खबर है कि महाराष्ट्र में अलग-अलग जाति के लड़के और लड़की ने आपस में विवाह रचाया था पर इससे नाराज़ लड़की के परिवारवालों ने अब शादीशुदा दंपत्ति को एक घर में बंद करके आग के हवाले कर दिया।
इस घटना में लड़की की जलकर मौत हो हई मगर उनकी जातियां हमेशा जीवित रहेंगी। अब इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में धर्म से ऊपर जाति है। जाति के साथ भेदभाव खड़ा है और भेदभाव के साथ ऊंच-नीच खड़ी है। यही कारण है कि हमें ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं।
जाति वह ठप्पा है, जो इंसान के मरने के बाद भी नहीं जाता
मेरा लेख अभी खत्म नहीं हुआ बल्कि ऊपर की पांच लाइन आज सिर्फ शीर्षक समझी जाये। अब आगे बढ़ते हैं, असल में इंसान के साथ जाति वह ठप्पा है, जिसे इंसान ना चाहते हुए भी लेकर पैदा होता है और यह ठप्पा मरकर भी पीछा नहीं छोड़ता। यह भी कह सकते हैं कि जाति वह मीठा गुड है, जिसे अनेक लोग चुपचाप मुंह में लेकर इसका स्वाद लेते हैं तो अनेक लोगों के लिए जाति एक भुने हुए आलू की तरह भी है, जो कई बार हलक में चिपक जाती है।
कुछ साल पहले मेरी एक मोबाइल की दुकान थी, उसमें मोबाइल के दो मैकेनिक थे। एक नया लड़का आया, उसे भी हमने नौकरी पर रख लिया। उस नए मैकेनिक का नाम था प्रवेन्द्र। दोपहर लंच टाइम की बात है, हम सब अपना टिफिन बॉक्स खोलकर बैठे, तो वह सबसे अलग बैठ गया। मैंने पूछा, “क्या हुआ भाई प्रवेन्द्र इधर ही आजा”। इस पर उसने जवाब दिया, “नहीं मैं यहां ठीक हूं और वैसे भी मैं दलित हूं”। सच कहूं तो दलित शब्द उसके हलक से मानो चिपककर निकला हो।
हमने कहा किसने कहा तुम दलित हो? उसने कहा मेरे माता-पिता से लेकर सब सरकारी कागज़ों में मुझे यही बताया गया कि मैं दलित हूं। हमने बिना कोई प्रति उत्तर दिए उसका खाना उठाया, उसे अपने पास बैठाया फिर सबने साथ खाना खाया। इसके बाद कई साल हमने साथ मिलकर काम किया। यह कोई एहसान नहीं था बल्कि उसके दिमाग से यह हीन भावना खत्म करने की कोशिश थी, ताकि वह दोबारा ऐसा फील ना करे।
अंतरजातीय विवाह पर समाज के ताने
अब मेरा ब्लॉग यहां से शुरू होता है, असल में जब हम जातिवाद की बात करते हैं तो कई चीज़ें कोसने को भी मिल जाती हैं। कई प्राचीन ग्रंथों को लेकर चार गाली दी जाती हैं। अंतरजातीय विवाह कर लिया तो हम समझते हैं कि हमने जातिवाद खत्म कर दिया? लेकिन जब एक अंतरजातीय विवाह होता है तो आप क्या समझते हैं कि हमारा समाज उसको एकदम से स्वीकार कर लेता है, नहीं। दोनों परिवारों को ताने मिलते हैं, उलहाने मिलते हैं, “जा तू मत बोल, अगर इतना बढ़िया होता तो लड़की फलानी जाति के लड़के के साथ ना भागती”, ऐसा ही कुछ हाल लड़के वालों के साथ होता है, “जा तू समाज में बोलने लायक नहीं है, अगर तेरा परिवार इतना अच्छा होता तो लड़की गैर जात से ना लानी पड़ती”।
इस तरह के तानों से ही कई परिवार ऐसे कदम उठाने को मजबूर होने लगते हैं, जो कि अपराध है, जैसा कि महाराष्ट्र में सुनने को मिला। हम कितना भी आधुनिक होने का दंभ भरे लेकिन आज भी हमारे देश में विवाह और वोट अपनी ही जाति में देने की सोच बनी हुई है।
अंतरजातीय विवाह के बाद बच्चे की जाति पर विवाद
यहां समस्या और भी है, मान लो एक लड़की X जाति की है और एक लड़का जो Y जाति से है। दोनों ने जाति बंधन तोड़ते हुए शादी कर ली। यहां तक सही है लेकिन इसके बाद जो बच्चे पैदा होंगे वो किस जाति के होंगे? उन्हें स्कूलों और सरकारी सामाजिक भाषा में माता या पिता आखिर किसकी जाति का कहा जा जायेगा? क्या जाति खत्म हो गयी?
मेरा कहने का अर्थ यह है कि पहली बात तो भारतीयों की नसों में जाति बहुत गहराई तक बसी हुई है, इसे इतनी जल्दी खत्म नहीं किया जा सकता है।
अभी कई रोज़ पहले मैट्रो में मेरे बगल में एक सज्जन बैठे थे, वो यूट्यूब पर किसी मूल निवासी मंच का भाषण सुन रहे थे और बार-बार मेरी और देख रहे थे। फिर उनसे रुका नहीं गया और मुझसे मेरा नाम पूछा। मैंने कहा, “राजीव”, इसके बाद उन्होंने मेरा सर नेम पूछा। मैं बस मुस्कुरा दिया। असल में वह मेरी जाति जानना चाह रहे थे, ताकि फिर वो मुझसे उसी हिसाब से बात बता सके।
खैर, मैं बता रहा था, जब कोई हज़ारों साल पुरानी परम्परा टूटती है, तो वह बिना किसी आहट या शोर के नहीं टूटती। अभी तो खाई बहुत गहरी थी ही लेकिन जिस तरह जातिवादी संगठन और जातिवादी पार्टियां हर रोज़ जन्म लेकर समाज में द्वेष पैदा कर रही हैं, क्या आपको लगता है ये जातिवाद खत्म होने देंगे?
विभिन्नताओं में कोई बुराई नहीं है, समाज में विभिन्नता होती भी हैं मगर हम हर इन विभिन्नताओं को भेदभाव में बदलने की कोशिश करते हैं। इसी का नतीजा है कि भारतीय जाति व्यवस्था एक सड़ी हुई व्यवस्था बन गई है। इसे काम के आधार पर ऊंचा नीचा तक बना डाला जबकि एक समय प्रशिक्षण केंद्र नहीं थे।
जब कोई प्रशिक्षण केंद्र नहीं था, तब आपका परिवार ही आपको प्रशिक्षण देने का इकलौता ज़रिया था। तब जो काम बाप करता था, वही बेटा करने लगता था। समय के साथ लोगों ने इस पारिवारिक कौसल को जाति बना डाला और कुछ लोगों ने इसमें भेदभाव खड़ा कर दिया।
इस कड़ी में सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि आज हमें जातियों को कोसना छोड़ना होगा कि किसने क्या किया, किसने कितना शोषण किया। ये अतीत के अध्याय हो सकते हैं, भविष्य की रूपरेखा बिलकुल नहीं। बस जातियों से ऊंच-नीच का भेदभाव मिट गया तो समझो युवाओं ने पहली जंग जीत ली। इसके बाद खूब विवाह करो शायद कोई परेशानी सामने नहीं आएगी। वरना कोसते रहो कथित नीचे वर्ग के लोग कथित उच्च वर्ग को, अपनी सभी परेशानियों का कारण उन्हें बताते रहो और कथित उच्च वर्ग भी कभी आरक्षण के नाम पर तो कभी किसी और बहाने से दूसरे वर्ग को नीचा दिखाने के लिए कोसते रहो, कुछ हल नहीं होगा।
अंत में बस यही है कि हमें वर्षों से यह तो सिखाया गया कि सब धर्म बराबर होते हैं, काश हमें यह भी सिखाया गया होता कि सभी जातियां भी बराबर होती हैं, तो आज हमें ऐसी खबरें सुनने को ना मिलती।