स्वामी विवेकानंद ने कहा “धुर्तता से महान कार्य नहीं हुआ करते”। दुनियाभर के अर्थशास्त्री, दुनियाभर के देशों की अर्थव्यवस्था के बारे में कयास लगाते रहते हैं एवं नवीनतम कयास के अनुसार नए आर्थिक वर्ष में दुनिया की आर्थिक स्थिति में थोड़ी नरमी आएगी परंतु भारत 7% से ज़्यादा के दर से विकास करेगा। पिछले पांच-दस वर्षों में यह संख्या 5 से 8 के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है।
हमारे गाँव की दादी/चाची/भाभी के जीवन में इसका कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ रहा। दस साल पहले भी वो खेतों में काम करके बमुश्किल अपना पेट पालती थीं, आज भी वही कर रही हैं। हां, इतना परिवर्तन ज़रूर आया है कि अब स्वास्थ्यकर्मी टीका लगाने उनके घर आते हैं, रास्ते पर स्ट्रीट लाइट लग गई है एवं एक शौचालय बन गया है। बैंक में खाता भी खुल गया है परंतु उसमें रखने को पैसे कहां बच पाते हैं?
इन सबके बीच राष्ट्र कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की भूमि बिहार के बेगूसराय से एक युवक इस बात को रेखांकित करते हुए चुनावी समर में कूद जाता है,
मैं अपनी गरीबी तो सशर्त मिटा सकता हूं पर यह देश मेरा है एवं देश के किसी भी नागरिक को अगर कोई समस्या है तो मैं चुप नहीं बैठूंगा। एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते अपने साथी देशवासियों के जीवन को सुखमय बनाने हेतु प्रयास करना मेरी संवैधानिक ज़िम्मेदारी है।
यह विचार निश्चित ही करोड़ों युवाओं को ऊर्जा एवं संभावना से भर देने वाला है।
देश के नौवजवानों को यह घटना एक महत्वपूर्ण संदेश देती है और वह संदेश है, मौलिकता का, युवा जोश का एवं दृढ़ता का। वर्तमान भारत में अगर युवा अपने अपने क्षेत्र के समग्र विकास की ज़िम्मेदारी ले ले तो बहुत जल्द भारत सर्वाधिक मज़बूत राष्ट्रों में शुमार हो सकता है। इन सबके लिए ज़रूरी यह है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के युवा सामाजिक जोड़-तोड़ एवं राजनीतिक आकाओं के आशीर्वाद की राजनीति से ज़्यादा जन-उन्मुख एवं कल्याणकारी राजनीति करें एवं मौका मिलने पर एक दूरदर्शी योजना के तहत क्षेत्र एवं देश की जनता की सेवा करें।
कन्हैया जैसे नेता को किन मुद्दों पर करना होगा काम-
1.कई नीतियां बनीं मगर गरीबी का कुचक्र से निज़ात नहीं मिला
ना जाने कितने पैसों के खर्च पर ना जाने कितने ही लोगों ने कितनी ही आयोजनों के माध्यम से विभिन्न प्रकार की नीतियां बनाईं। इन नीतियों का कुछ फायदा भी हुआ परंतु निर्धनता समाप्त ना हो सकी। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों हमारे इतने सारे बुद्धिमान लोग, देश के गरीबों को कई पीढ़ियों में भी गरीबी के कुचक्र से निकाल नहीं पाए? इसका उत्तर है “लाभुकों का सशक्त ना होना”।
2.सत्ता पक्ष और आम जनता के बीच की दूरी को खत्म करना
संविधान निर्माताओं ने देश की शासन व्यवस्था विकेंद्रिकृत एवं परस्पर नियंत्रण युक्त इसलिए बनाई थी कि देश एक संतुलित एवं अभ्रष्ट वातावरण में काम कर सके। लम्बे अरसे तक की गुलामी हमारे मन मस्तिस्क में गहराई तक घर कर गई थी। हम सत्ता में आसीन लोगों से डरते रहें और सत्ता में आसीन लोग इस डर का फायदा उठाकर जन सामान्य का शोषण करते रहें एवं खुद को शासक वर्ग का समझने लगे। भारतीय समाज या अन्य समाजों में भी यह आसानी से पाया जा सकता है कि गरीबी एवं सत्ता-भय एक दूसरे के समानुपाती होते हैं।
यह बात अब दुनिया के हर वर्ग के ज़हन में आ चुकी है कि नागरिकों की व्यक्तिगत एजेन्सी को तंत्र के किसी निकाय द्वारा दरकीनार करना विकास के लिए घातक है। पिछले 7 दशकों में हमारी पद्धति इस प्रकार बिगाड़ी गई है कि हम नागरिक होने की शक्ति को पहचान ही नहीं पाए। सरकारें तय करती रही कि भारत के किसी गाँव या सुदूर शहर के किसी इंसान को सामाजिक एवं व्यक्तिगत विकास के लिए क्या चाहिए। जिसका नतीजा यह हुआ कि भेजने वाले ने जिसके लिए संसाधन भेजे, प्राप्तकर्ता को जानकारी ना होने के कारण लाभुक कोई और ही बनता रहा। ऐसी कमाई ने अप्रत्याशित वृद्धि को जन्म दिया जिसके फलस्वरूप समाज में आर्थिक गहराई नियंत्रण से बाहर जाती रही और इस प्रकार भारत एक समतापूर्ण समाज बनने से महरूफ होता रहा।
वर्तमान सरकार के कार्यकाल में देश में 2014 के बाद भारी परिवर्तनों के साथ 2019 आम चुनाव शुरू हो चुके हैं। देश का हर नागरिक पिछले पाँच वर्षों में हुए परिवर्तन को निश्चित तौर पर महसूस कर रहा है पर इन परिवर्तनों से हुए लाभ देश के अंतिम पायदान पर जीवन व्यतीत कर रही जनता को कितना मिला? यह आंकड़ों में अभी समझना बहुत मुश्किल है। वैसे इन परिवर्तनों को शुद्ध आंकड़ों में मापना संभव भी नहीं है। पर वास्तविक कार्यभूमि के परिभ्रमण से बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है।
3. आम जनता को अपनी ज़िम्मेदारी के प्रति जागरूक करना
सरकारें जन कल्याणकारी योजनाएं तो लाती ही रहती हैं पर सफलता की प्राप्ति तब कही जाती है, जब सम्पूर्ण मशीनरी सरकार की योजना के साथ एकमत होकर सेवा भाव से वास्तविक ज़रूरतमंदों तक उस योजना को पहुंचाए। दुर्भाग्यवश हमारे देश में अधिकतर लोगों को सरकारी नौकरी तो चाहिए पर समस्या सुलझाने में ज़्यादा उत्सुकता नहीं है। ऐसे में स्थिति यह बनती है कि सरकार की कृपा से एवं सरकारी क्रियान्वयन तंत्र की तरफदारी से योजनाएं लागू हो रही हैं। स्थानीय स्वशासन में जन सामान्य की भागीदारी नगण्य है और ऐसे में बिचौलियों एवं स्थानिक दबंगों के सिक्के खूब जम रहे हैं।
समाज में बाज़ार का प्रभाव गहराई तक बढ़ना एवं समाज की सामूहिकता का खत्म होना, ये दोनो घटनाएं एक साथ घटित हुईं। अभी स्थिति ऐसी है कि हम प्रक्षेपित मुद्दों, प्रक्षेपित प्रतिनिधियों एवं प्रक्षेपित आकांक्षाओं के मध्य जीवन गुज़ारने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे राजनीतिक वर्ग के लोग एक खास समय पर खास मुद्दे उठाने की कोशिश करते हैं, खास मुद्दों पर एक खास प्रकार के डर को फैलाने की कोशिश करते हैं, एवं खास वर्ग के लोगों के लिए खास प्रेम परोसते हैं।
ऐसे में जनता के सामान्य एवं सीधे प्रश्न आसानी से दब जाते हैं। मीडिया भी उन्हें एवं उनके सीधे प्रश्नों को अपने “मसालेदार एवं हर खबर नयी” वाले फ्रेम में जगह नहीं दे पाती। इसके इतर सम्पूर्ण मीडिया देश के दो सिलेब्रिटी स्तर के नेताओं के बीच की लड़ाई को गरमागरम परोसकर श्रोता जुटाना चाहती है एवं देश में एक खास व्यक्ति के लिए प्रक्षेपित माहौल तैयार कर देती है।
ऐसे में सवाल यह है कि व्यक्तिगत रूप से कर भुगतान करने वाला नागरिक सेवाओं की प्राप्ति के समय अपने आपको भीड़ का हिस्सा बनाने पर मजबूर क्यों किया जा रहा है? सरकार जनता को उसकी ज़रूरत के हिसाब से सेवा प्रदान करने हेतु उचित व्यवस्था क्यों लागू नहीं कर सकती?
अगर इसकी वजह अपर्याप्त कर्मचारी है तो पुनः प्रश्न यह आएगा कि सरकार की मशीनरी में कार्यरत पुलिसकर्मी हो, चिकित्सक हो, न्यायाधीश हो या शिक्षक हो। समनुपातिक रूप से इनकी संख्या काफी कम है पर सरकार इन रिक्त पदों को क्यों नहीं भर रही है? देश में प्रयास यही उजागर हो रहा है कि राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर व्यर्थ की बहस कर वास्तविक मुद्दों को चुनावी माहौल से बाहर रखा जाए। मेरे गाँव के अधिकतर लोगों को यह समझ नहीं आता कि राफेल मुद्दा क्या है पर प्रचार का असर देखिए कि उन्हें यह मालूम है कि मोदी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया और वोट इन्हें ही देंगे।