जब मै 12वीं कक्षा में था, तब भी मैं राजनीतिक विज्ञान का छात्र था। उस वक्त भी मार्क्स को पढ़ता था लेकिन तब मार्क्स को मात्र एक अन्य विचारकों के समान राजनीतिक विचारक और साम्यवाद को मात्र एक चिंतक के सामान्य राजनीतिक विचार समझता था।
जब मै ग्रेजुएशन में आया तो राजनीतिक विज्ञान मेरा विषय था और उस दौरान मार्क्स को सबसे ज़्यादा पढ़ा। इतिहास में भी मैं रूस की क्रांति पढ़ चुका था और मार्क्स के चिंतन का प्रभाव मेरे ऊपर पड़ना शुरू हो गया।
सभी राजनीतिक चिंतकों के चिंतन का केंद्र राज्य, शक्ति, संप्रभुता और सरकार ही होता है लेकिन मार्क्स के चिंतन में पीड़ा और साहस का समन्वय है। मार्क्स के चिंतन में पीड़ा है सर्वहारा के लिए, जिसका सब कुछ इस पूंजीवादी व्यवस्था ने लूट लिया है।
मार्क्स ने मज़दूरों की तकलीफों को अनुभव किया
मार्क्स ने उनकी पीड़ा का अनुभव किया और उन सर्वहाराओं को अपनी पीड़ा का अनुभव करने को मजबूर करके उनके हाथों में साहस का हथियार सौंप दिया और सर्वहाराओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘दुनिया के मज़दूरों तुम्हारे पास अपनी जंजीरों के अलावा खोने के लिए कुछ भी नहीं।”
मौजूदा वक्त में लोकतांत्रिक संकट और तानाशाही के बीच देश का युवा साम्यवाद (कम्युनिज़्म) की ओर आकर्षित हो रहा है। उसे वहां कुछ आशा दिख रही है लेकिन आज हर कोई जो अपने आप को कम्युनिस्ट कहता है, ज़रूरी नहीं कि वह मार्क्स के दर्शन से प्रभावित होकर कम्युनिस्ट बना हो।
ऐस हो सकता है नास्तिक बनने के लिए उसने यह रास्ता चुना हो या फिर सत्ता के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए ही वह अपने आपको कम्युनिस्ट कह रहा हो।
मैं यह मानता हूं कि हर किसी को जो कि अपने आपको कम्युनिस्ट कहते हैं और वे जो वाम धड़े और साम्यवाद से घृणा करते हैं, दोनों को ही मार्क्स के विचारो को पढ़ना चाहिए। दोनों को मार्क्स की सारी किताबें नहीं तो कम-से-कम कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो (कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र) को तो पढ़ना ही चाहिए।
इससे या तो वे मार्क्स की ओर अधिक आकर्षित हो जाएंगे या फिर उनसे और अधिक घृणा करने लगेंगे क्योंकि जो लोग पूंजीवाद चाहते हैं, जो धनी और निर्धन के बीच की खाई को कम नहीं होने देना चाहते, जो एक मज़दूर और उनके मालिक को एक साथ खड़े होते देखना नहीं चाहते, वे कभी मार्क्स से घृणा किए बिना रह ही नहीं सकते हैं।
मार्क्स को और अधिक जानने की ज़रूरत
हमारे देश में शिक्षित धड़े को यह चाहिए कि वे मार्क्स के दर्शन को पढ़ें, उसका अध्ययन करें, उस पर बहस करें और मार्क्सवाद को उन लोगों (सर्वहाराओं) तक पहुंचाया जाना चाहिए जिनके लिए इसका प्रतिपादन हुआ था। इन्हें उन गरीब किसान, मज़दूर और दलितों तक पहुंचाया जाए जिन्होंने औपचारिक शिक्षा ग्रहण ही नहीं कि या बहुत कम मिली।
उन तक मार्क्स के विचारों को अनौपचारिक शिक्षा के रूप में पहुंचाया जाना चाहिए। मार्क्स की जगह किताबों के पन्नों या विश्विद्यालयों की चारदीवारी तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। उन्हें सीवर में डूबते दलितों और खेत में फांसी लगाते मज़दूरों तक पहुचाने की ज़िम्मेदारी हमारी हैं।
मार्क्स के विचारों को इन चारदीवारी से बाहर निकाल कर खेतों की फसलों की खुशबू के साथ, सीवर में भरी दुर्गंध और कारखानों से निकले धुएं में मिलाकर फैलाना हमारी ज़िम्मेदारी है। इसके लिए हमें मार्क्स को पढ़ना पढ़ेगा।
भारत के गाँवों में मार्क्स की जगह लाल झंडे ही पसंद किए जाते हैं मगर ज़रूरी यह है कि लाल झंडे के विचार भी उन तक पहुंचने चाहिए। भारत में मार्क्स के विचारों को यदि कोई वास्तविकता में बदल सकता था तो वह थे शहीद ए आज़म भगत सिंह।
अगर वह ज़िंदा होते तो भारत एक ‘समाजवादी लोकतांत्रिक राज्य’ के स्थान पर एक साम्यवादी राज्य होता। अगर वह होते तो भारत में संपत्ति का इस प्रकार असमान वितरण ना होता। भारत में 1 फीसदी आबादी के पास देश में कुल संपत्ति का 51.53 हिस्सा है। जबकि 60 फीसदी आबादी के पास नैश्नल वेल्थ का सिर्फ 4.8 फीसदी हिस्सा ही है।
आज भारत में कम्युनिज़्म की जड़ों को बेगूसराय से कुछ पोषण मिलता दिख रहा है। कम्युनिस्ट पार्टियां जो कि उत्तर भारत में पूरी तरह से खत्म हो गई थी, बेगूसराय उसमें फिर से जान फूंक रहा है।
कन्हैया कुमार भारत की इस कम्युनिस्ट राजनीति के पोस्टर बॉय हो सकते हैं। वैसे भी बेगूसराय से भाजपा के पूर्व सांसद स्वर्गीय भोला सिंह ने कन्हैया कुमार की तुलना भगत सिंह से करके उसे साम्यवादी राजनीति का चेहरा तो बना ही दिया था।