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बच्चों को लेकर सरकारें ही नहीं देश और समाज भी गैरज़िम्मेदार है

हमारा देश, हमारी सरकार और हमारा समाज, बच्चों के मामलों में कितना असंवेदनशील है इसका पता बच्चों के साथ हर रोज़ हो रही अमानवीय शारीरिक शोषण की घटनाओं से चलता है। शाम को टीवी चैनलों पर बच्चों के नाचने-गाने की कला पर मध्यवर्गीय जनता ताली पीटकर खुश हो जाती है, वह भूल जाती है कि बाज़ार ने उनको इतना असंवेदनशील बना दिया कि बच्चों को सपनों का लॉलीपाप थमाकर उनके ही बच्चों को अच्छे कपड़ों में सजा-धजा श्रमिक बना दिया गया जिसपर उनके पूरे शो का मुनाफा टिका हुआ है।

जिस तरह पहले अखबारों में महिलाओं या युवतियों के साथ हुई शर्मनाक घटनाओं की सौ-दौ-सौ शब्दों की खबर किसी ना किसी कोने में दिख जाती थी, उसी तरह आज बच्चे-बच्चियों के साथ हुई अमानवीय घटनाओं की कोई ना कोई खबर दिखने लगी है। एक तय पैर्टन की तरह, बतौर पाठक हमारी संवेदनाओं के साथ एक मनोवैज्ञानिक खेल जारी है। सरकारें अपनी लापरवाही का मर्सिया मीडिया के सामने सीना ठोककर पढ़ रही हैं और मीडिया सवाल पूछने के बजाए सरकार कि लापरवाही का ठीकरा फोड़ने के लिए लोग तलाश रहा है।

बीते साल गोरखपुर में बच्चों के मृत्यु के पीछे एक मुस्लिम डाक्टर (कफील खान) को विलेन साबित करने की कोशिश हुई। इस साल मुज़फ्फरपुर में अब तक दिमागी बुखार में 50 से ज़्यादा बच्चों की मृत्यु हो चुकी है। अभी गैर-ज़िम्मेदार प्रशासन के बदले एक व्यक्ति की तलाश जारी है, जिसपर सारा ठीकरा फोड़ा जा सके।

समस्या बस यह हो गई कि सरकार, दिमागी बुखार से बचाने के लिए की जाने वाली प्राथमिकताओं के बारे में लोगों को बताने में असक्षम रही है। यह बात सरकार खुद भी स्वीकार कर चुकी है। मीडिया को अपना खबरों का माल बेचने के लिए प्रशासन की गलती के लिए ज़िम्मेदार कोई इंसान मिल नहीं पा रहा है।

बिहार में बच्चों के साथ हुई हाल कि घटना शेल्टर होम्स और दिमागी बुखार से बच्चों की मौत दोनों ही मामलों में सरकार बुरी तरह से नाकाम हुई है। मीडिया सरकार के बारे में अधिक आलोचना करे इससे पहले सुशासन बाबू खुद ही नतमस्तक हो जाते हैं। शेल्टर होम कांड के बाद भी मुख्यमंत्री मीडिया के सामने इसी तरह नतमस्तक थे कि अगर सरकारी ढांचे में ही लूपहोल्स हो जाएं, तो बताइये इससे कैसे निपटा जाएगा? इस बार भी मुख्यमंत्री कमोबेश वैसा ही बयान दे रहे हैं कि उनकी सरकारी मशीनरी चुनाव जीतने में इतना व्यस्त थी कि इसपर सही तरीके से काम नहीं किया जा सका।

बाज़ार ने कमोबेश अपने हर उत्पाद को बेचने के लिए बच्चों की मांग पर भावुकता का रंग बिखेर रखा है। अभिभावक बच्चों के चेहरे पर खुशी बनाए रखने के लिए दो मिनट में मैगी से लेकर गर्मी में डिहाईड्रेशन से बचने के लिए पानी में टैंग घोलकर पिलाने के लिए अभिशप्त है। परंतु, सरकारों के लिए बच्चे अभी भी वोट बैंक का वो निवेश नहीं है जिससे मां-बाप को अपनी तरफ रिझाया जाए। इसलिए या तो बच्चे किसी बीमारी से अस्पतालों में मर रहे हैं, किसी शेल्टर होम में शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हैं या किसी डांस या म्यूज़िक शो में भविष्य का शानदार भांड बनने के लिए अपना मानसिक शोषण करवा रहे हैं।

बच्चों के साथ हो रहे अपराध और सरकारी निष्क्रियता पर रस्मी भावुकता से बाहर आकर कौन सी बड़ी पहलकदमी की जाए। विकास को लेकर बड़े-बड़े वायदे करने वाली पार्टियां राज्य चुनावों में बच्चों के बेहतर भविष्य या स्वास्थ्य-शिक्षा के लिए कोई बात क्यों नहीं करती है? क्यों किसी भी राज्य के बच्चों का मुद्दा राजनीतिक मुद्दा नहीं हैं? उसपर कोई आरोप-प्रत्यारोप, पक्ष-विपक्ष के बीच नहीं है? क्या बच्चों के विकास के सारे सपने दागदार रह जाने के लिए अभिशप्त हैं क्योंकि कोई चाचा नेहरू या अब्दुल कलाम बच्चों के सपनों के बारे में बात नहीं कर रहा है या उनके सवालों को राजनीतिक सवाल नहीं बना रहा है? सच तो यही है कि बच्चों को लेकर देश-सरकार और समाज कोई भी संवेदनशील नहीं है। अभिभावकों के लिए ज़रूर वह उनके भविष्य का निवेश है पर सरकार और देश के पास बच्चों को देने के लिए झुनझुना भी नहीं है जिसको समय-समय पर बजाया जा सके।

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