संसद सत्र की शुरुआत के पहले सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक राष्ट्र एक चुनाव के मुद्दे पर चर्चा की। चुनाव में उन पर जुमलेबाज़ का टैग चिपका दिया गया था, जिसके ज़िम्मेदार वह खुद थे। पहल के नाम पर नया नारा उछालने के बाद उसके मुताबिक आगे बढ़ने की निरंतरता के अभाव में उन्हें इस तरह की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा लेकिन दूसरी पारी में प्रधानमंत्री का अंदाज़ बदला-बदला सा है।
एक राष्ट्र एक चुनाव के लिए गंभीर कोशिश
एक राष्ट्र एक चुनाव के मुद्दे पर आम सहमति बनाने के लिए उन्होंने जो कोशिश शुरू की है उसमें गंभीरता झलकती है। हालांकि यह जटिल मुद्दा है, जिस पर तमाम आपत्तियां भी सामने आएंगी। फिर भी राजनीतिक सुधारों के दृष्टिकोण से यह महत्वपूर्ण विचार है, जिससे जनमानस में रचनात्मक उद्वेलन उत्पन्न होेगा। देश को इसकी बहुत ज़रूरत है, खासतौर पर युवाओं को जिन्होंने भाजपा को प्रचंड बहुमत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
रचनात्मक मुद्दों को परे रखकर चुनाव में चलाए गए कटुतापूर्ण अभियान के कारण युवाओं में जातिगत और राजनीतिक उन्माद चरम पर है। चुनाव में वोट के धरातल पर भले ही देश एक हुआ हो लेकिन व्यवहार के स्तर पर समाज बंट चुका है। सरकार समाज की प्रेरक शक्ति के रूप में असरदार भूमिका निभाती है, इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दूसरी पारी की शुरूआत जिस तरह से की है उससे काफी उम्मीदें बंधी है। उम्मीद है कि फेसबुक और वॉट्सएप को काल्पनिक क्रांति की रणभूमि बनाने वाले ये युवा संकीर्ण भावनाओं के प्रदर्शन में ऊर्जा खपाने की बजाए व्यापक मुद्दों को तार्किक परिणति पर ले जाने के लिए प्रेरित होंगे।
सरकार में होती है प्रेरक शक्ति
राजनीतिक सुधारों के लिए बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है। एक राष्ट्र एक चुनाव के मुद्दे पर चर्चा इसका प्रस्थान बिंदु हो सकता है। साफ सुथरे चुनाव के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजकीय फंड बनाकर उम्मीदवारों को प्रचार के खर्चे की व्यवस्था करने का सुझाव दिया था, जिसे बुद्धजीवियों का व्यापक समर्थन मिला था।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति में भी मतदाताओं को जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार देने जैसी कल्पना निहित की गई थी। बाद में उनकी मानस संतान के रूप में सत्ता में आई जनता पार्टी सरकार ने संपूर्ण क्रांति के दस्तावेज़ को एक किनारे कर दिया।
हाल में राजनीतिक सुधारों के जो भी काम हुए हैं वे न्यायपालिका द्वारा किए गए हैं, जैसे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे मुकदमों में शीघ्र फैसले के लिए विशेष अदालतों की स्थापना और पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता।
सुधारों के साथ आशंकाएं भी जुड़ी
इस बीच सांसदों और विधायकों की क्षेत्र विकास निधि के औचित्य का नया मुद्दा जुड़ गया है। नीतीश कुमार ने बिहार में विधायक निधि समाप्त करने की पहल की थी। हालांकि वह इसमें कामयाब नहीं हो पाए। भाजपा ने शुरू में संसदीय प्रणाली की शासन व्यवस्था को बदल कर राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने के लिए संविधान समीक्षा आयोग गठित किया था लेकिन वह अपने उद्देश्य में भारी विरोध के कारण सफल नहीं हो सकी।
अभी भी एक वर्ग को आशंका है कि छोटे मोटे चुनाव सुधारों की पूंछ पकड़ कर भाजपा संविधान बदलने जैसे निर्णायक कदम की ओर बढ़ने की कोशिश करेेगी। नौकरशाही में सुधार के नाम पर विशेषज्ञों की सीधी भर्ती की खिड़की खोल कर आरक्षण व्यवस्था को अप्रासंगिक करने की जो कोशिश सरकार ने की है, उससे इस तरह की आशंकाओं को बल मिल रहा है।
युवाओं की सोच को पटरी पर लाने की ज़रूरत
पहले युवाओं के प्रदर्शन भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं के खिलाफ होते थे लेकिन आज उनकी दिशा बदल गई है। जातिगत अस्मिता के नाम पर फिल्मों के प्रदर्शन रोकने जैसे मुद्दों पर उनकी सक्रियता सामने आ रही है। जातिगत संगठनों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है।
युवा अगर कोई क्रांति लाना चाहते हैं तो उन्हें जातिगत मंच इसके लिए सबसे उपयुक्त प्लेटफॉर्म लगते हैं। देश इस तरह से आगे नहीं बढ़ सकता, इसलिए युवा व्यापक मुद्दों पर अपनी अभिव्यक्ति व हस्तक्षेप के लिए जुटना सीखें। यह अत्यंत अनिवार्य हो गया है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ जिहादी मुहिम की ज़रूरत
भ्रष्टाचार आज भी बेहद गंभीर समस्या है जिसका कोई निदान नहीं किया जा रहा है। दरअसल सरकार उन वर्ग सत्ताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करना चाहती है जो वैध सत्ता को पंगु बना रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ भी प्रहार नहीं हो पाने के पीछे यही बड़ा कारण है। सिर्फ लालू यादव या रॉबर्ट वाड्रा को जेल भेज कर भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई संदेश नहीं दिया जा सकता जब तक कि इसे लेकर कोई व्यापक अभियान ना छेड़ा जाए।
नोटबंदी के समय यह काम करने का अवसर था। जिस तरह से इंदिरा गांधी के समय महंगाई रोकने के लिए जमाखोरों पर छापे का अभियान चलता था वैसे ही इस दौरान अफसरों, उद्योगपतियों और नेताओं के यहां छापेमारी होती तो भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति रखने वाले लोगों में दहशत पैदा हो सकती थी। पनामा पेपर्स लीक में शामिल लोगों के खिलाफ पाकिस्तान सहित कई देशों ने काम किया लेकिन भारत में अमिताभ बच्चन जैसे लोगों पर सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की।
मनी लॉन्ड्रिंग के विशेषज्ञ माने जाने वाले ठाकुर अमर सिंह पर जब सरकार मेहरबान हो गई तो विदेशों में जमा काले धन की वापसी का वादा कैसे पूरा हो सकता था? सीबीआई डायरेक्टर को आधी रात को हटा दिया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी असंवैधानिक माना। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई कैसे होगी?
स्वच्छ प्रशासन के लिए कैसे हो प्रभावी शुरुआत
हो सकता है पहली पारी में मोदी सरकार के सामने कई राजनीतिक मजबूरियां रही हों जिससे इन मोर्चों पर वह काम नहीं कर पाई हो लेकिन अब देश में भाजपा का लगभग चक्रवर्ती शासन स्थापित हो चुका है। इसलिए अब स्वच्छ प्रशासन की कल्पना को साकार करने की कोशिश होनी चाहिए क्योंकि यह एक बड़ा मुद्दा है।
स्वशासन की प्रक्रिया का देश में काफी विस्तार हो चुका है लेकिन ज़मीनी निकाय भ्रष्टाचार की समस्या से ग्रसित है और उनमें नवाचार की घोर कमी है। वित्तीय जवाबदेही के मामले में इन्हें कैसे बांधा जाए इस ओर सोचना होगा। पंचायतों और नगर निकायों को इतना धन आवंटित होता है कि अगर ये संस्थाएं ठीक ढंग से काम करने लगे तो व्यवस्थाओं को आराम से सुधारा जा सकता है।
पिछली बार प्रधानमंत्री ने स्मार्ट सिटी का लोक लुभावन नारा दिया था जो नगरीय संस्थाओं में स्वस्थ्य कार्य संस्कृति के अभाव के चलते पूरा नहीं हो पाया और जुमला साबित होकर रह गया। सिर्फ भावना और संकल्प से कुछ नहीं होता जब तक कि उन्हें ज़मीन पर उतारने में काम आने वाले औज़ार भी दुरुस्त ना हो। अभी तक सत्ता पक्ष ने इस पर ध्यान नहीं दिया था। इस बार लगता है कि बदलाव होगा।
आचार संहिता का बंधन
पहले राजनीतिक दल अपने जनप्रतिनिधियों को आचार संहिता में बांधने का काम करते थे। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब इंदिरा गांधी के खास माने जाने वाले तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह लखनऊ आए जहां शराब उद्योगपति मोहन मीकिन्स ने उनके सम्मान में भव्य दावत आयोजित की। आचार संहिता यह थी कि मुख्यमंत्री, मंत्री किसी उद्योगपति के यहां दावत खाने नहीं जाएंगे। इसे ध्यान में रखते हुए उस समय का उत्तर प्रदेश का पूरा मंत्रिमंडल तो ज्ञानी जैल सिंह की दावत में शरीक हुआ लेकिन मुख्यमंत्री नहीं गए।
भारतीय जनता पार्टी शुचिता की राजनीति में सबसे आगे होने का दावा करती है, इसलिए उसे आचार संहिता को प्रभावी ढंग से लागू करने का प्रयास करना चाहिए। नोटबंदी के दौरान एक केन्द्रीय मंत्री ने अपने यहां विवाह समारोह में कई सौ करोड़ रुपए फूंक डाले। यह नहीं होना चाहिए था।
प्रधानमंत्री ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में अपने परिवार के लोगों को आमंत्रित नहीं किया लेकिन उन्हें अपने मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को इसका अनुकरण करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। भाजपा ने सत्ता में आने के बाद वीआईपी संस्कृति बदलने का दावा तो किया है लेकिन आचार संहिता के अभाव में इसकी धज्जियां उड़ती साफ देखी जा सकती है।
खुशहाली सूचकांक में बढ़त के लिए बने वैचारिक माहौल
प्रधानमंत्री ने एनडीए के संसदीय दल के नेता के रूप में दोबारा चुने जाने के अवसर पर एक नया नारा दिया, “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास।” यह उनकी भावना को दर्शाता है। यह भावना अगर उनकी पार्टी के सांसद भी आत्मसात कर सकें तो राजनीति का चरित्र ही बदल जाएगा। उन्होंने लोकसभा में आए नए चेहरों को लेकर कहा कि उनके साथ नए विचार भी आने चाहिए लेकिन नए विचार कब आएंगे।
सांसदों के दिनचर्या में दलालों और माफियाओं से मिलने की बजाए आम जनता से संवाद करना शामिल होना चाहिए। आर्थिक विकास सूचकांक से ज़्यादा महत्वपूर्ण आज खुशहाली सूचकांक माना जा रहा है, जिसमें भारत काफी पीछे है। वैचारिक रूप से सक्रिय समाज में वास्तविक खुशहाली का रोपण होता है। प्रधानमंत्री अगर इसे फलीभूत कर सके तो खुशहाल भारत की सुंदर तस्वीर दुनिया के सामने उभर सकेगी।