देश के 17वें लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने जिन दो राज्यों पर राजनीतिक बाज़ी मज़बूती के साथ खेली थी, उनमें ओडिशा और पश्चिम बंगाल प्रमुख राज्य थे। नवीन बाबू के किले में भारतीय जनता पार्टी की तमाम कोशिशें सेंध नहीं लगा सकी, वह पाचंवी बार उड़ीसा के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। परंतु, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के किले में सेंध लगाने में भारतीय जनता पार्टी की कोशिशें कामयाब हो गईं।
सत्ताधारी दल के सामने घुटने टेक चुका मुख्यधारा की मीडिया ने भी पश्चिम बंगाल में घट रहे घटनाक्रमों को पल-पल दिखाते रहने की कोशिश की। उस हिसाब से ओडिशा की खबरें सोशल मीडिया में अधिक और मुख्यधारा की मीडिया में कम देखने को मिली।
किसी भी सियासत में आरोप-प्रत्यारोप आम बात है लेकिन पश्चिम बंगाल में टीएमसी और बीजेपी जिस तरह से आमने सामने थी, उसे मुख्यधारा की मीडिया ने जनता के लिए दिलचस्प बना दिया।
कोई भी चुनावी पंडित इस बात का आंकलन बड़ी आसानी से कर सकता है कि मुख्यधारा की मीडिया का बंगाल के प्रति अधिक मेहरबान होना, समाचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता नहीं बल्कि समाचार देख रहे लोगों में पश्चिम बंगाल की सत्ता के बारे में परसेप्शन बनाना ही था।
2015 में बिहार विधानसभा में महागठबंधन से हार के बाद मुख्यधारा मीडिया ने बिहार को लेकर यही किया था। परंतु जैसे ही वहां भाजपा गठबंधन की सरकार बनी, बिहार की खबरें मुख्यधारा की मीडिया से गायब हो गईं।
जनादेश के लिए घुटने टीकाने की कोशिश
लोकतंत्र में सत्ता को सेवा का ज़रिया कहा गया है। वैसे, ऐसी उम्मीद तो देश को अब ज़्यादा रही नहीं, अलबत्ता सत्ता अगर शोषण का ज़रिया बन जाए, तो चिंता ज़रूर होनी चाहिए। पश्चिम बंगाल में 70 के दशक में सत्ता पाने के लिए जिस तरह से गरीबों और बेरोज़गारों की फौज़ की जान का इस्तेमाल किया गया था, आज की तारीख में हर राजनीतिक दल द्वारा वही काम किया जा रहा है।
इसमें कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है। पश्चिम बंगाल में चुनाव के पहले और चुनाव के समय जो भी हिंसा की खबरें देखने को मिलीं, उसी के दम पर परसेप्शन बनाने की राजनीति भाजपा की थी, जिसमें उन्हें कामयाबी भी मिली।
कुल जनादेश का एक बड़ा हिस्सा उनकी झोली में गिरा और आहत हुआ बंगाल के लोगों का “सोनार बंगला, अमार बंगला”, जनादेश के लिए घुटने टिकाने का यह इतिहास पश्चिम बंगाल का पुराना रहा है।
क्या ममता लेकर आई पश्चिम बंगाल में हिंसा की संस्कृति?
आज जो कुछ पश्चिम बंगाल में हो रहा है, उसके लिए ममता की सरकार को ज़िम्मेदारी मुक्त नहीं किया जा सकता लेकिन एक सच यह भी है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में जब जो सत्ता में रहा, उसी ने हिंसा को हथियार बनाया और जबरन जनादेश हथियाने की कोशिश भी की।
1972 में राज्य में काँग्रेस ने विधानसभा चुनाव जीतकर यहां अपनी सरकार बनाई। इस चुनाव को भारी चुनावी गड़बड़ी और धांधली के लिए जाना गया। इसके बाद 1977 में यहां लेफ्ट की सरकार आई और करीब अगले 34 साल तक राज्य पर शासन किया।
2011 में जब पश्चिम बंगाल से वाम की विदाई हुई, तो यहां गरीबी और बेकारी देश के ज़्यादातर हिस्सों से ज़्यादा थी और राजनीतिक हिंसा एक संगठित तंत्र की तरह काम कर रही थी।
पश्चिम बंगाल की राजनीति में जिस चीज़ में कोई बदलाव नहीं दिखता है, वो यह है कि जिन विषयों को मुख्य मुद्दा बनाकर राजनीतिक पार्टीयों ने पुरानी सरकारों को उखाड़ फेंका, उन्हीं मुद्दों को आने वाली सरकारों ने भाव नहीं दिया। गोया, वही मुद्दे उनके सरकार में टिके रहने के फॉर्मूले सिद्ध हुए। वे मुद्दे हैं- गरीबी और बेरोज़गारी।
राजनीतिक पार्टियां गरीबों और बेरोज़गारों के बल पर कैडरों की अपनी फौज़ तैयार करती है। समय-समय पर उन्हें छोटे-मोटे रोज़गार के साधन उपलब्ध करा देती है। पहले लेफ्ट की सरकारों ने यह किया, अब ममता सरकार भी यही कर रही है। भाजपा ने गरीब और बेरोज़गार के इस फौज़ में हिंदू-मुस्लिम का विभाजन करा दिया, जो अभी तक कभी पश्चिम बंगाल में देखने को नहीं मिली थी फिर चाहे वह काँग्रेस की सरकार हो, लेफ्ट की सरकार हो या टीएमसी की ही सरकार क्यों ना हो।
पश्चिम बंगाल के जो चुनावी परिणाम सामने आए हैं, उससे ममता बनर्जी आहत हैं। उन्होंने कहा है कि सेंट्रल फोर्सेज़ ने हमारे खिलाफ काम किया है। राज्य में आपातकाल जैसी स्थिति बना दी गई है। हिंदू-मुस्लिम के बीच बंटवारा हो गया है और हमारा वोट बट गया है। खबरें आ रही हैं कि अपने बंगले पर आपातकालीन बैठक में उन्होंने मुख्य़मंत्री पद से इस्तीफा देने की बात करते हुए कहा है कि मैं मुख्यमंत्री के तौर पर काम नहीं करना चाहती हूं।
ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में आठ साल से सरकार में हैं। लेफ्ट के खिलाफ लंबे संघर्ष के बाद वह यहां तक पहुंची हैं। लेफ्ट के लंबे शासन में जो बुराईयां थीं, उन्हें दूर करने में आठ साल उन्होंने क्या किया है, इस सवाल का उनके पास बहुत से ज़वाब हो सकते है। परंतु, पश्चिम बंगाल की राजनीति में ज़ोर-ज़बरदस्ती को रोकने में वह कामयाब नहीं हो सकी हैं। इसके लिए दोषारोपण किया जा सकता है मगर यहीं उनके खिलाफ भी जाता दिख रहा है।
आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं। हमेशा चुनाव के मोड में रहनी वाली भाजपा वहां के जनादेश को अपने पक्ष में करने की कोशिश करती दिखेगी, जिसका टीज़र उन्होंने अभी ही दिखा दिया है।
ममता बनर्जी अगर इसका कोई काट नहीं खोज पाती हैं तो पश्चिम बंगाल के अवाम ने जिस तरह वाम का साथ छोड़ा था, उसी तरह दो पत्ती एक फूल को छोड़कर केवल कमल फूल का दामन पकड़ सकती है। मुख्य सवाल यह भी है कि गरीबी, बेरोज़गारी और दंगों से आहत “सोनार बांग्ला, आमार बांग्ला” का क्या? जिसका सीना विधासागर की मूर्ति टूटने से भी आहत है और हिंदू-मुस्लिम के सोशल फ्रेब्रिक के टूटने से भी।