19 मई को लोकसभा चुनाव 2019 के सभी चरण के मतदान समाप्त हो गए और शाम को 6:30 बजे से एक्ज़िट पोल के नतीजे भी आने लगे थे। खैर, आज चुनाव परिणाम के रोज़ यह साफ हो जाएगा कि किसकी सरकार बनने वाली है।
सभी एक्ज़िट पोल के अनुसार भाजपा की सरकार बन रही है लेकिन एक्ज़िट पोल पर मैंं बिल्कुल भी विश्वास नहीं करता हूं। एक्ज़िट पोल्स की विश्वसनीयता को समझने के लिए हमें पिछले कुछ चुनावों का अध्ययन करना बेहद ज़रूरी है, जिससे हम जान पाएंगे कि आंकड़े कितने गलत साबित हुए हैं।
भाजपा और काँग्रेस दोनों ही बहुमत से दूर रहेंगे
मेरा अनुमान है कि भाजपा और काँग्रेस दोनों को इस चुनाव में बहुमत नहीं मिल रहा है। अगर हम गौर से देखे तो पता चलता है कि कई प्रदेशों में राष्ट्रीय पार्टियों की जगह क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा ज़्यादा रहा है। उत्तर प्रदेश में भाजपा का खेल सपा-बसपा का महागठबंधन बिगाड़ रहा है। बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल काँग्रेस भाजपा का रथ रोक रही है। वहीं, उड़ीसा में बीजू जनता दल और भाजपा की कड़ी टक्कर होगी।
सभी एक्ज़िट पोल यही इशारा कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का खेल महागठबंधन ही बिगाड़ेगा और यह सच भी है कि अगर काँग्रेस को महागठबंधन में शामिल कर लिया जाता तो भाजपा के लिए रास्ता और मुश्किल हो जाता लेकिन उत्तर प्रदेश में महागठबंधन का भाजपा को टक्कर देना इस बात को साबित करता है कि क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व को जनता एक विकल्प के रूप में देख रही है।
क्षेत्रीय दलों पर जनता को भरोसा करने की ज़रूरत
वास्तव में जनता को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों में क्षेत्रीय दलों को ही चुनना चाहिए। ज़्यादा से ज़्यादा अपना नेतृत्व इन्हीं क्षेत्रीय दलों में से चुनना चाहिए। भारत एक बहुत बड़ा देश है, जो कई इकाईयों में विभाजित है। क्षेत्रीय दलों का क्षेत्र सीमित होता है। उनको अपने राज्य की संस्कृति और परंपराओं के बारे में ज़्यादा ज्ञान होता है।
अगर जनता क्षेत्रीय दलों को चुनती है तो नेता अपने क्षेत्र के हितों पर ज़्यादा ध्यान देंगे। ऐसे में अगर त्रिशंकु संसद बनती है, तो केंद्र सरकार में सभी राज्यों को बराबर प्रतिनिधित्व भी मिलेगा, जिससे सिर्फ एक क्षेत्र और क्षेत्रीयता के लोगों को फायदा नहीं पहुंचाया जा सकता है क्योंकि ऐसे सभी राज्यों के प्रतिनिधियों का समर्थन सरकार को प्राप्त होगा। उनके बिना सरकार गिरने का खतरा बना रहेगा।
अगर किसी एक ही बड़ी राष्ट्रीय पार्टी को बहुमत मिल जाता है, तो वे उन्हीं राज्यों को ज़्यादा महत्व देते हैं, जहां उनका मुख्य जनाधार है। जैसे कि भाजपा का मुख्य जनाधार हिंदी पट्टी के राज्यों से था तो भाजपा इन्हीं राज्यों को ज़्यादा महत्व देती है और इन्ही राज्यों की हिंदू जनता को ध्यान में रखते हुए उसने संसद में नागरिकता संशोधन अधिनियम को प्रस्तुत करके पास भी करवा लिया था, जिसके अनुसार भारत के पड़ोसी देशों से आए घुसपैठियों (मुसलमानों के अतिरिक्त) को भारत की जागृत मिल जाएगी।
इन घुसपैठियों की संख्या उत्तर पूर्व के राज्यों में ज़्यादा है़। अतः वहांं की जनता के हितों को ताक में रखकर भाजपा ने इस बिल को लोकसभा से तो पास करवा लिया परंतु वहां हुए हिंसक प्रदर्शनों से भाजपा की भी हिम्मत पस्त हो गई और इस बिल को राज्यसभा में पेश ही नहीं किया गया।
राम के नाम पर राजनीति
हमारे भारत में लगभग हर क्षेत्र में अलग-अलग भगवान की पूजा होती है। बंगाल में दुर्गा की, महाराष्ट्र में गणेश जी की, गुजरात में बाल गोपाल की और दक्षिण भारत में मुरूगन की अराधना की जाती है। हिन्दी पट्टी के मुख्य भगवान कृष्ण और राम को माना जाता है और राम के नाम का प्रयोग अब तो राजनीति में खुले तौर पर होता है। इसी रामनामी राजनीति का शिकार धीरे-धीरे पूरा भारत होता जा रहा है और अपनी विविधता और क्षेत्रीयता को भुलाता जा रहा है।
महाराष्ट्र की शिवसेना भी रामनामी राजनीति कर रही है लेकिन उसका कारण यह है कि ये पार्टी सदैव कट्टरवाद का शिकार रही है। पहले इसने मराठा राज्य की लेकर कट्टरता दिखाई और अब राम राज्य को लेकर। जबकि महाराष्ट्र के मुख्य भगवान गणेश हैं लेकिन वहां रामनामी राजनीति सफल हो रही है क्योंकि दक्षिण के राज्य अपने आपको उत्तर भारत के राज्यों से जोड़े रखना चाहते हैं।
ऐसे ही पूर्वी भारत का राज्य बंगाल जहां की मुख्य देवी दुर्गा हैं। वहां पहले कुछ लोग ममता बनर्जी की गाड़ी के सामने आ गए और जय श्री राम का नारा लगाया फिर अभद्रता करने लगे। सवाल यह उठता है कि उन्हें ऐसा करने के लिए किसने प्रेरित किया?
अभी हाल ही में अमित शाह की बंगाल में हुई रैली का एक वीडियो आया जिसमें अमित शाह की रैली पर बिल्कुल सांप्रदायिक रंग चढ़ा हुआ था, जिसमें कलाकार राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान का वेश धारण किए हुए थे। पहली बात तो यह कि वह एक राजनीतिक रैली नहीं थी।
उसे देखकर लग रहा था कि रामलीला चल रही है और दूसरी बात यह कि अगर भाजपा को वहां के हिंदुओं को प्रसन्न करना था तो देवी दुर्गा का वेश धारण किए हुए कलाकारों को अपनी रैली में जाना चाहिए था।
भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कवायत
दरअसल, दिल्ली में बैठे नेता और मीडियाकर्मियों को लगता है कि भारत की सीमा सिर्फ हिंदी पट्टी के राज्यों तक ही है। वे इससे आगे भारत को देखना ही नहीं चाहते या अनदेखा कर देते हैं। भाजपा और संघ भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना देखते हैं, जिसमें राम राज्य होगा और सिर्फ हिंदी भाषा ही बोली जाएगी।
ऐसे लोग भारत को सिर्फ एक धर्म और एक भगवान के मानने वाले और एक भाषा बोलने वालों का एक राष्ट्र बनाना चाहते हैं। अर्थात इनके राष्ट्रवाद सांप्रदायिक है। वास्तव में राष्ट्रवाद सांप्रदायिक भावना ही है जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं।
वास्तव में हिंदू राष्ट्र का मतलब आर्यों का राज। राजनेता यह कैसे भूल गए कि द्रविड़ तो अपने को हिन्दू मानते भी नही। ये कैसे पेरियार के द्रविड़ आन्दोलन को भूल गए? दरअसल, हिंदू राष्ट्र का सपना दिखाकर ये पुनः ब्राह्मणवाद को जीवित करके मनुस्मृति के कानूनों को लागू करना चाहते हैं और भारत की क्षेत्रीयता और विविधता को समाप्त करना चाहते हैं। ये भारत की क्षेत्रीय संस्कृतियों को समाप्त करना चाहते हैं।