हमारे देश में राजनीति में महिलाओं की स्थिति की अगर बात करें तो आज भी तस्वीर असंतुलित ही दिखाई पड़ती है। पुरुषों के मुकाबले आज भी भारतीय राजनीति में महिलाओं का चेहरा बहुत कम ही दिखाई पड़ता है।
अगर बात आंकड़ों की करें तो विश्वस्तर पर भारत की एक्टिव पॉलिटिक्स में महिलाओं की स्थिति 193 देशों में 141वें स्थान पर है। दुनियाभर के संसदों में 22.6 फीसदी महिलाओं की भागीदारी है। जिसमें भारत का औसत सिर्फ 12 फीसदी है। वहीं रवांडा में 63.8%प्रतिशत महिला सांसद हैं, नेपाल में 29.5 फीसदी, अफगानिस्तान में 27.7 फीसदी, चीन में 23.6 फीसदी हैं।
राजनीति में जो महिलाएं हैं भी वे ज़्यादातर एक खास वर्ग, समुदाय से ताल्लुक रखती हैं या फिर कोई सेलिब्रिटी जिन्हें बाद में राजनीति का टिकट मिल जाता है।
पिछले दिनों सपना चौधरी की राजनीति में शामिल होने की खबर पर उनकी काफी खिल्ली उड़ाई गई। काफी नकारात्मक कमेंट्स मिले, जो कि काफी गलत है। सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही नहीं बल्कि हमारा पुरुषवादी समाज किसी भी महिला को राजनीति में देखना नहीं चाहता और जब कोई महिला राजनीति में आती है, तो उन्हें इस तरह के कमेंट्स का सामना करना पड़ता है।
लेकिन इन सबसे परे अगर हम यह देखें कि आखिर सपना चौधरी को ही टिकट क्यों? क्योंकि वह एक फेमस चेहरा हैं, क्या उन्होंने राजनीति में अपना कोई वक्त गुज़ारा है? क्या राजनीति में कई समय से अपना समय दे रहीं संघर्षशील महिलाएं नहीं हैं, जिनको टिकट मिलना चाहिए।
इस बारे में सामाजिक कार्यकर्ता कमला भसीन का कहना है,
हमारे यहां कई संघर्षशील महिलाएं हैं, जिन्हें टिकट मिलना चाहिए मगर उन्हें पार्टी टिकट नहीं देती है लेकिन अगर आप एक स्टार फेस हैं, चाहे वह हेमा मालिनी की बात हो या फिर स्मृति ईरानी, आपको पार्टी से आसानी से टिकट मिल जाता है, जबकि उसी पार्टी की एक सामान्य वर्ग से ताल्लुक रखने वाली संघर्षशील महिला टिकट के लिए लड़ाई ही लड़ती रह जाती है।
इस तरह से हम देखें तो राजनीति में महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति का एक बड़ा कारण नेपोटिज़्म भी है। एक्टिव पॉलिटीक्स में महिलाओं का जो गिना चुना प्रतिशत यहां है भी, उसमें भी संघर्षशील महिलाएं नदारद ही नज़र आती हैं।
इसमें कॉंग्रेस, भाजपा और लेफ्ट पार्टियों सबकी एक जैसी ही तस्वीर देखने को मिलती है। कार्यकर्ता के रूप में तो काफी महिलाएं दिख जाती हैं लेकिन जब बात टिकट मिलने की होती है तो वहां उनका काफी निम्न प्रतिशत ही देखने को मिलता है।
मोदी सरकार में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। आज 23 कैबिनेट मिनिस्ट्री में 6 महिलाएं हैं। यूनियन कैबिनेट मिनिस्ट्री में महिलाओं का प्रतिशत 5 प्रतिशत था जो 2014 में बढ़कर 26 प्रतिशत हुआ है। लेकिन यहां भी विरोधियों का मानना है कि मोदी सरकार में भी जिन ज़रूरी विभागों में महिलाओं को जगह दी गई है वह सिर्फ नाम की जगह है। चाहे बात रक्षा मंत्रालय की हो या फिर विदेश मंत्रालय की, अंतिम फैसला उनके हाथों में नहीं होता है।
इस ओर अपनी बात रखने वालों का कहना है कि इसी वजह से मोदी सरकार ने बहुमत में होने के बावजूद महिला आरक्षण बिल पास नहीं करवाया, क्योंकि प्रत्यक्ष रूप में मोदी सरकार भी महिलाओं को सत्ता नहीं देना चाहती है।
नेपोटिज़्म की बात अकसर पंचायत चुनावों में देखने को मिलती है लेकिन केंद्रीय राजनीति की ये तस्वीरें यहां भी नेपोटिज़्म के असर को दर्शाती हैं। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति में महिलाओं के प्रतिशत में इज़ाफा होना एक चुनौती ही दिखती है।
एक्टिव पॉलीटिक्स से बाहर अगर महिला वोटर्स की भी बात करें तो वहां भी नेपोटिज़्म का प्रभाव देखने को मिलता है।
महिला वोटर्स की अगर बात करें तो स्थिति पहले से थोड़ी बेहतर हुई है। 1980 से 2014 के बीच महिला वोटर्स की संख्या में 15 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है। लेकिन अभी भी स्थिति को पूरी तरह से बेहतर नहीं माना जा सकता है। प्रतिशत के मामले में महिला वोटरों की स्थिति कमज़ोर तो है ही साथ ही जो महिलाएं वोट देने जा भी रही हैं उनमें से एक बड़ा प्रतिशत वोट के मामले में खुद से निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। उनका वोट किस पार्टी या किस लीडर को जाएगा इसका फैसला घर के पुरुष द्वारा ही होता है और वे उन्हीं निर्देशों को फॉलो करते हुए वोट देने जाती हैं।
क्या है आपकी राय-
राजनीति में महिलाओं की इस स्थिति पर आपकी राय क्या है? इस मुद्दे पर जब तक हम और आप खुलकर बात नहीं करेंगे तब तक स्थिति में सुधार मुश्किल है। राजनीति में महिलाओं का बराबर का प्रतिशत देखने के लिए आपका खुलकर लिखना और बोलना बेहद ज़रूरी है। इसलिए आप इस मुद्दे पर खुलकर अपनी राय रखें कि
- क्या आपको भी लगता है कि राजनीति में महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति के पीछे नेपोटिज़्म की एक अहम भूमिका है?
- आपकी तरफ से कोई ऐसा सुझाव जिसके ज़रिए राजनीति में महिलाओं के प्रतिशत में इज़ाफा किया जा सकता है?
- कैसे इस पुरुषवादी समाज को चुनौती देते हुए हमारे समाज की महिलाएं को अपने वोट के अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सकता है?
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