बहुसंख्यकवादी संगठन अपने सियासी फायदे के लिए बार-बार मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा शासित भारत को गुलामी काल से जोड़कर देखते हैं। यहां कुछ सवाल उठते हैं-
- क्या गुलामी सिर्फ मुस्लिम बादशाहों की हुकूमत थी?
- क्या हिन्दू राजाओं की गद्दी लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली से चयन की जाती रही है?
- उनका राज्य राजतंत्र ना होकर क्या लोकतंत्र था?
- क्या वहां सभी नागरिकों को बुनियादी अधिकार मयस्सर थे?
- क्या वहां उनके खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को राजा, अभिव्यक्ति की आज़ादी मानकर ऐसी किसी भी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन प्रदान करते थे?
- क्या वहां राजा की खुली नींदा करने की स्वतंत्रता ऐसी थी कि वहां आलोचकों को फांसी पर चढ़ाने के बनिस्पत उन्हें सर आंखों पर बैठाया जाए।
बात यहां सिर्फ यह समझने की है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई भी राजतंत्र, लोकतंत्र नहीं हो सकता है। राजतंत्र मुस्लिमों का हो, ईसाइयों का हो या हिंदुओं का, वह तानाशाही राजतंत्र ही कहलाएगा।
- जहां लोगों को कोई भी बुनियादी अधिकार मयस्सर नहीं थे।
- वहां क्रूरता, शोषण और प्रजा के दमन का ही साम्राज्य कायम था।
- जहां राजा के मुख से निकला हर फरमान ही न्याय मान लिया जाता था।
- जहां किसी भी मज़हब के शासक का, गद्दी पर बैठते ही प्रजा का शोषण करना ही एकमात्र धर्म होता था।
- चाहे प्रजा किसी भी मज़हब की रही हो, उसका भी सिर्फ एक ही धर्म था हज़ारों कोड़े बदन पर सहते हुए अपने लब सिल लेना और गुलामी की बेड़ियों में पड़े रहना।
राजतंत्र में नागरिक नहीं होते, वहां सिर्फ बादशाह और गुलाम होते हैं। राजतंत्र से आज़ादी का संघर्ष ही दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए किया गया, जो कभी राजसत्ता से क्रांतिकारी संघर्ष, कभी मुक्ति संघर्ष के रूप में विश्व में अलग-अलग काल में अलग जगहों पर प्रस्फुटित हुआ।
नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए गुलामों का शासकों से संघर्ष ही लोकतंत्र में तबदील हुआ। लोकतंत्र में ना ही कोई शासक होता है, ना ही कोई गुलाम। गुलाम मुक्ति के संघर्ष को अपने शासकों के विरुद्ध फतह कर, अपने बुनियादी अधिकार प्राप्त करके, किसी भी मुल्क में लोकतंत्र की नींव रखते हुए नागरिक बन जाते हैं। यानी नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के बिना किसी भी लोकतांत्रिक राज्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
तब सोचने वाली बात यह है कि इस बेबुनियाद तर्कहीन बहस का दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या औचित्य हो सकता है?
- ऐसी तथ्यहीन तकरीरों का सबसे प्रमुख ध्येय अपने-अपने मज़हब का तुष्टीकरण कर इतिहास में से अपने धर्म के शासकों को नायक बताना और दूसरे मज़हब के शासकों को खलनायक के तौर पर पेश करना है।
- अपने शासकों के राज्य को लोकतंत्र से भी बेहतर बताकर, बहुल्यवादी लोकतंत्र को बिसराकर, एक मज़हबी राज्य में तबदीली करने की पुरज़ोर वकालत करना।
- कोई भी धार्मिक राष्ट्र चाहे वह इस्लामी राष्ट्र हो, यहूदी राष्ट्र हो, ईसाई राष्ट्र हो या फिर हिन्दू राष्ट्र वह कट्टरपंथ और अतिवाद में एक दूसरे के विपर्यय नहीं बल्कि उनके पूरक हैं।
दरअसल, उनके तमाम नायकों में कुछ एक अपवाद को छोड़कर सभी इतिहास के क्रूर खलनायक ही रहे हैं, क्योंकि रााजतंत्र का आधार ही दमनकारी शासक का सृजन करना है। उसमें उदारवाद का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। अगर शासक उदारवादी होगा तो राजतंत्र के भीतरी प्रजा के असंतोष से उत्पन्न विद्रोह ही उस राज्य को जमींदोज़ करने के लिए पर्याप्त होगा।
हम अपने ही मुल्क में इस यथार्थ को बार-बार देख सकते हैं, जो संगठन अपने सियासी महत्वाकांक्षा के लिए इतिहास के तहखानों से बार-बार बाबर औरंगजेब के प्रेत को जीवित कर बहुसंख्यकों के हृदय में अल्पसंख्यकों से भय का सृजन कर फिरकापरस्ती को लोकशाही में वैध बनाता है, उनकी ज़ुबान पर कलिंग युद्ध की विभीषिका का ज़िक्र कभी भी नहीं आता। यानी इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ मरोड़कर, उसमें मिर्च मसाला डालकर नफरत की आंच पर सियासी मुनाफे के लिए साम्प्रदायिकता का ऐसा पकवान पकाना, जिसे ग्रहण करने से जन-जन की जन भावना भड़क कर अतिवादी बदहज़मी से ग्रसित हो जाए।
बाबर की बर्बरता का बदला जुम्मन मियां से लेने की मानसिकता का बीज व्यापक संचार तंत्र के माध्यम से जनता के ज़ेहन में बोया जा रहा है। उसका उद्देश्य भारत को उसी दहलीज़ पर खड़ा करना है, जहां पर सन् 1947 में पाकिस्तान खड़ा था। हमें यह ध्यान रखना होगा कि हमने सन् 1947 में धार्मिक राज्य बनने के रूढ़िवादी ढर्रे को बिसराकर प्रगतिशीलता का आलिंगन करते हुए एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क बनने की ओर अपने कदम बढ़ाए थे। दुनिया के तमाम धार्मिक राज्यों की बदहाली हमें बार-बार कट्टरपंथियों द्वारा संचालित धार्मिक अतिवाद के विरुद्ध सचेत बनाती है।
अब यह हमें तय करना है कि क्या हम प्रगति के पहिए को पीछे की ओर धकेल कर पाकिस्तान की तरह ही बहुसंख्यक धार्मिक राज्य बनने को बेकरार हैं? या फिर धर्मनिरपेक्षता की जड़ें खोदने वालों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद कर एक प्रगतिशील लोकतंत्र का विस्तृत फलक तैयार कर समस्त विश्व के सामने एक खूबसूरत लोकतंत्र का उचित आदर्श रखे।