1952 का पहला चुनाव याद करिए जब जवाहर लाल नेहरु प्रधानमंत्री बने थे और हर तरफ उनका बोलबाला था। उन्होंने इतिहास रच दिया था। जनता उनकी एक झलक देखने के लिए बेताब रहती थी। उनके भाषण सुनने लोग दूर-दूर से आते थे। उनका स्वर्णिम दौर 12 वर्षों तक चला फिर वह अध्याय खत्म हो गया।
इतिहास के उन पन्नों को भी टटोलिए जब लाल बहादुर शास्त्री के देहांत के बाद इंदिरा गाँधी सत्ता में आती हैं और पूर्ण बहुमत से दो बार लगातार सरकार बनाती हैं। उस वक्त देश की जनता ने यह मान लिया था कि इंदिरा गाँधी वह नेता हैं जो उनकी सारी परेशानियां दूर कर देंगी और देश के दुश्मनों को धूल चटा देंगी। इंदिरा गाँधी के रूप में जनता को एक ताकतवर नेता मिल चुकी थी।
इंदिरा का आपातकाल
इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस पार्टी के आगे सभी पार्टियां नाकाम साबित हो रही थी। काँग्रेस के लिए सब कुछ सही चल रहा था। उनके पास प्रचंड बहुमत थी। देश तरक्की पर था और भारत का नाम विश्व में स्थापित हो रहा था। इन सबके बीच अचानक इंदिरा गाँधी ने अनुच्छेद 352 का इस्तेमाल करके देश में इमरजेंसी लगा दी। इसके बाद जनता के अंदर भारी रोष आ गया और जनता जिस इंदिरा गाँधी को देखने और सुनने के लिए तरसती थी, वह अब उनके लिए कुछ और राग अलाप रही थी।
इसके बाद आंदोलन से उपजी जनता पार्टी का दौर आया और वह भी मात्र तीन साल में चल बसा फिर इंदिरा जी की वापसी होती हैं। उनकी हत्या के बाद राजीव गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस को फिर प्रचंड बहुमत मिलता है। हर तरफ राजीव गाँधी का बोलबाला होता है।
जनता को लगा कि इंदिरा गाँधी के बाद उन्हें अपना नेता मिल गया जो देश को उत्तर से लेकर दक्षिण तक सुरक्षित रखेगा फिर अचानक बोफोर्स घोटाला सामने आता है और जनता राजीव गाँधी का चेहरा तक देखना नहीं चाहती है। भारत के लोकतंत्र में यह चक्र चलता ही रहता है।
23 मई 2019 की जीत से जो लोग आने वाले 50 वर्षों का भविष्य निर्धारण करने की बात कर रहे हैं, उसे केवल कल्पना का नाम दिया जाए तो बेहतर होगा। भारत की जनता लोकतंत्र में अपने वोट देने के अधिकार को बखूबी समझने लगी है।
इसलिए बेहतर होगा कि हम नव निर्मित सरकार से उसके पिछले 5 वर्षों के काम का ब्योरा और अगले 5 वर्षों के काम का प्रारूप मांगे क्योंकि सरकारें तो आती-जाती रहेंगी मगर जीत के जश्न में मुद्दों का लुप्त होना खतरनाक है।