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“भक्त मुझे 3 इडियट्स के चतुर रामालिंगम की याद दिलाते हैं”

चतुर रामालिंगम

चतुर रामालिंगम

भक्त मुझे 3 इडियट्स के चतुर रामालिंगम की याद दिलाते हैं, जो किसी विषय को तर्क की कसौटी पर परखे बिना ही, उन्हें जाने-समझे बिना रट्टा मारकर जीवन में प्रगति करने वाली पद्धति पर चलने के लिए अभिशप्त दिखाई देते हैं।

गौर करने वाली बात यह है कि हमारा समाज भी उसी विश्वविद्यालय में तबदील हो चुका है जहां हज़ारों सालों के अंधविश्वास के इस अंतरिक्ष युग में भी स्वतः अपना लेने का उच्च आदर्श हमारे सामने रखा जाता है, जहां तर्क करने की क्षमता, हर रूढ़िवादी विचारधारा पर सवाल खड़े करने की प्रवृत्ति की हत्या सहज बना दी गई है।

सवाल करने की बौद्धिक क्षमता रखने वालों पर ही हमारा समाज, संचार और निजाम अपने-अपने लठैतों को उन्हें अपमानित, तिरस्कृत, गाली-गलौच करने के लिए हर मोर्चे पर अपने हथियार लिए तैनात किए रखता है। मुझे तो इस मौजूदा हालात पर शौक बहराइची का यह शेर याद आ रहा है-

बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था

हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा

यानि कोई भी विचार और तकरीर, डिबेट को बस उसके उग्र वक्ताओं के भाषण और भाव-भंगिमा बनाकर मंचों से उसकी नाटकीय प्रस्तुति के आधार पर किसी अधिनायक वक्ता पर मुग्ध होकर उसका अंधा अनुसरण करना। बिना यह विचार किए कि जो बातें वक्ताओं के मुख से निकल रही हैं, उसमें क्या तथ्य है?

कट्टरपंथ और अतिवाद आधुनिकता के लिबास ओढ़े भी कई बार मानव सभ्यता की चौखट पर दस्तक दे चुका है मगर कट्टरवाद को सिर्फ अपनी ड्योढ़ी तक महदूद रखना असंभव है क्योंकि वह एक नफरत की आग लिए हुए नगरों में प्रवेश करता है और उसका उदर तब तृप्त होता है जब शहर दंगों के हथियार से कोई प्राचीन खंडहर में तब्दील हो जाए।

फोटो साभार: Twitter

आंख मूंदकर किसी का भी अनुसरण करना शहर के खड्डों में आवाम को गिराएगा। इतिहास ने ऐसे कई फनकार देखे है जिन्हें मादक धुन को बखूबी बजाना आता था परंतु उन फनकारों की हुकूमत दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में तब ही कायम हुई जब उनके दर्शक उन्हें अपना विवेक बेचकर उनके अफीम को खरीद, प्रसाद के रूप में ग्रहण करने लगे।

उन्हें अपनी मुक्ति एवं उद्धार के लिए उस फनकार में अपना मसीह दिखने लगा और उन्हें यह अंधविश्वास होने लगा कि यह प्रसाद का सेवन ही उनके कष्ट हरेगा। ऐसे फनकार, जिन्हें तानाशाह की उपाधि से ख्याति प्राप्त है, इतिहास में वे अलग-अलग वक्त पर अलग चेहरों में कट्टरपंथ का प्रचार-प्रसार कर, अंधे अनुसरणकर्ताओं के दम पर क्रूरता और दमन का साम्राज्य स्थापित करने में बेहद सफल रहे। आवाम के सवालों और सत्ता की जवाबदेही का अभाव ही तानाशाही का निजाम कायम करता है। कवि गोरख पांडे ने लिखा है-

राजा बोला रात है

रानी बोली रात है,

मंत्री बोला रात है

संत्री बोला रात है,

यह सुबह-सुबह की बात है।

किसी भी तानाशाही का राज्य स्थापित करने के लिए उसकी सबसे अहम सामग्री है कट्टरपंथी अफीम द्वारा उस राज्य में अंधे अनुसरणकर्ताओं के भारी बहुमत का निर्माण कराना। दूसरी सबसे बड़ी सामग्री उस राज्य से बौद्धिक वर्ग का विस्तृत पलायन करवाया जाना क्योंकि कोई भी तार्किक मनुष्य जो सवालों के हथियार से लैस है, वह किसी भी अधिनायकवाद के लिए खतरे की घंटी है।

वह जहालत के अंधेरे में ज्ञान की ज्योति जलाकर मन के तिमिर को हर सकता है। ऐसे किसी भी दीपक का बुझ जाना आवश्यक है अंधेरे के आधिपत्य एवं प्रभुत्व को बने रहने के लिए। अंधेरे का आलिंगन करने के लिए मनुष्य को अपने भीतर के रणछोड़दास छांछड़ की हत्या स्वयं करनी होगी अपने भीतर छुपे चतुर रामालिंगम के जागृति हेतु।

ऐसे ही बहुत सारे रणछोड़ दास छांछड़ को लगभग एक सदी पहले नाजी जर्मनी के चतुर रामालिंगमो से अपने प्राणों की रक्षा के लिए अपनी मातृभूमि से पलायन करना पड़ा। हिटलर शासित जर्मनी से बौद्धिक वर्ग का इस तरह सफाया किया गया जैसे खेतों में फसलों की ठूंठ को जलाकर साफ किया जाता है।

सदी के सबसे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन तक को अपने प्राण बचाकर जर्मनी से भागना पड़ा। उसके बाद जिस तानाशाही सनक ने दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध में झोंक दिया उसकी विभीषिका का ज़िक्र मात्र ही मानवता का सिर शर्म से झुकाने को पर्याप्त है।

फोटो साभार: Getty Images

भगत सिंह ने अपने सबसे चर्चित लेख “मैं नास्तिक क्यों हूं” में तर्कवाद का पक्षधर बनने की वकालत करते हुए यह लिखा था, “जो व्यक्ति विकास के लिए खड़ा है उसे हर एक रूढ़िवादी चीज़ की आलोचना करनी होगी, उसमें अविश्वास करना होगा तथा उसे चुनौती देनी होगी।”

हम आज यह प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि कैसे भगत सिंह के विचारों की वेदी पर उनकी खूबसूरत मूर्ति सजाई जा रही है, जो दरबारी मीडिया सत्ता को फलक पर बैठाकर भगत सिंह के चेहरे का इस्तेमाल कर प्रतिरोध की आवाज़ को हर रोज कुचलता है, उसे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं कि निरंकुशता के विरुद्ध सबसे सशक्त प्रतिरोध की आवाज़ आज भी भगत सिंह की ही है, जो एक सदी पारकर आज भी समतामूलक समाज और गैर-बराबरी को मिटाने की लड़ाइयां पूंजीवाद के खिलाफ लड़ रही है।

गौर करने वाली बात यह है कि हमारे संचार-तंत्र का सारा ताना-बाना ही पूंजीवादी पालने में फलता-फूलता रहा है फिर वह क्यों उस तर्कवाद का समर्थक होगा? अगर आवाम की वर्ग चेतना जागृत हो गई फिर उन्हें नफरत के उपभोक्ता कहां मिलेंगे? जब उपभोक्ता नहीं होंगे तो उनका पूंजीवादी ढर्रा ही अपनी आर्थिक बदहाली की परिणति पर पहुँच जमींदोज हो जाएगा।

फोटो साभार: Getty Images

यही वे कारखाने होते हैं जहां झूठ का उत्पादन जनता को मूर्ख बनाने के लिए किया जाता है। इस कारखाने की मिल्कियत का चुनाव हर पांच साल में किया जाता है, जिसकी सत्ता उसके कारखाने तो झूठ के गुबार का उत्पादन भी उन्हीं के लिए, उन्हीं के अनुसार, उनको ही सत्ता मयस्सर करवाने के लिए किया जाएगा।

ऐसे में एक जागृत आवाम की क्या ज़िम्मेदारी हो सकती है। शायद यह कि लोकतंत्र को तानाशाही के लहरों में बह जाने से पहले संचार-तंत्र की हर तोहमत सहते हुए प्रश्नों का बांध मज़बूत करना, तर्क की मशाल से हर कट्टरवादी तिमिर को दूर भगाना, किसी भी हालात में नागरिकों के बुनियादी हकों को कमज़ोर करने वाली सभी ताकतों का लोकतांत्रिक ढंग से प्रतिरोध करना और कभी नाजी जर्मनी के इतिहास को दोहराने की हर कोशिश को विफल बनाना।

हमारे भीतर का रणछोड़ दास छांछड़ तभी जीवित रहेगा जब हम फैज़ के इस अल्फ़ाज़ों की ओर गौर फरमाएंगे-

“बोल की लब आज़ाद हैं तेरे”

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