आज़ाद भारत में आधी आबादी के हेल्थ पर गंभीर बहस गर्भवती महिलाओं के पोषण को लेकर मिलती है क्योंकि बच्चे का समुचित पोषण माँ के आहार से जुड़ा है। इसकी मुख्य वजह यह है कि महिलाओं के पोषण पर ही होने वाले बच्चे का पूरा स्वास्थ्य निर्भर है।
इससे इतर महिलाओं के हेल्थ पर गंभीर बहस की शुरुआत 80 मध्य के दशकों में उस समय देखने-सुनने को मिली जब इस बात का पता चला कि आधी आबादी की मृत्यु दर लगातार बढ़ने का कारण माहवारी की समस्या और उससे जुड़े टैबूज़ हैं।
इसके पीछे की वजह समाज में खामोशी के साथ-साथ पुरातन प्रवृत्ति की सोच है। थोड़ी देर के लिए हम आधी आबादी से जुड़ी जैविक स्वास्थ्य समस्याओं और उससे संबंधित जागरूकता के सवालों को अलग रख दें, तो वास्तव में माहवारी से जुड़ी समस्या भारतीय समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिकता से बनाया गया समाजीकरण का वह बोझ है कि समझदार से समझदार लड़कियां भी इससे मुक्त नहीं हो पाती हैं।
ध्यान रहे पूरे भारतीय संस्कृति में लड़कियों के प्रथम माहवारी के समय विविधता-पूर्ण तरीके से उत्सव मनाने की परंपरा मौजूद रही है। यह उत्सव जातीय, धार्मिक, भाषायी और क्षेत्रीय आधार पर अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है।
आर्थिक असमनता के कारण भी इसमें विविधता देखने को मिलती है मगर भारतीय समाज में शायद ही कोई लड़की इससे मुक्त हो पाती है।कुछ महिला साथियों का कहना है कि माहवारी को लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिकता की जकड़बंदी इतनी गहरी है कि वह चाहकर भी इस गुलामी के बोझ को ढोने पर विवश हैं।
वह इस बोझ से मुक्ती चाहती हैं मगर शुद्धता-अशुद्धता की जो नैतिकता बचपन से ठूंस-ठूंस कर उनके अंदर भरी गई है, वह इस दास्तां से मुक्त नहीं हो पाती है मगर शायद वे आने वाली पीढ़ी को इससे मुक्त कर सके।
माहवारी की समस्या समझने की है ज़रूरत
भारतीय समाज में स्त्रीत्व के विकास की प्रक्रिया में मौजूद जटिलता समझे बगैर या उसको अनदेखा करते हुए, माहवारी की समस्या को समझने की कोशिश करना अंधेरे में तीर मारने के जैसा है। यह समझना भी ज़रूरी है कि वह कौन सी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से लड़कियां अपनी खास भूमिका को अपने अंदर आत्मसात करने लगती हैं या खास तरह की रणनीतियां अपनाने को बाध्य होने लगती हैं।
आधी आबादी की दुनिया में यह एक ऐसा उत्सव है, जो अपने पूरे समाजीकरण की प्रक्रिया में लड़कियों को इस विषय पर मौन रहने के साथ-साथ तमाम नैतिक वर्जनाओं के पालन करने का फरमान जारी करती है। अगर बेहतर सामाजिक परिवेश में कुछ लड़कियां इसके नैतिक वर्जनाओं से मुक्त भी हैं, तब भी इससे जुड़े पर्याप्त एंटेशन नहीं मिलने और कभी-कभी अधिक एंटेशन मिलने के कारण भी एलिनेशन की अवस्था में आ जाती हैं।
बचपन से एक खास किस्म का माहौल
समाजीकरण के पूरे परिवेश ने आधी आबादी की लड़कियों को माहवारी के दौरान केयरिंग के साथ-साथ खामोश रहने के नैतिक नियमों के साथ बड़ा किया जाता है। लड़कियों के समाजिकरण में अपनी इच्छाओं के प्रति झुकना और दूसरे परिवारजन्य की इच्छा के प्रति समर्पण, विनम्रता और कई गुणों के विकास में सांस्कृतिक मापदंड़ों की बड़ी भूमिका है।
आधी आबादी की लड़कियों की पूरी दुनिया माहवारी के विषय पर कई सांचों में बंटी हुई हैं। भारतीय संस्कृति में लिंगगत विषमता का नैतिक या मर्यादित पाठ आधी आबादी के लिए अधीनता के उस क्षेत्र का निमार्ण करती है, जो लड़कियों के लिए कई बंदिशें तैयार करती हैं।
अगर वह उसका विरोध या उसपर असंतोष भी व्यक्त करती हैं तो अभाव व स्वयं के पहचान की शक्ति तथा सामाजिक सत्ता का पूरा तंत्र उसके अपने जीने के लिए अलग स्पेस का निर्माण नहीं होने देता है और वह विलगाव यानि एलिनेशन में जाने को मजबूर होती हैं।
जाहिर है आधी आबादी की पूरी दुनिया के लिए माहवारी का विषय सांस्कृतिक-सामाजिक और नैतिक मापदंडों की समस्या का निदान सिर्फ सैनिटरी नैपकिन की उपलब्धता से जुड़ा हुआ नहीं है। यह अपने साथ-साथ कई समस्याओं की वह छतरी है, जो आधी आबादी के किसी भी सदस्य को स्वतंत्र मानवीय इच्छाओं के साथ जीने की स्वतंत्रता नहीं देता है।
सैनिटरी पैड्स की उपलब्ध्ता समस्या का समाधान नहीं
आधी आबादी को सीमाबद्ध किए जाने और अलगाव के कई रूप और पैर्टन हैं, जो स्वतंत्र रास्ते का चुनाव करने ही नहीं देते हैं। आधी आबादी के जैविक गुणों को इस तरह गहरे मानसिकता के साथ रचा गया है कि वह एक उर्वर धरती है, जिसपर बीज का अंकुरण ही उसकी नियती है।
इस यथास्थिति में मुख्य सवाल यह होना चाहिए कि जिस सामाजिक संरचना ने आधी आबादी के कंधों पर सामाजिक-सांस्कृतिक और नैतिकता का बोझ डाल रखा है, क्या सिर्फ सैनिटरी पैड्स सहज रूप से उपलब्ध करवा कर हम समस्या का खात्मा कर सकते हैं?
क्या सैनिटरी पैड्स का उपयोग बढ़ जाने से हम आधी आबादी के कंधों पर डाला गया सामाजिक-सांस्कृतिक और नैतिकता का बोझ कम कर सकते हैं? यह सही है कि माहवारी के टैबूज़ का विखंडन करके और पैड्स सहज उपलब्ध करवाकर हम आधी आबादी की मृत्यु-दर का आंकड़ा कम कर सकते हैं। सार्वजनिक स्पेस में माहवारी के वर्जनाओं के बिखरने से आधी आबादी की भागीदारी बढ़ सकती है।
परंतु, उन सांस्कृतिक-सामाजिक-नैतिक मान्यताओं का क्या जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आधी आबादी के नए सदस्यों के ज़हन में डाल दिया जा रहा है। जो किसी सार्वजनिक स्पेस में यूज़ पैड्स को देखकर वहां मौजूद लड़कियों के कपड़े तक उतवारा देता है।
स्कूलों में लड़कियों के निजता का उल्लंघन
राज्य और सरकार के पूरे तंत्र की उन मानसिकताओं का क्या जो स्कूल-कॉलेज और गर्ल्स हॉस्टलों में सैनिटरी पैड्स तो उपलब्ध करवाता है मगर डेट के साथ रजिस्टर में लड़कियों को हस्ताक्षर करने पर मजबूर करता है, क्या यह लड़कियों की निजता का सरेआम उल्लंघन नहीं है?
जाहिर है राज्य सत्ता और सरकारी तंत्र हर तरह की तकलीफों का उपाए एक पेन किलर की गोली से खोजने की कोशिश कर रही है। वह अपने पूरे शासकीय और सामाजिक व्यवहार में आधी आबादी के पीरियड्स की समस्या को एक जैविक समस्या मान रही है, जबकि समस्या इतनी गहरी है कि वह आधी आबादी की पूरी अस्मिता को सूली पर टांगे हुए है।
समाधान के लिए कुछ ज़रूरी सुझाव-
- लड़कियों की पहली माहवारी के समय से ही सखीपन के माहौल में उचित तर्कपूर्ण काउंसलिग की जा सकती है या फिर स्कूली और घर के पूरे समाजीकरण की प्रक्रिया को शामिल किया जा सकता है।
- सांस्कृतिक उत्सव अगर जैविक विशेषता को परिभाषित कर रहे हैं तो समाजीकरण का मानवीय पक्ष उसकी महत्ता के साथ-साथ आधी आबादी की स्वतंत्र अस्मिता को पुनर्परिभाषित कर सकते हैं।
- इसके साथ-साथ समाजिक संस्थाएं, परिवार और नातेदारी को भी अपने समाजीकरण की पूरी प्रक्रिया को नए तरीके से पुनर्परिभाषित करना होगा क्योंकि यही वह जगह है, जहां नई नैतिकताओं का निर्माण होता है और पुरानी नैतिकता को ध्वसत किया जाता है।
- मूल रूप से यह समझना ज़रूरी है कि आधी आबादी के लिए माहवारी जैविक स्वास्थ्य संबंधित जागरूता की समस्या के साथ-साथ सांस्कृतिक-सामाजिक और नैतिक मूल्यों की समस्या भी है।
- इसके एक पक्ष के इलाज से पूरी समस्या को अनदेखा करने जैसा है। इस दिशा में मूलभूत बदलाव के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक और नैतिक स्तर पर समाजिक व्यवहार के संदर्भ में कुछ कदम उठाने भी ज़रूरत है।