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“अकबर और महाराणा प्रताप की वीरता की तुलना करना राजनीति होगी”

अकबर

अकबर

मनुष्य अपने सामने एक ऊंचा आदर्श रखकर ही आगे बढ़ता है, उस आदर्श की महानता इतनी होती है कि लोग उसके लिए एक शब्द तक गलत सुनना पसंद नहीं करते हैं। मध्यकालीन भारत के मशहूर पुरोधाओं में से एक नाम महाराणा प्रताप का भी आता है। एक और व्यक्ति जिसकी मध्यकालीन इतिहास में तूती बोलती थी, उसकी भी महानता का परिचय करवाना आवश्यक हो जाता है।

वह नाम है अकबर का, अकबर को बहुत लोगों ने पढ़ा होगा लेकिन महाराणा प्रताप महान थे या नहीं, यह दिखाने के लिए अकबर के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। मध्यकालीन भारत में दो समकालीन योद्धाओं के बारे में जानना और तुलनात्मक रूप से विश्लेषण करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में इन दोनों का नाम आज तक उछाला जाता रहा है।

कुछ लोग अकबर को महान बताते हैं तो कुछ महाराणा प्रताप को, यह उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं भी हो सकती हैं लेकिन मेरा मकसद एक स्वतंत्र लेखक की भांति तार्किक रूप से दोनों योद्धाओं के युद्ध कौशल और यौद्धिक विभीषिकाओं का सच सबके सामने प्रस्तुत कर योद्धाओं को आदर्श मानने वालों को सच बताना और राजनीतिक महात्वाकांक्षा रखने वाले लोगों की आंख खोलना है।

अकबर का जन्म अमरकोट के राणा वीरसाल के हिंदू महल में 15 अक्टूबर 1542 ई. को हुआ था, मूल नाम जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर था और इनकी माता का नाम हमीदाबानो बेगम और पिता का नाम नसीरूद्दीन हुमायूं था। एल्फिंस्टन ने अकबर को मध्यकालीन भारत का प्रथम राष्ट्रीय शासक कहा है तो वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग निरंकुश शासक भी मानते हैं। गुरूदासपुर के कालानूर में 14 फरवरी 1556 को अकबर का राज्याभिषेक महज़ 13 साल 4 माह की अवस्था में बैरम खां की देखरेख में अब्दुल कासिम ने किया।

अकबर और उसकी नीतियां

अकबर की सुलह की नीति, दीन-ए-इलाही धर्म और मज़हर की घोषणा आदि सब धार्मिक सहिष्णुता की तरफ इंगित करती है। हां, अकबर शुरुआती जीवन में क्रूर था लेकिन धीरे-धीरे सुधारवादी होता गया और अकबर ने उत्तर भारत के करीब 20 राज्यों और दक्षिण भारत के करीब चार राज्यों को मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

इसके शासनकाल में पूरे भारत में उत्तर से दक्षिण तक मुगल साम्राज्य का परचम बुलंद था। अकबर ने राजपूत नीति में छूट दी थी कि वे मुगल साम्राज्य के अधीन स्वतंत्र तरीके से रह सकते हैं लेकिन छोटे-मोटे मुगल और उलेमा राज्यों को परेशानी में डालने की भरपूर कोशिश करते रहते थे।

अकबर उलेमाओं से परेशान रहता था इसीलिए उसने दीन-ए-इलाही धर्म चलाया। अकबर के काल में हिंदू राजाओं की स्थिति काफी हद तक दयनीय थी। हिंदू राजपूत राजाओं में आमेर के कछवहा वंश के शासक भारमल ने अपनी पुत्री हरखाबाई (जोधाबाई) का विवाह अकबर से किया और तमाम राजपूतों ने अकबर की सेना की अगुवाई भी की।

अकबर की विजय सामूहिक विजय थी। अकबर जहां बहुत से राजाओं को हराकर अपने अधीन कर रहा था, वहीं राजपूतों में रानी दुर्गावती, राणा उदय सिंह और महाराणा प्रताप ने अकबर का सामना बलपूर्वक किया और मरते दम तक घुटने नहीं टेके।

महाराणा प्रताप और अकबर में युद्ध

महाराणा प्रताप और अकबर दोनों के बारे में समान रूप से समर्थ होने की बातें की जाती हैं लेकिन बताना चाहता हूं कि जहां एक शासक पूरे भारत पर अधिकार किए बैठा हो, वहां एक छोटी रियासत ने अकबर की नाक में दम कर दिया। जून 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया लेकिन इस युद्ध में मेवाड़ पर मुगल सैनिक विजय हासिल नहीं कर सके और तमाम इतिहासकारों नें इसमें राणा की हार बताई है और कुछ ने जीत। वास्तव में राणा प्रताप ने कभी हार नहीं मानी और मेवाड़ को कभी अकबर पूर्ण रूप से अपने अधीन नहीं कर सका।

18 जून 1576 को भीषण गर्मी में अकबर की तरफ से मानसिंह और महाराणा की सेना में भीषण युद्ध हुआ। दोनों पक्षों ने असीम शौर्य का प्रदर्शन किया और शुरुआत में राजपूतों नें विजय प्राप्त कर ली परंतु इस अफवाह के कारण कि अकबर स्वंय आ रहा है, पराजित मुगलों ने भयंकर युद्ध को अंजाम देते हुए गोगुंडा पर अधिकार कर लिया था।

फोटो साभार: Twitter

अकबर इस बात से नाराज़ था कि राणा सुरक्षित बचकर कैसे निकल गया। वह स्वयं गोगुंडा आया और राणा के विरूद्ध सेनाएं भेजीं लेकिन सफलता नहीं मिली। अकबर ने मानसिंह को हटाकर शहबाज़ खां को युद्ध का दायित्व सौंपा। शहबाज़ खां को दो वर्ष में सीमित सफलता ही मिल सकी। 1579-85 तक अकबर पश्चिमोत्तर राज्यों के संकट टालनें में फंसा रहा और इधर मेवाड़ को राणा ने पुनः लगभग प्राप्त कर लिया था।

राणा प्रताप की वीरता, दृढ़ता, स्वतंत्रता, राष्ट्रभक्ति, त्याग और दृढ़ संकल्प की वजह से उन्होंने अप्रतिम वीरों में अपना स्थान प्राप्त कर लिया और अमर हो गए। यह कोई धर्म युद्ध नहीं था क्योंकि राणा की तरफ से हकीम खां सूर और अकबर की तरफ से मानसिंह ने सेना का नेतृत्व किया था। यह युद्ध मुगल साम्राज्यवाद के विरूद्ध एक स्वतंत्रता संग्राम था जिसमें मेवाड़ के देशभक्तों ने सर्वस्व न्यौछावर करके शक्ति के विरूद्ध अदम्य साहस का परिचय दिया।

राणा को अन्य राजपूत राजाओं की सहायता नहीं मिली थी लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि वह कायर थे, बल्कि वह अकबर की नीतियों से संतुष्ट थे। इस युद्ध में राणा प्रताप का संघर्ष देशभक्तों को सदैव प्रेरणा देती रहेगी।

वह एक ऐसी वीरगाथा का निर्माण कर गए जो अपने गौरव से सभी देशकाल के स्वातन्त्र्यप्रिय भक्तों को प्रेरणा देती रहेगी। वास्तव में एक छोटी सी रियासत ने अकबर को इस तरह से हरा दिया जैसे एक सर्वशक्तिशाली अमेरिका ने वियतनाम के विरूद्ध हार मान ली। अकबर अपनी नीतियों के कारण महान इसलिए था क्योंकि उसने सभी धर्मों को एक साथ लेकर चलने की कोशिश की मगर वह सफल नहीं हो सका।

वहीं, राणा प्रताप अपने शौर्य के कारण महान था, उसने शुरू से अंत तक अपनी नीतियों में कभी बदलाव नहीं किया। दोनों में महानता का निर्धारण करना एक राजनीतिक महात्वाकांक्षा होगी लेकिन विवश होकर यह कहना चाहूंगा कि एक सर्वशक्तिशाली साम्राज्य के आगे एक अकेला मेवाड़, राणा के नेतृत्व में कभी डिगा नहीं।

संदर्भ- मध्यकालीन भारत (सौरभ चौबे), मध्यकालीन भारत (सतीश चंद्र), मध्यकालीन भारत (डॉ. एस.के. पांडेय) और मध्यकालीन भारत (वी.डी महाजन)

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