जब हम लोग कॉलेज जाते हैं तो ऐसे कई लोग मिलते हैं, जो सरकारी नौकरी की ख्वाहिश रखते हैं। ऐसे स्टूडेंट्स हर समुदाय से आते हैं, वे दलित समुदाय से भी होते हैं, आदिवासी समुदाय से भी होते हैं और सामान्य या सर्वण समुदाय वर्ग से भी होते हैं।
सभी मेहनत करते हैं और 10-10 घंटे तक पढ़ाई भी करते हैं लेकिन जहां बात किसी पिछड़े समुदाय की आती है, तो सामान्य या जनरल वर्ग के लोगों की छठी इंद्री जागती है और उनके अनुसार दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों को मेहनत करने की ज़रूरत ही क्या है?
भाई वे बस एग्ज़ाम में बैठ जाए तो उन्हें नौकरी मिल जायेगी। क्यों? क्योंकि इन्हें हमारे यानी जनरल वालों का हक मारकर आरक्षण दिया गया है। आरक्षण के आधार पर ये लोग नौकरी करनी शुरू कर देंगे लेकिन इन्हें काम करना थोड़े ही आएगा। जब कॉलेज में भी दाखिले की बारी आती है तो सामान्यत: यही बात बोली जाती है कि फलां तो दलित है ना, उसे तो दाखिला मिल जाएगा।
हम मानने को तैयार नहीं होते कि कोई दलित-आदिवासी एक बेहतर इंजीनियर या डॉक्टर हो सकता है
हमारे मन में दलित-आदिवासी समुदाय को लेकर एक ज़बरदस्त सामंतवादी सोच और पूर्वाग्रह बैठा दिया गया है। हम यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि कोई दलित-आदिवासी एक बेहतर इंजीनियर या डॉक्टर हो सकता है। हमलोग यह बात हमेशा बोलते हैं कि वह तो आरक्षण वाला डॉक्टर है, क्या ही इलाज करेगा या जब भी कहीं पुल गिरता है, तो लोग यही बोलते हैं कि पक्का कोई आरक्षण वाला ही बनाया होगा।
लेकिन अगर हम अपनी शिक्षा व्यवस्था और दिमाग दोनों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि दोनों में जंग लग चुका है। एक समृद्ध घर से आने वाला स्टूडेंट डोनेशन देकर इंजीनियर या डॉक्टर बन जाता है और हमें उसकी काबिलियत पर भरोसा भी होता है। जबकि उसने अपने दाखिले के लिए किसी एग्ज़ाम को क्वालीफाई नहीं किया है, बल्कि सिर्फ पैसे के दम पर इंजीनियर या डॉक्टर बन गया है।
वही जिसने एक एग्ज़ाम पास किया लेकिन उसे आरक्षण मिला, हमें उसकी काबिलियत पर हमेशा संदेह रहता है। डिग्री को पूरा करने के लिए जो सेमेस्टर एग्ज़ाम होते हैं, उसमें सभी स्टूडेंट्स को मार्क्स उनके आंसर के आधार पर मिलते हैं ना कि किसी आरक्षण के आधार पर।
रोहित वेमुला तो याद ही होंगे आपको
आपने रोहित वेमुला का नाम तो ज़रूर सुना होगा। यह वह छात्र था, जिसकी काबिलियत पर शक किया गया, क्योंकि वह दलित था। उसे राजनैतिक रूप से प्रताड़ित किया गया, उसकी स्कॉलरशिप भी बंद कर दी गयी। इन सबसे परेशान होकर उसने आत्महत्या की या फिर यूं कहें कि संस्थागत हत्या की गयी।
रोहित वेमुला के सन्दर्भ में भी यह बात कही गयी कि वह दलित भी नहीं था और उसने सिर्फ फ्रस्टेशन में आत्महत्या की। आज अचानक हम लोग रोहित वेमुला पर चर्चा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि इस बार फिर से हमने एक स्टूडेंट की जान ली है। इस बार यह स्टूडेंट डॉक्टर थी और मुंबई से अपनी एम.एस. की पढ़ाई कर रही थी।
इस बार डॉक्टर पायल को निशाना बनाया गया
नाम डॉक्टर पायल, जो एक आदिवासी समुदाय भील से आती थी, वह अपने समुदाय की पहली लड़की थी, जो पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रही थी। वह अपने परिवार की पहली डॉक्टर होती। डॉ. पायल की साथी डॉक्टर्स ने उनके आदिवासी होने का लगातार मज़ाक उड़ाया, उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया।
डॉ. पायल ने इसकी शिकायत अपनी हेड ऑफ डिपार्टमेंट से भी की लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। डॉ. पायल ने आत्महत्या कर ली।
कुछ दिन हम लोग पायल के नाम के नारे लगाएंगे, कैंडिल मार्च भी निकालेंगे लेकिन उससे क्या? हमने तो एक बेहतरीन डॉक्टर की मिलकर हत्या कर ही दी। जिन साथी डॉक्टरों ने डॉ. पायल के आदिवासी होने का मज़ाक बनाया, वे हमारे समाज से ही आती हैं, जो शिक्षा हमने बतौर समाज उन्हें दिया उन्होंने वही किया।
हमारे समाज ने हमेशा हमें यही सिखाया है कि दलित-आदिवासी हमारे गुलाम हैं। अगर दलित पढ़ाई करने लगेंगे तो नाली की सफाई कौन करेगा? हमारी इस मानसिकता ने ही डॉ. पायल को मारा है।
हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां हमारे प्रधानमंत्री उर्फ प्रधानसेवक अपनी पुस्तक कर्मयोग में मैनुअल स्कैवेंजिंग को एक आध्यातिक कार्य बताते हैं, वहां पर हम अपने समाज से और क्या ही उम्मीद कर सकते हैं? लेकिन डॉ. पायल अकेली नहीं थी, जो अपनी पहचान की वजह से ताने सुनती थी। इस देश के हर शहर के हर कॉलेज में हर दलित-अल्पसंख्यक-आदिवासी स्टूडेंट्स को रोज़ ऐसे ही ताने सुनने को मिलते हैं।
बहरहाल, चीज़ें एक दिन में तो सुधरेंगी नहीं लेकिन हम अपने अन्दर यह बदलाव ला सकते हैं कि हम मज़ाक में भी इस तरह की टिप्पणी ना करें।