दिया। उन्होंने दो साल तक मेरी काउन्सलिंग की पर कोई फायदा अगर मुझे मिला तो यह कि बारहवी में अच्छे नंबर आ गए।
नामी कॉलेज में नाम लिखाया और मर्द बनने के फैंटेसी में जीने लगा, सफल आदमी बनने के लिए मैंने अपनी इच्छाओं का दमन करना शुरू किया। स्थिति धीरे-धीरे जटिल होने लगी। आत्महत्या के बारे में सोचने लगा। फिर कहीं पर काउन्सलिंग क्लब के बारे में पढ़ा, जिसके बारे में जानकर ये संतोष हुआ मेरे जैसे और भी हैं, मैं अजूबा नहीं हूं। फिर हिम्मत जुटाकर उनसे संपर्क करने की कोशिश की। नाम बदलकर उनको लेटर लिखा। पत्र का जवाब आया और मैं काउन्सलिंग क्लब से जुड़ गया।
पिछली मुलाकात में तुमने कहा था, स्कूल में पढ़ा रही हो, कैसा अनुभव है?
मैंने एम.ए तक की पढ़ाई की है, स्कूल में पढ़ाने की नौकरी मिल गई तो पढ़ा रही हूं। अभिभावक शिक्षक मीटिग में जिसमें प्रार्चाय भी होते हैं एक मामला आया एक लड़के का। उसके पिता ने कहा ये साड़ी पहनता है, नेल पॉलिश लगाता है। शिक्षकों ने सुझाव दिया, उसका हॉरमोन-थेरेपी दिलवाए, तो उन्होंने कहा थेरेपी से कुछ नहीं होगा, इसको जमकर कुटीए, सब ठीक हो जाएगा।
मुझे लगा कुछ करना चाहिए, मैंने प्रार्चाय के सहयोग से संवेदनशील लोगों की टीम बनाई और जेंडर, यौनिकता, यौनिक शिक्षा विषयों पर बात शुरू की। थोड़े समय बाद पता चला, स्कूल के कई कक्षाओं में इस परेशानी से बच्चे अकेल लड़ रहे हैं।
हमने इन छात्रों पर ध्यान देना शुरू किया और नए सफर की शुरूआत हुई। हमने उनकी भाषा पकड़ी, उसके उनके उत्पीड़न पर रोक लगाई, उनका ड्राप आउट रेट कम हो इसकी कोशिशे कर रहे है। ज़रूरी बात यह है कि अब हर कोई हर किसी से बात कर रहा है। इस सफर को मैं डिग्री कॉलेज तक लेकर गई, कई संवेदनशील लोगों को जोड़ा। वहां भी अच्छे परिणाम मिल रहे हैं।
क्या कभी शादी या परिवार का ख्याल आया ज़हन में?
(कुछ सोचते हुए) मां और बहन ने शादी का दबाव नहीं डाला कभी। पुरुषों और पुरुष दोस्तों का कहना था, शादी कर लो चाहे तो लड़के के साथ ही रहो नहीं तो हिजड़ा बन जाओगे। अभी तक नहीं की है ना किसी के साथ रह रही हूं, अभी तक तो कुछ नहीं हुआ है, कल किसी ने नहीं देखा।
ट्रांसजेंडर समुदाय को मुख्यधारा में कैसे लाया जा सकता है?
बाहर के देशों में इसको लेकर बड़े बदलाव हो रहे हैं भारत अभी तक मिथकों में खोया हुआ है अर्धनारीश्वर, अर्जुन का चरित्र और पता नहीं क्या क्या। औपनिवेशिक काल में हम समावेशी स्थिति में थे, आज जिस दौर में जी रहे है, हमको अपनी भारतीयता पाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। देर-सबेर ये होगा, उम्मीद है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जिस दिन “सेक्शन 377 को मान्यता दी उस दिन उनका फोन आया “साथी, हमारे लिए नए सुबह की शुरुआत हो चुकी है। अभी और कई चीजों के लिए संघर्ष करना है, हम भी बतौर नागरिक देश के विकास में अपना योगदान दे सकेंगे, इसकी खुशी है, आप जैसे साथियों ने हमारी समानता और स्वतंत्रता में अपना भरोसा जताया, उसका तहे दिल से शुक्रिया।”