आज 6 मई को लोकसभा चुनाव के पांचवे चरण का मतदान जारी है, जिसमे बिहार, जम्मू और कश्मीर, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की 51 लोकसभा सीटों के नतीजे ईवीएम में कैद हो जाएंगे।
उत्तर प्रदेश की लखनऊ, अमेठी, रायबरेली, बाराबंकी, फैज़ाबाद और सीतापुर समेत कुल 14 सीटों पर मतदान हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश की इन सीटों में अमेठी और रायबरेली की सीट काँग्रेस के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
मायावती ने भी इन सीटों पर काँग्रेस का समर्थन किया और गठबंधन ने उन सीटों पर अपने उम्मीदवार भी नहीं उतारे हैं। कल मेरे लोकसभा क्षेत्र सीतापुर में भी चुनाव होने हैं।
वैसे सारे चुनाव महत्वपूर्ण हैं। इस चुनाव का महत्व इस कारण बढ़ जाता है क्योंकि पांच साल पहले जो हमने सरकार चुनी थी, उसने तो देश में डर, हिंसा, राजनीतिक असहिष्णुता और अतिराष्ट्रवाद का माहौल बना दिया है। इस कारण देश में इन तानाशाही ताकतों को हराने के लिए हर जागरूक नागरिक, बुद्धिजीवी वर्ग और कोई भी वह व्यक्ति जो देश के संविधान से प्रेम करता है, वह इन ताकतों को हराना चाहता है।
इन सबके बीच मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से इस चुनाव का महत्व बढ़ जाता है क्योंकि पिछले वर्ष ही मैंने 18 वर्ष की आयु पूरी की और यह लोकसभा चुनाव पहला ऐसा चुनाव है, जिसमें मै पहली बार भारत के एक नागरिक के तौर पर अपने मतदान का प्रयोग करूंगा।
अब मेरे सामने दुविधा यह है कि मै किस किस पार्टी के उम्मीदवार को अपना वोट दूं। हालांकि एक लेखक के तौर पर मैं हमेशा से यह कहता रहा हूं कि मैं किसी भी राजनीतिक दल को पसंद नहीं करता और ना ही उनका समर्थन करता हूं। मेरे लिए भाजपा एक सांप्रदायिक पार्टी और काँग्रेस एक भ्रष्टाचारी पार्टी की हैसियत रखती है। काँग्रेस के हाथ भी उसी तरह खून से सने हैं जिस तरह भाजपा के।
काँग्रेस पार्टी, वही पार्टी है जिसने देश पर इमर्जेंसी को थोपा था, जिसने हिन्दुत्व का परचम सबसे पहले थामा था। इसी पार्टी के प्रधानमंत्री और वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी के पिता राजीव गाँधी ने ही बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया था, जिसके बाद ही पूरे देश पर हिन्दुत्व के बादल छा गए थे और उसके बाद भाजपा के लाल कृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, उमा भारती और मुरली मनोहर जोशी ने रथ यात्रा निकलवाई थी।
बाबरी मस्जिद विध्वंस में जितना हाथ भाजपा का था, उतना ही काँग्रेस का भी लेकिन इसके बाद भी भारत के मुसलमानों में पता नहीं कैसे काँग्रेस की सेक्युलर छवि बनी हुई है।
हम सिख दंगों को कैसे भूल सकते हैं। इसी काँग्रेस पार्टी के नेताओं ने सिक्खों के कत्ल-ए-आम किए थे। जो लोग सिख हत्याकांड में शामिल थे, उन्हीं में से एक आज मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री है।
हम हाशिमपुरा नरसंहार कैसे भूल सकते हैं। मेरठ के हाशिमपुरा में पीएसी के जवानों ने 42 मुस्लिम नौजवानों को मारकर गंग नहर और हिंडन में फेंक दिया। यह एक सरकारी कत्ल-ए-आम था। उस समय केन्द्र और उत्तर प्रदेश दोनों में काँग्रेस की सरकार थी और मुसलमानों की हत्या करने वाली एजेंसी सरकारी थी।
गुजरात दंगों के समय केन्द्र और राज्य दोनों में भाजपा सरकार थी लेकिन उसके बाद तो केंद्र में काँग्रेस की सरकार बनी। यदि काँग्रेस चाहती तो गुजरात के हत्यारों को सज़ा दे सकती थी लेकिन उसने इससे मुंह फेर लिया और आज वही लोग देश में हिंदू हृदय सम्राट हैं. और सत्ता का सुख भोग रहें हैं। इस तरह से कांग्रेस का पतन का कारण खुद उसकी खुद की नीतियां रहीं हैं।
मुज़फ्फरनगर दंगों के समय भी केंद्र और राज्य दोनों में तथाकथित सेक्युलर पार्टियों की ही सरकारें थी लेकिन उन्होंने मुसलमानों का खून बहने दिया। मैं अखिलेश यादव को उसी तरह मुज़फ्फरनगर दंगो का दोषी मानता हूं, जिस तरह अन्य मुसलमान नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगो का दोषी मानते हैं।
जिस प्रकार से नरेंद्र मोदी ने गुजरात दंगों को रोकने में ढीला रवैय्या अपनाया, ठीक वैसी ही भूमिका मुज़फ्फरनगर दंगों के वक्त अखिलेश यादव की थी। जहां एक तरफ मुसलमानों को दंगों के कारण घर छोड़ कर भागना पड़ा। वहीं, दूसरी तरफ अखिलेश के गाँव सैफई में बड़ा महोत्सव आयोजित हो रहा था, जिसमे बॉलीवुड के बड़े-बड़े स्टार आए हुए थे। कहा जाता है अखिलेश के इसी रवैये से समाजवादी पार्टी के बड़े नेता आज़म खां उनसे नाराज़ भी हो गए थे।
ये तथाकथित सेक्युलर पार्टियां मुसलमानों की हमदर्द बनती हैं और इसी मुस्लिमपरस्ती का चोला ओढ़ कर मुसलमानों और अल्पसंख्यकों का खून बहाती हैं। यहां तक कि काँग्रेस के बड़े नेता सलमान खुर्शीद ने भी यह माना कि उनकी पार्टी के हाथ मुसलमानों के खून से सने हुए हैं।
देश के मुसलमानों के सामने इनकी खुली सच्चाई होते हुए भी वे इन्हें सेक्युलर पार्टियां मानते हैं और भाजपा को अपना दुश्मन समझते हैं। जबकि भाजपा के नेता मुसलमानों को जो कुछ कहना होता है, सामने से कहते हैं। इन पार्टियों की तरह मुसलमानों का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं करते।
जबसे भाजपा की सरकार बनी है, मै मानता हूं तबसे धार्मिक और राजनीतिक अल्पसंख्यकों के लिए डर का माहौल है। साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को जिन पर आतंकवाद का आरोप है, उन्हें चुनाव लड़वाया जा रहा है। बाराबंकी के भाजपा प्रत्याशी तो यह तक कह देते हैं कि अगर मुसलमानों को खत्म करना है तो भाजपा को वोट दो।
खैर, हमें इस माहौल को खत्म करना है इसके लिए हम उस पार्टी को फिर से सत्ता नहीं दे सकते जिसने इसकी शुरुआत की थी। हम फिर से काँग्रेस का समर्थन नहीं कर सकते हैं। भाजपा ने तो काँग्रेस द्वारा पैदा की गई धार्मिक हिंसा को बस बढ़ाया है।
आज काँग्रेस पार्टी जब यह कहती है कि भाजपा अपने राजनीतिक विरोधियों से बदला लेने की भावना के तहत उन्हें देशद्रोही कहकर जेल भिजवा देती है, तो मुझे जय प्रकाश नारायण, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव औक सफदर हाशमी की याद आ जाती है।
आज़ादी से लेकर अब तक मुसलमानों का राजनीतिक नेतृत्व इतना कम नहीं था, जितना कि अब है। यानि कि जो तथाकथित सेक्युलर दल हैं, उन्होंने ही मुसलमानों को अनदेखा किया है। वैसे भी भाजपा के नेता खुल कर कहते हैं कि हमे मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए फिर मुसलमानों को टिकट ही क्यों देने लगे।
चुनाव नज़दीक आते ही मुसलमानो में वे मौलाना जो कौम के बहुत फिक्रमंद बनते है, वे भी बाहर आ जाएंगे और मस्जिदों में बताएंगे कि फलां पार्टी को वोट देना, वह हमारी कौम की हिमायती हैं।
मौलाना साहब हमें पता है आपने उसी पार्टी से पैसे खाएं हैं क्योंकि अगर आपको मुसलमानों की इतनी फिक्र होती तो आप और आपके वे फिक्रमंद नेता 5 साल तक मुसलमानों को अपने हाल पर छोड़ कर नहीं जाते और आप गरीब मुसलमानों के चंदे के पैसे से अपना घर नहीं चला रहे होते।
मैं यह बताना चाहता हूं कि भाजपा को हराने में इतना अंधा भी नहीं होऊंगा कि किसी भी पार्टी को वोट दूं, जिसके हाथ खून से सने हुए हैं। खैर, मैं इस बार पहली बार मतदान करूंगा और नोटा का बटन दबाऊंगा।