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“क्यों ज़रूरी है बॉलीवुड से राजनीति में आए एक्टर्स का फिल्मों से तौबा करना”

नुसरत जहां और सनी दओल

नुसरत जहां और सनी दओल

बीते कुछ महीनों से देश में चुनावी रंग बिखरे हुए थे। तमाम राजनेताओं और दलों द्वारा अलग-अलग तरीकों से जनता को लुभाने की कोशिश की जा रही थी और इन सबके बीच 23 को चुनाव परिणाम घोषित होते ही तमाम तरह के कयास फैसलों में तब्दील हो गए।

इस बार लोकसभा चुनावों में फिल्मी कलाकारों का बोलबाला रहा। चाहे वह क्षेत्रीय भाषाओं के फिल्मी कलाकार हों या राष्ट्रीय भाषाओं के, अत्यधिक संख्या में उन्होंने चुनाव लड़ा। कुछ राजनीति की इस कड़ी परीक्षा में जीत गए लेकिन कुछ का साथ किस्मत ने नहीं दिया और वे संसद नहीं पहुंच पाएं।

दशकों पहले से ही फिल्मी सितारों का चुनावों में किस्मत आजमाना आम बात रही है, चाहे वह सुपरस्टार राजेश खन्ना हो, एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन हो या फिर शत्रुघ्न सिन्हा और गोविंदा जैसे मशहूर फिल्मी कलाकार ही क्यों ना हो, सभी राजनीति में आए। इनमें से कुछ को यह बिरादरी रास आई जो आज भी इसमें नाबाद खेल रहे हैं और कुछ इस खेल से आउट हो गए।

राजनीति में स्टार कलाकारों की हुई बरसात

स्टार कलाकारों का राजनीति में आना ना सिर्फ बॉलीवुड से है, बल्कि तेलुगू, तमिल, मराठी, बांग्ला और भोजपुरी जैसी क्षेत्रीय भाषा के कलाकारों ने भी राजनीति में अपना लोहा मनवाया है। दक्षिण भारत की मशहूर अभिनेत्री जयललिता और जानेमाने अभिनेता एन.टी.रमाराव इसके उदारण हैं, जो एक बार राजनीति में आए फिर मरते दम तक जनता के होकर रह गए।

अमिताभ बच्चन, गोविंदा और ही मैन कहे जाने वाले धर्मेंद्र जैसे कलाकार भी राजनीति में आए जिन्हें यह राजनीति रास ना आई और पुनः इन्होंने रुपहले पर्दे का रुख कर लिया।

2019 में बीजेपी ने अत्यधिक मात्रा में कलाकारों और खिलाड़ियों को चुनाव लड़वाने का काम किया, जिसमें से अधिकतर जीत कर आए। अब ज़्यादातर की जीत को उनके फेम का असर ना कहकर देश में चल रही तथाकथित मोदी सुनामी कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

इस बार टीएमसी की तर्ज़ पर बीजेपी ने भी क्षेत्रीय कलाकारों पर भारी मात्रा में दाव चला जिसमें वह एक हद तक सफल भी हुई। यहां तक कि पूरी भोजपुरी इंडस्ट्री ही मानो मोदी जी की भक्त हो गई हो। मनोज तिवारी गत वर्षों से लगातार दिल्ली की राजनीति में बने हुए हैं जो इस बार भी जीत गए।

वहीं, गोरखपुर से रवि किशन तो जीते मगर आज़मगढ़ से दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ का स्टार पावर अखिलेश यादव जैसे नेता के आगे ध्वस्त हो गया और वह हार गए। भोजपुरी स्टार पवन सिंह से लेकर खेसारी लाल तक बीजेपी के प्रचार में जुटे रहे।

लगता है ममता बनर्जी से प्रेरित होकर बीजेपी ने यह चाल चली। ममता दीदी ने जिस तरह कई बंगाली कलाकारों को लड़ाया जिनमें नुसरत जहान, देव अधिकारी और मिमी चक्रवर्ती जैसे लोग जीत कर आए लेकिन मुनमुन सेन को भाजपा के बाबुल सुप्रियो से हार का सामना करना पड़ा।

फोटो साभार: Twitter

पूर्वांचल और उत्तर भारत में बीजेपी का भोजपुरी कार्ड सक्सेस रहा। क्रिकेट जगत से भी गौतम गंभीर चुनाव लड़े और जीते। वहींं, सन्नी देओल ने गुरदासपुर की सीट, जो विनोद खन्ना के निधन के बाद उपचुनाव में काँग्रेस के हाथ लगी थी, उसे जीत लिया और सुनील जाखड़ को हराकर संसद पहुंचे।

दो नांव पर पैर रखने से नहीं होगा

किरण खेर चंडीगढ़ से व हेमा मालिनी मथुरा से फिर जीतीं मगर काँग्रेस से उर्मिला मातोंडकर महाराष्ट्र में तथा जयाप्रदा रामपुर से हार गईं। अमेठी से एक स्टार टीवी कलाकार स्मृति ईरानी की राहुल गाँधी पर जीत को यह इतिहास याद रखेगा।

अब अगर इनकी समीक्षा करें तो यब स्पष्ट है कि इस बार फिल्मी जगत की हस्तियों की भूमिका चरम पर दिखती है मगर इन कलाकारों को राजनीति में अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करना होगा, क्योंकि केवल शो-पीस बनने से काम नहीं चलेगा। सांसद या विधायक रहते हुए अपनी फिल्मों पर फोकस करना जनता के वोटों का अपमान होगा।

जिस प्रकार जयललिता, स्मृति ईरानी, मनोज तिवारी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना और सुनील दत्त जैसे दिग्गजों ने फिल्म इंडस्ट्री से राजनीति में आने के बाद इंडस्ट्री से तौबा करते हुए जनता के हो गए, उसी प्रकार इन्हें काम करना होगा वर्ना दो नांव पर चढ़ने से इनका नुकसान तो है ही साथ ही जनता भी इन्हें माफ नहीं करेगी।

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