गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच एक गैर सरकारी संस्था है, जो बिहार के पटना ज़िले में ज़मीनी स्तर पर बदलाव हेतु कायर्रत है। यह संस्था फुटबॉल के माध्यम से किशोरियों के शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य कर रही है। फुलवारीशरीफ, पटना की रहने वाली प्रतिमा कुमारी वर्ष 2005 से माहवारी स्वच्छता के क्षेत्र में काम कर रही हैं।
प्रतिमा की शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी। उन्हें उस वक्त रिप्रोडक्टिव हेल्थ के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। पहले बच्चे की पैदाइश के समय उन्हें जानकारी ना होने की वजह से कई तरह की जनन समस्याओं से जूझना पड़ा। यही कारण है कि वर्ष 2005 से उन्होंने इस दिशा में काम करने का निर्णय लिया।
प्रतिमा की मानें तो महिला स्वास्थ्य सम्बन्धित जानकारी के अभाव में जो तकलीफ उन्हें झेलनी पड़ी, वह नहीं चाहती थीं कि किसी अन्य लड़की को भी उससे दो-चार होना पड़े। प्रतिमा ने शुरुआत में आइडीएफ (Integrated Development Foundation), शेखपुरा के साथ वालंटियर के तौर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सम्बन्धित एक प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया।
चार वर्षों बाद उन्होंने ‘गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच’ के नाम से अपनी एक स्वैच्छिक संस्था रजिस्टर्ड करवायी। इस संस्था का उद्देश्य लैंगिक विभेद, लैंगिक शिक्षा, महिला-पुरुष संबंध, यौन तथा योनिकता संबंधी मुद्दे और माहवारी जागरूकता आदि के बारे में लोगों को जागरूकता करना है।
इसके लिए वह पोस्टर्स, बैनर, ऑडियो-वीडियो क्लिपिंग आदि के जरिये सूचनाएं प्रदान करती हैं. वर्तमान में फुलवारीशरीफ के अलावा समस्तीपुर जिले के दलसिंहसराय इलाके में भी प्रतिमा का यह जागरूक अभियान चला रही हैं।
आसान नहीं था लोगों से माहवारी के बारे में बात करना
फुलवारीशरीफ क्षेत्र में प्रतिमा का ससुराल है। यानि वह उस इलाके की बहू हैं। एक बहू होकर लोगों से खुलेआम माहवारी जैसे मुद्दे पर बात करना आसान नहीं था। शुरुआती मुश्किलों को याद करते हुए प्रतिमा कहती हैं, ”शुरू-शुरू में तो लोग हमारी बातों को सुनने के लिए तैयार ही नहीं होते थे। उनके अनुसार मैं बेशर्म हूं, जो एक महिला होकर पीरियड्स, सेक्स और जेंडर जैसे मुद्दों पर खुलेआम बात करती हूं।”
प्रतिमा आगे कहती हैं, “कई लोग तो हमें देखते ही दरवाज़ा बंद कर लेते थे। एक बार तो लोगों ने गुस्से में आकर मुझे और मेरी टीम को झाड़ू लेकर कई किलोमीटर तक खदेड़ दिया था, जबकि वे जानते थे कि मैं उस गाँव की बहू हूं। उन्हें यह भी पता था कि मैं किस दौर से गुज़री हूं। उनके अनुसार, हर औरत को, चाहे वह किसी भी धर्म या समुदाय की हों, इस तरह की तकलीफ से गुज़रना पड़ता है लेकिन इसका मतलब यह थोड़े ना है कि वह सड़कों पर उतर कर इन सब मुद्दों के बारे में ढिंढोरा पीटती रहे।”
साधारण शैक्षणिक जानकारी देने से हुई शुरुआत
लोगों द्वारा इस तरह के आक्रामक विरोध के बावजूद प्रतिमा पीछे नहीं हटीं। उन्होंने घर-घर जाकर किशोर बच्चों के अभिभावकों से बात की। उन्हें भरोसा दिलाया कि वह बच्चों को सामान्य शिक्षा से जुड़ी जानकारी देना चाहती हैं। तब जाकर वे अपने बच्चों को प्रतिमा के पास भेजने के लिए तैयार हुए।
जब बच्चे आने लगे, तो धीरे-धीरे उन्होंने इन मुद्दों पर उनसे बात करना शुरू किया। खास कर लड़कियों को जब अपनी आपबीती बताई, तो उनमें यह जानने की इच्छा हुई कि आखिर उनके साथ ऐसा क्यों हुआ। इससे प्रतिमा के लिए उन्हें रिप्रोडक्टिव हेल्थ सम्बन्धित जानकारी देना आसान हो गया।
बाद में कुछ महिलाएं भी जुड़ीं। शुरुआत में उन्होंने पांच विषयों पर फोकस किया- लैंगिक हिंसा, लैंगिक जागरूकता, यौन एवं यौनिकता, लैंगिक भेदभाव और माहवारी सुरक्षा। प्रतिमा की मानें, तो लैंगिक हिंसा या भेदभाव एक ऐसी समस्या है, जिसका अनुभव लगभग हर महिला को होता है। जब महिलाएं यह समझने लगीं कि उनके साथ किस-किस रूप में लैंगिक हिंसा या भेदभाव हो सकता है, तब जाकर उन्होंने इस विषय को जानने-समझने में रुचि दिखाई।
मुस्लिम महिलाओं में अब भी है झिझक
पुरातन काल से हमारे समाज का जो पितृसत्तात्मक ढांचा है, उसमें महिलाओं और महिलाओं से जुड़े मुद्दों को कभी प्राथमिकता दी ही नहीं गई। उन्हें ‘इज्ज़त’, ‘तहज़ीब’ और ‘शर्म’ जैसे शब्दों की आड़ में दफनाने की कोशिश होती रही। यही वजह है कि स्वयं महिलाएं भी अपनी समस्याओं के बारे में खुल कर बात नहीं कर पाईं।
समय के साथ यह माहौल अब धीरे-धीरे बदल रहा है। प्रतिमा कहती हैं, ”हिंदू महिलाएं इन सब विषयों को लेकर थोड़ी मुखर हुई हैं लेकिन मुस्लिम महिलाओं में अब भी काफी पर्देदारी देखने को मिलती है। इसकी वजह उनमें शिक्षा में कमी और पुरुषों की तुलना में उनकी निम्न स्थिति है। इस कारण से उन्हें अपनी मुहिम के साथ जोड़ने में थोड़ी परेशानी होती है। पिछले पांच सालों में मेरे समूह में भी उनकी भागीदारी मात्र 13-14 फीसदी ही होगी।”
फुटबॉल के ज़रिये लड़कियों को बना रही हैं सशक्त
प्रतिमा ने सामाजिक एवं लैंगिक भेद मिटाने तथा लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए ‘प्ले फॉर पीस’ नामक प्रोग्राम की शुरुआत की। इसके तहत उनसे जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की जाती है जिसका उद्देश्य, विपरीत लिंग से जुड़े झिझक को तोड़ना है।
कुछ समय बाद महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था क्रिया CREA (Creating Resources for Empowerment in Action) के ‘माइ बॉडी, माइ राइट्स’ प्रोग्राम से जुड़ी। इस संस्था द्वारा फुटबॉल के माध्यम से किशोर उम्र के लड़के तथा लड़कियों में जेंडर अवेयरनेस पैदा करने का प्रयास किया जाता है।
यह एक वर्षीय ट्रेनिंग प्रोग्राम है, जिसमें कुल बीस सेशंस होते हैं। एक ग्रुप में 25 लड़के एवं लड़कियां होती हैं। इस तरह तमाम विरोधों के बावजूद प्रतिमा अपनी मुहिम में डटी हुई हैं। 2005 से लेकर अब तक करीब 5000 से अधिक महिलाएं प्रतिमा की संस्था से जु़ड़ चुकी हैं। इनमें से कई महिलाएं प्रशिक्षित होने के बाद अब खुद भी इस दिशा में आगे जानकारी फैला रही हैं।