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“महिलाओं के ज्वलंत मुद्दे राजनीतिक दलों के मैनिफेस्टो का हिस्सा क्यों नहीं बनते?”

महिलाएं

महिलाएं

देश की आधी आबादी के निजी और सार्वजनिक जीवन में एक नहीं सैकड़ों ही ऐसे सवाल हैं, जिनसे वे सीधी तरह से प्रभावित होती हैं मगर सांस्कृतिक समाजीकरण की ट्रेनिंग उन्हें मौन रहने को विवश करती हैं। अगर वे बोलती हैं तो विशेषणों के साथ कुछ नैतिक शब्द उनके चरित्र पर चस्पा कर दिए जाते हैं।

देश में अभी आम चुनावों का माहौल है, चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची में जो बदलाव देखने को मिल रहे हैं, उससे राजनीतिक दलों की परेशानी बढ़ रही है। कुछ ने तो पॉलिटिकल माइलेज लेने की शुरुआत भी कर दी है।

खैर, हो भी क्यों ना क्योंकि महिलाओं के विषयों पर कमोबेश हर राजनीतिक पार्टियों के दामन पर एक नहीं कई दाग हैं, जो महिलाओं पर भद्दी टिप्पणियां, पब्लिक स्फीयर में महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर घुटने टेके दिखाई पड़ती है। फिर भी महिला मतदाताओं को कैसे लुभाया जाए, इसका जवाब राजनीतिक दल खोज रहे हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

मौजूदा सरकार के बहुचर्चित नारे “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” को बहुत पसंद किया गया मगर कई राज्यों में सरकारी स्कूल बंद हो चुके हैं या बंद होने के रास्ते पर कदमताल कर रहे हैं। महिलाओं को सुरक्षित और स्वस्थ बनाने वाली मौजूदा सरकार द्वारा बनाए गए शौचालयों में पानी का अभाव है।

हर गरीब महिला को मुफ्त गैस सिलेंडर और गैस चूल्हा दिए जाने का प्रमाण हर पेट्रोल पंप पर लगी फोटो के माध्यम से हो रहा है मगर महिलाओं को पहले सिलेंडर के बाद कम पैसों में उपलब्ध सिलेंडर तभी मिलेगा, जब वह साल भर के अंदर मंहगी दर पर मिलने वाली दस सिलेंडर खरीदेंगी। ज़ाहिर है महिलाओं से किए गए वादे ढांक के तीन पांत के तरह बिखरे पड़े हैं।

चुनाव आयोग के मतदाता सूची में कमोबेश हर लोकसभा क्षेत्र में महिलाओं और युवा लड़कियों की सूची में बढ़ोतरी दर्ज़ हो रही है। कहीं-कहीं यह पुरुष मतदाताओं के बराबर हैं, तो कही-कही पुरुष मतदाताओं से आगे भी हैं। अगर महिलाओं ने मतदान करने में रिकॉर्ड भागीदारी दर्ज़ की तो स्पष्ट है कि उम्मीदवारों का भविष्य उनके ही वोटों से तय होगा।

ममता बनर्जी। फोटो साभार: फेसबुक

पश्चिम बंगाल और ओडिसा में महिलाओं को टिकट वितरण में वरीयता देना महिलाओं के वोट प्रतिशत में इज़ाफा को ध्यान में रखते हुए ही किया गया है। वैसे, जानकार बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में पिछले दो लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों पर जनता ने अधिक भरोसा दिखाया है, इसलिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 35 फीसदी और इस लोकसभा चुनाव में महिलाओं को 40 फीसदी टिकट देने का फैसला किया है।

कुछ राजनीतिक दलों ने महिलाओं को टिकट ज़रूर दिया है मगर अधिकांश जनप्रतिनिधि बन रही महिलाएं राजनीतिक परिवार से या किसी नेता के रिश्तेदार-नातेदार ही दिख रही हैं। भविष्य में कहीं ऐसा ना हो कि सदन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व परिवारवाद के आगे घुटने टेक दे।

जबकि पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों में महिला आरक्षण के बाद से कई महिलाएं संघर्षों से सामने आई हैं और समाज को बेहतर नेतृत्व दिया है। इन महिलाओं को स्थानीय राजनीति से क्षेत्रीय या राष्ट्रीय राजनीति में लाने की कोशिश ज़रूरी है। इस दिशा में फिलहाल कोई उत्साहजनक पहल नहीं है।

फोटो साभार: Twitter

मतदाता सूची में महिलाओं की बढ़त को महिला सशक्तिकरण के रूप में पेश करने की कोशिश अखबारों में बड़े पैमाने पर हो रही है। चुनाव आयोग की मतदाता सूची में बदलाव को अखबारों और मीडिया ने चर्चा खड़ी कर दी है मगर हर जगह एक सशक्त महिला की छवि खड़ी हो गई है। जबकि मुख्य सवाल यह है कि पब्लिक स्फीयर में मौजूद महिला कई तरह के असुरक्षित महौल में अपने भविष्य के सपनों को बचाने के जद्दोजहद में लगी हुई हैं।

एलईडी की सफेद रोशनी और एसी के ठंढे कमरे में निजी कुठांओं में डूबी आंखे उसके अस्मिता को तार-तार कर रही हैं, जिसकी बानगी #मीटू मूवमेंट के ज़रिये देखने को मिली। कड़वी सच्चाई तो यह भी है कि सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रही आर्थिक रूप से सशक्त महिलाओं के लिए शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा भी नहीं है।

मैटरनिटी लीव लेने के लिए कानून मौजूद हैं मगर इसे लेने के लिए भी उनको पितृसत्तात्मक मूल्यों से एक लंबी जंग लड़नी पड़ती है। विशाखा गाइड लाइंस जैसे कानून मौजूद हैं फिर भी शोषण झेलने के लिए आधी आबादी विवश है।

ज़रूरत इस बात की अधिक है कि अपने मतदान के लिए जनप्रतिनिधियों के चयन में आधी-आबादी हर सरकार और राजनीतिक दलों से सवाल पूछे कि उनकी समास्याओं के लिए उनके पास क्या ब्लू प्रिंट है?

सामाजिक और सांस्कृतिक शोषण से महिलाओं को सुरक्षा दिलाने के लिए या मौजूद कानूनों से महिलाओं को अधिक लाभ मिल सके। आधी आबादी की अस्मिता को चुनौती देने वाले सवाल को केंद्र में लाना अधिक ज़रूरी है जिन्हें राजनीतिक दल चुनाव जीतने का मुद्दा नहीं मानते हैं और यहां तक कि मीडिया का रवैया भी महिलाओं के लिए कोई खास नहीं रहा है।

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