डॉक्टर और मरीज़ के बीच में सबसे ज़्यादा खराब हालत उन परिजनों की होती है, जो दो तीन चिंताओं से ग्रस्त होते हैं।
- पहली चिंता अपने मरीज़ को बेहतरीन जगह ले जाकर इलाज कराने की, जिससे उसे बचाया जा सके।
- दूसरी कि उस इलाज में होने वाले खर्च का इंतज़ाम कहां से होगा?
- तीसरा अगर उसने इलाज के लिए कर्ज़ लिए हैं, तो वह पैसे कैसे वापस किए जाएं?
मतलब अंततः वह भी मरीज़ बन चुका होता है, अपने मरीज़ के साथ-साथ। इन सभी चिंताओं के बाद भी अगर मरीज़ बच नहीं पाता है, तो वह अपना आपा खोने लगता है। अब उसे भगवान रूपी चिकित्सक में दानव दिखाई देने लगता है। उसे यह लगता है कि चिकित्सक ने अपना 100% नहीं लगाया, लापरवाही बरती, हालांकि अधिकांश डॉक्टर ऐसा नहीं करते हैं पर कुछ डॉक्टर चंद पैसों के लिए किसी की ज़िन्दगी दांव पर लगा देते हैं।
अब बात आई कि सरकार क्या करती है?
सरकार पहले की हो या अभी कि वह नींद में रहती है। उसे लगता है कि संसद में बैठकर कानून बना देने से और आयुष्मान योजना का ऐलान कर देने मात्र से लोगों की मुश्किलें हल हो जाती हैं पर ऐसा नहीं है। जिस आयुष्मान योजना का रात दिन प्रचार किया जाता है, वह ज़मीनी स्तर पर दम तोड़ देती है। इस योजना में भी कई तरह की धांधलियां देखने को मिलती हैं।
मान लीजिए आप किसी पेशेंट को अस्पताल में ले जाते हैं तो आपको उसी वक्त बताना होगा कि आप आयुष्मान वाले हैं, बाद में बताएंगे तो यह योजना मान्य नहीं होगी और अगर आपने आयुष्मान का नाम लिया तो अस्पताल फिर कोई बहाना बताकर इलाज से कई बार इंकार भी कर देता है।
कैसे हो स्थिति में सुधार?
ज़रूरी है कि सरकार मुज़फ्फरपुर और गोरखपुर का इंतज़ार ना करके अपनी योजनाओं को ज़मीनी स्तर पर सही ढंग से लागू करे, ताकि जिनके लिए योजना निकाली गई है, उनको इसका लाभ मिल सके। यह नहीं कि सैकड़ों बच्चे चमकी, डायरिया और अन्य तरह की बीमारियों से ग्रस्त होकर इलाज के लिए दर-दर की ठोकरें खाएं।
दूसरा सबसे अहम मुद्दा है अस्पतालों में जनसंख्या के अनुसार डॉक्टर्स, नर्स और बेड की कमी का होना और बजट में स्वास्थ्य के लिए सबसे कम पैसा। ज़रूरी है कि इन कमियों को दूर किया जाए ताकि किसी के घर का चिराग इलाज की कमी की वजह से ना बुझे।
बिहार के मुज़फ्फरपुर सहित अन्य ज़िले समस्तीपुर, आरा, मोतीहारी में जिन बच्चों की मौत हुई है, उनमें 75-80 प्रतिशत बच्चियां हैं, जो कुपोषित हैं, तो सरकार को इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि आज आज़ादी के इतने सालों बाद भी हालात में कोई बड़ा सुधार क्यों नहीं हुआ है। सरकार को सबसे ज़्यादा कुपोषण को ध्यान में रखकर एक बड़ी लड़ाई लड़नी होगी, ठीक पोलियो की तरह। सरकार की योजनाओं में कोई कमी नहीं है पर उसके ज़मीनी स्तर पर क्रियान्वयन में कमी है।