जाति प्रथा समाज में सबसे बड़ी बुराई बनी हुई है। हिंदू समाज अगड़े, पिछड़े व दलित जातियों में बंटा है। यही नहीं, अलग-अलग धर्म के लोगों में भी अपनी संस्कृति व विचारों को सर्वश्रेष्ठ बताने की होड़ ने एक दूसरे के बीच कटुता का विष घोल दिया है।
इस कारण से मानवीय जीवन मूल्यों को भुला दिया गया है। दो धर्मों के बीच राज करने की नीति के लिए बांटने की लकीर खींचने की नींव अंग्रेज़ों ने ही डाली थी। हिंदू व मुस्लिमों के बीच मतभेद पैदा करते हुए फूट डालो और शासन करों की नीति ही आज स्वतंत्र भारत की राजनीति में वोट बैंक पाने का आसान तरीका है।
विकास का मुद्दा धर्म और जाति में बदल जाता है
दो धर्मों के बीच तुष्टीकरण बनाम अतिवादी नीति ने विकास के मुद्दे को धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है। विकास का मुद्दा चुनाव आते-आते धर्म और जाति की राजनीति में बदल जाता है। ज़ाहिर है कि राजनीतिक दलों के लिए सत्ता में वापसी करने के लिए जाति व धर्म विशेष का ध्रुवीकरण कर वोट बैंक को साधना आसान है।
वहीं, मूल समस्या पर जनता की नज़र ना जाए, इसलिए राजनीतिक दल धार्मिक भावनाओं को भुनाना शुरू करते हैं लेकिल सच्चा व वाजिब सवाल तो यह है कि हम विकास के पैमाने पर तब तक खरे नहीं उतरेंगे जब तक हम जातीय व धार्मिक भेदभाव को त्याग नहीं देते हैं।
चुनाव के वक्त वोटरों को लुभाने की कोशिश
राजनीतिक दल हमारे इसी कमी का फायदा उठाकर हमसे चुनाव के समय बार्गेनिंग करते हैं कि फला दल एक धर्म का हितैषी है, तो हम तुम्हारे धर्म के हितैषी हैं या हम इस जाति की तरक्की को ध्यान में रखेंगे, बस हमें वोट दो। इसी संदर्भ में तमाम तरह की बातें कही जाती हैं कि हम तुम्हारी जाति, तुम्हारे धर्म का भला करेंगे।
इस तरह की बातों को अगर समझना हो तो इन राजनीतिक दलों के भाषण व इनके मैनिफेस्टो के ज़रिये आसानी से समझ सकते हैं। अगर आप काम व विकास को तवज्जों देंगे, तो मजाल नहीं कि राजनीतिक दल का कोई नेता आपको जाति या धर्म के नाम पर बरगला सके।
मौजूदा दौर में विडंबना तो यही है कि चुनाव में अगर उम्मीदवार की जाति या धर्म देखकर हम अपना प्रतिनिधित्व चुनेंगे तो हमें सही विकास के लिए एक और 5 साल के समय का इंतज़ार करना होगा।
हम बीमार होने पर जिस तरह से इलाज के लिए डाॅक्टर की जाति नहीं बल्कि काबिलियत देखते हैं, उसी तरह इस देश के बीमार सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए हम अच्छे और कर्मठ प्रतिनिधि का चुनाव करें, ना कि उनका धर्म व जाति देखकर।
प्रतिनिधि अगर वादाखिलाफी करे तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखाइए
सरकारी सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए जब तक भारत का नागरिका खुद ज़िम्मेदारी निभाने के लिए सामने नहीं आएगा तब तक हम सही मायने में हम आज़ाद नहीं होंगे। देश के ज़िम्मेदार व जागरूक नागरिक ही देश को सही रास्ते में ले जाते हैं, क्योंकि लोकतंत्र में उनके पास वोट का अधिकार है।
वे राजा नहीं, प्रतिनिधि चुनते हैं। अगर उनका प्रतिनिधि उनके वादे पर खरा नहीं उतरे, तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है लेकिन जब जाति व धर्म की दीवारें बीच में खिंच जाती हैं, तो हम अपनी जाति व धर्म के नकारे प्रतिनिधित्व को बाहर का रास्ता दिखाने में पीछे रह जाते हैं और तब इसी का फायदा राजनीतिक दल उठाते हैं।
अब समय आ गया है कि हम अपने चुने हुए प्रतिनिधि से हिसाब ले, जानकारी इकट्ठा करें, मोहल्ला या गाँव सोसाइटी बनाकर उन्हें चिट्ठी पकड़ाए और उनकी जवाबदेही तय करें कि कितना विकास हुआ।
हमारे क्षेत्र की सड़कें, बिजली, पानी की व्यवस्था और किए गए कामों की क्वाॅलिटी भी चेक करें। तब उनको पता चलेगा कि जनता ही लोकतंत्र में सर्वोपरि है।