हिंदी में मज़दूर और मजबूर शब्द में बस एक वर्ण ‘ब’ और ‘द’ का अन्तर होता है लेकिन दोनों स्थितियों में अन्तर ज़्यादा नहीं है। मज़दूरों की स्थिति मजबूरी की है क्योंकि उनको सिर्फ ज़िंदा ही रखा जाता है, जिससे वे काम कर सके। इससे ज़्यादा उनकी फिक्र किसी को भी नहीं होती है।
इन सर्वहाराओं की ठीक वैसी ही स्थिति है, जिसका वर्णन मार्क्स ने किया था कि इनको सिर्फ ज़िंदा रखा जाता है ताकि इनसे पूंजीपति अपना काम निकलवा सकें। मज़दूर सिर्फ वे ही नहीं होते, जो कारखानों में काम करते हैं। मज़दूर वे भूमिहीन भी हैं, जो बड़े भूमिपति किसानों के खेत में मज़दूरी करते हैं, जो नाली साफ करते हैं, जिन्हेें हम म्युनिसिपलिटी कर्मचारी कहते हैं।
इन मज़दूरों की दुर्दशा का हाल हम उनकी अशिक्षा को तो दे ही सकते हैं लेकिन 9-10 घंटे तो वे काम करते ही हैं, ऐसे में उन्हें अपने लिए समय मिल ही नहीं पाता कि वे किसी मज़दूर आंदोलन को खड़ा कर सके। ऐसे में वे ना मार्क्स को जानते हैं, ना लेनिन को और ना ही चे ग्वेरा को।
किसानों और मज़दूरों में वर्ग चेतना का अभाव
हमारे देश में समस्या यह है कि किसानों और मज़दूरों में वर्ग चेतना का अभाव है, जिसका कारण यह है कि वे साम्यवादी साहित्य से परिचित नहीं हैं। वे सिर्फ धार्मिक कर्मकांडों में उलझे रहते हैं, उनमें भौतिकता की कमी है। यहां तक कि वे अपने नेता को भी धर्म के आधार पर चुनते हैं।
वे कई प्रकार की अदृश्य शक्तियों में विश्वास करते हैं और उनका मानना है कि इसके ज़रिये उनकी कठिनाइयां दूर हो जाएंगी। मैं समझता हूं कि अगर उनकी मदद कोई कर सकता है तो वे स्वयं ही हैं। हमारे देश में मज़दूरों, किसानों और सफाई कर्मचारियों की राजनीतिक चेतना और वर्गीय चेतना बहुत ही कम है।
मज़दूरों के नेताओं को उनकी समस्याएं जाननी होगी
इसकी एक वजह वे छोटे राजनीतिक दल हैं, जो उनके अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने की बात करते हैं। ये संगठन उनके बीच तभी प्रकट होते हैं, जब उनको कोई राजनीतिक लाभ की आवश्यकता हो या मज़दूर या किसान जब हड़ताल कर रहे हों। इन छोटे संगठनों की कार्यप्रणाली बहुत ही बेढंगी होती है।
कई दफा ऐसा होता है कि जो नेता उनका नेतृत्व करते हैं, वे उनकी समस्याएं ही अच्छी तरह से जान नहीं पाते हैं। पूंजीवादी लोग भी तो इनका नेतृत्व करते हैं। मजदूरों के लिए बड़े स्तर पर कोई पार्टी या संगठन नहीं है जो उनके लिए एक मज़बूत लड़ाई लड़ सके सड़कों पर भी और संसद में भी।
गाँवों के किसानों की हालत और भी बदतर
गाँव और छोटे शहरों के किसानों की तो हालत और भी बदतर है। उनकी दैनिक मज़दूरी तब ही बढ़ती है, जब सब फसलों की बुआई और कटाई हो रही होती है। ऐसा मांग और आपूर्ति के नियम के कारण होता है। अन्यथा बाकी साल तो उन्हें बस ज़िंदा रहने के लिए ही मज़दूरी मिलती है।
सफाई कर्मचारियों का भी बुरा हाल है। उन्हें सीवर में उतारा जाता है, बावजूद इसके कि यह असंवैधानिक है। बड़े शहरों में तो और बुरा हाल है। इनको बिना किसी सुरक्षा उपकरण के ही सीवर में उतार दिया जाता है। ना ही उन्हें स्वास्थ बीमा और जीवन बीमा जैसी कोई सुविधाएं प्राप्त होती हैं कि यदि वे इससे बीमार हो गया या कार्य करते समय उसकी मौत हो गई तो उसके परिवार का क्या होगा।
हमारे देश के किसान-मज़दूर नेताओं को लेनिन और बोल्शेविकों से कुछ सीखना चाहिए। उन्होंने जो किया वास्तव में हमारे देश के नेता शायद कभी ही कर सकें। हमारे देश के नेता इन किसान और मज़दूरों को संगठित तो कर नहीं पा रहें, उनमें राजनीतिक शिक्षा और चेतना क्या खाक पैदा करेंगे। हमारे यहां नेता तो सिर्फ इन शोषितों को पंद्रह लाख और बहत्तर हज़ार की लालच दे रहे हैं।