हिन्दुस्तान में कास्ट सिस्टम सदियों से चली आ रही है, जहां इंसान हमेशा दूसरे को खुद से नीचा और गिरा हुआ समझता है। ऐसी बात नहीं है कि जातिवाद सिर्फ ब्राह्मणों में ही है, बल्कि मौजूदा वक्त में शेड्यूल कास्ट के लोग आपस में ही जातिवाद को बढ़ावा देने लगे हैं।
उदाहरण के तौर पर ‘चमार’ जाति का व्यक्ति ‘मुसहर’ से जातिवाद कर रहा होता है तो ‘मुसहर’ किसी और समुदाय से भेदभाव करता है। यह मुझे बहुत पीड़ादायक लगता है। ब्राह्मणों ने शायद रीति फैलाई होगी लेकिन उससे ज़्यादा जातिवाद का दंश आज दलित समुदाय में है।
मैं दलित महिलाओं के उत्थान के लिए काम ज़रूर करती हूं लेकिन अतित के दिनों में जातिगत भेदभाव का मुझे भी सामना करना पड़ा है।इसकी शुरुआत तब होती है जब साल 2006 में अपने एक जानने वाले के घर जाने पर मेरी जाति की वजह से मेरे साथ भेदभाव किया जाता है।
एक जानकार के घर पर चाय पीने के बाद जब मैं ग्लास रखती हूं, तब वही ग्लास तीन साल का अबोध बच्चा उठाकर ले जाता है फिर उस बच्चे को घर की एक बुज़ुर्ग महिला ज़ोर की डांट लगाते हुए कहती हैं, “सब बर्बाद हो गया।”
यह कोई पहली घटना नहीं है जब मुझे जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा हो। साल 2008 की बात है जब मैं पटना में ही एक संस्था के साथ काम करती थी। उस दौरान एक प्रोजेक्ट की सफलता के बाद सेलिब्रेशन मनाया जा रहा था, जहां मैं भी आमंत्रित थी।
कार्यक्रम के दौरान खाने की चीज़ें दी गईं और जब मेरा खाना समाप्त हुआ तब उनके घर के एक सदस्य ने कहा, “देखो प्रतिमा तुम तो जानती हो कि तुम्हारी जाति के बारे में सभी को पता है और आज काम वाली महिला भी नहीं आई हैं। प्लीज़ तुम अपनी प्लेट धो दो।” मुझे उनकी बातें अच्छी नहीं लगी और अगले दिन से मैंने काम पर आना बंद कर दिया।
मैं पटना और आस-पास के इलाकों में पिछले कई वर्षों से समाज सेवा का काम कर रही हूं। मेरी संस्था ‘गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच’ सामाजिक समावेश को लेकर अल्पसंख्य लड़कियों के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे मसलों पर काम करती हैं।
आज मैं अपनी संस्था के ज़रिये बेशक दलित महिलाओं के मुद्दों को उठाती हूं, उन्हें सशक्त बनाती हूं, प्रेरित करने के साथ-साथ फुटबॉल के माध्यम से उन्हें आत्मनिर्भर बनाती हूं लेकिन ज़रूरी यह भी है कि दलितों के प्रति समाज की तंग मानसिकता में परिवर्तन आए।
दलित महिला के तौर पर मेरे साथ भेदभाव की जो दो घटनाएं हुई थीं, उन्हीं की वजह से आज में सामाजिक कार्यों में हूं। उन दो घटनाओं के संदर्भ में यदि मैं चाहती तो एक्शन ले सकती थी मगर वैसा करने से समस्याएं खत्म नहीं हो जाती। आज अपनी संस्था के ज़रिये मैं हर दलित लड़कियों को ना सिर्फ प्रशिक्षण देती हूं बल्कि यह भी बताती हूं कि दलित होना कोई अपराध नहीं है।
हमने देखा है कि समाज द्वारा तो दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है, चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या उनके के प्रति कोई आम अवधारणा मगर इन चीज़ों से दलित समुदाय के अंदर एक भय का माहौल बन जाता है। सामाज का तानाबाना कुछ इस कदर बुना गया है कि कोई दलित यदि किसी सवर्ण के घर जाता है तो पहले से ही उस दलित के ज़हन में भेदभाव को लेकर कई प्रकार के पूर्वाग्रह होते हैं और इन्हीं पूर्वाग्रहों को हमें तोड़ना है।
मैं कुछ सुझाव पेश कर रही हूं जिसके ज़रिये दलितों (खासकर महिलाओं) के साथ भेदभाव को कम किया जा सकता है।
- दलित महिलाएं चाहे भारत के किसी भी इलाके में क्यों ना रहें, ज़रूरी यह है कि उन्हें समय-समय यह प्रशिक्षण के ज़रिये जानकारी दी जाए कि दलितों के क्या-क्या अधिकार हैं। यदि कोई उन्हें दलित बोलकर अपमानित करता है तो कानून के ज़रिये कैसे वे कैसे अपनी आवाज़ बुलंद कर सकती हैं, इस बारे में जानकारी देने की ज़रूरत है।
- दलित महिलाओं की शिक्षा पर बात हो। हम यह सुनिश्चित करें कि कोई भी दलित महिला ड्रॉपआउट ना हों।
- इस संदर्भ में प्रशासन की बहुत अहम भूमिका हो सकती है। यदि दलित महिला के साथ आपराधिक मामले की खबर थाने को मिलती है, तो त्वरित जांच हो।
- दलित महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की हर संभव कोशिश की जाए। यहां पर बेहद ज़रूरी है कि तमाम सामाजिक संगठन निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर दलित महिलाओं के लिए हितकारी योजनाओं के ज़रिये काम करें।
मैं समझती हूं इन चीज़ों पर यदि अभी से ही व्यापक स्तर पर काम किया जाए तो वह दिन दूर नहीं जब जाति के आधार पर ना तो दलित महिलाओं के साथ भेदभाव की खबरें आएंगी और ना ही उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।