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“अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए चालाकी से काम करता है ब्राह्मणवाद”

ब्राह्मणवाद

ब्राह्मणवाद

डॉक्टर पायल
डॉक्टर पायल। फोटो साभार: Getty Images

जाति के आधार पर एक और ज़िंदगी चली गई। भील जाति से आने वाली डॉक्टर पायल तड़वी का उन्हीं के साथ काम करने वाले लोगों ने जाति के नाम पर काफी शोषण किया, जिसके बाद कथित तौर पर उन्होंने आत्महत्या कर ली। जिस रोज़ देश में चुनाव परिणाम की घोषणा हो रही थी, उसी रोज़ पायल ने अपनी ज़िन्दगी खत्म कर ली।

इस बेहद शर्मनाक घटना के बाद तीन लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज़ करवाई गई है और खबर है कि उन्हें अभी तक गिरफ्तार नहीं किया  गया है। पायल अपने समाज से आने वाली पहली महिला थी, जो उच्च शिक्षा प्राप्त करते हुए अपने समाज के लोगों के लिए काम करने का सपना देख रही थी मगर इस समाज के तथाकथित सवर्णों को एक आदिवासी लड़की की तरक्की पसंद नहीं आई और उसे अपनी जान देने के लिए मजबूर कर दिया गया।

जाति व्यवस्था को समझने के लिए हमें यह ज़रूर स्वीकार करना होगा कि यह हिन्दू धर्म में बनी एक वर्ण व्यवस्था है, जिसमें गैर-लोकतांत्रिक तरीके से कुछ चीज़ों को नियम बना दिया गया है।

जाति व्यवस्था ने हमारे देश के लोकतंत्र को खोखला करने के अलावा और कुछ नहीं किया है। इसे चलाने वाले कुछ उच्च जाति के ब्राह्मण लोग हैं, जो कई लोगों का हक खाकर केवल जाति के आधार पर आज देश की बड़ी कुर्सियों पर बैठ गए हैं। आज़ादी के बाद सामाजिक न्याय के लिए आरक्षित सीटों का प्रतिबंध करना काफी अच्छा फैसला था लेकिन जब एक गरीब और पिछड़ा व्यक्ति अपने मुकाम को हासिल भी कर लेता है, तो उसे ब्राह्मणवादी लोग जीने नहीं देते हैं।

फोटो साभार: Getty Images

बाबा साहेब के शिक्षित, संगठित और संघर्ष के नारे को चुनौती देने वाले लोग अभी भी मज़बूती के साथ सरकार में भी आ गए हैं, जो सामाजिक अन्याय को बढ़ा रहे हैं। सामाजिक लोकतंत्र की बात छोड़ भी दें तो राजनीतिक लोकतंत्र भी अब दलितों को हासिल नहीं हो पा रहा है। इसे आप इस समय के चुनाव में भी देख सकते हैं, जिसमें दलित काफी सीमित संख्या में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और दलितों के ऊपर हिंसात्मक घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।

आज जहां 2020 तक भारत की राजधानी दिल्ली में पानी की कमी होने के संकेत हैं और देश के कई क्षेत्रों में पानी की किल्लत देखने को मिल रही है, वहीं आज भी जाति के आधार पर दलितों की बारातों को पुलिस की मदद से आगे जाना पड़ रहा है और बहुसंख्यक लोग उनका रास्ता रोक रहे हैं।

ऐसे समय में हमारे देश के सैनिकों की जान के नाम पर बहुसंख्यकों का दिल जीतते हुए इतनी बड़ी जीत हासिल करना कहीं ना कहीं देश की व्यवस्था और लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा करता है। जब तक बहुसंख्यकों के दिल में अल्पसंख्यकों के प्रति प्यार नहीं दिखाई पड़ेगा तब तक जातिवाद का खात्मा संभव नहीं है। इसकी पहल सबसे पहले बहुसंख्यकों को ही करनी होगी।

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

इतिहास को गलत बताने का एक बड़ा फायदा यह होता है कि इसे एक वर्ग जो काफी ज़्यादा शक्तिशाली है, वह अपने शासन को मज़बूत करने के लिए झूठ का इस्तेमाल करता है। इसी प्रकार से आज के दौर की कुछ सरकारें पिछले कई सालों में आई हैं, जिन्होंने देश के इतिहास को खत्म करने के लिए काम किया है।

तथ्यहीन बातें ना केवल समाज को बल्कि एक लोकतंत्र को भी खत्म करने का काम करती है। भारत में जाति की राजनीति एक बड़े वोट बैंक का काम करती है लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद जिस तरह से कहा जा रहा है कि लोगों ने जातिवाद के खिलाफ वोट किया है, वह सही नहीं है।

यह जीत केवल बहुसंख्यक की जीत है, जो आज़ादी से पहले से लेकर आज़ादी के बाद तक देश में राज करता रहा है। किस तरह से बहुसंख्यक को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया गया, इसे चुनावी नतीज़ों से हम समझ सकते हैं।

चालाकी के साथ काम करता है ब्राह्मणवाद

जाति व्यवस्था के उन्मूलन में सबसे अधिक प्रभाव बुद्ध ने किया था। एक सदी में जब ब्राह्मणवाद जब काफी तेज़ी से फैल रहा था, तब बुद्ध ने लोगों को एक नया रास्ता दिखाया। उस दौर में ब्राह्मण का आहार पशु बलि होता था, जिसके कारण कई बौद्ध ग्रंथो में लिखा गया कि पशु की संख्या में कमी आनी शुरू हो गई है।

ब्राह्मणों ने कर्मकांडों के ज़रिये जानवरों की बलि देना आरम्भ किया, जिसके बाद बौद्ध धर्म द्वारा इसका विरोध शुरू हो गया। आलम यह हुआ कि अशोक के काल तक-आते आते पशु हत्या को पूरी तरह से बंद कर दिया गया। यह बात ब्राह्मणों को रास नहीं आई और उन्होंने अपने आप को शुद्ध शाहकारी बना लिया।

उस दौर में सबसे अहम घटना हुई कि बौद्ध भिक्षु जो अपना भोजन मरी हुई गाय से करते थे (आज भी बुद्ध को मानने वाले देशों में गाय को खाया जाता है) उनको नीचा दिखाने के लिए गाय को धार्मिक रूप से जोड़ दिया गया। अब भी वे गाय खाने की आदत को छोड़ नहीं पाए और समाज में नीच वर्ग में आने लगे।

फोटो साभार: Twitter

आगे चलकर इन्हीं लोगों को अछूत की संज्ञा दे दी गई। इतिहास में इस वर्ग ने अपनी सत्ता को समाज में बनाए रखने के लिए कई दांव-पेच खेले। चाहे वह मुगलों के दौर में साथ मिलकर राज करना रहा हो या अंग्रेज़ों के साथ चाटुकारिता करनी हो।

सामाजिक रूप से अपने आपको बलशाली बनाने में इन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है। अंबेडकर ने अपनी ज़िन्दगी का आधा समय इस समाज को मुख्यधारा में लाने के लिए लगा दिया। आज़ादी के बाद भी अंबेडकर को संसद से लेकर मरने तक जाति का दर्द झेलना पड़ा था।

आज भी यह लोग छल के माध्यम से अपनी सत्ता और सामाजिक भेदभाव बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इसका उदाहरण रोहित वेमुला और पायल हैं मगर मैं पायल के लिए  इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि इस जातिवादी समाज के खिलाफ हमारी लड़ाई जारी रहेगी।

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