मैं हमेशा से रवीश कुमार की पत्रकारिता का कायल रहा हूं। चाहे वो UPA सरकार हो या वर्तमान NDA की सरकार, रवीश कुमार की पत्रकारिता हमेशा विश्वसनीय रही है। मैं ही क्यों देश का हर वह स्टूडेंट, जो आगे जाकर पत्रकार बनना चाहता है, वह रवीश ही बनना चाहेगा ना कि गोदी मीडिया का कोई पत्रकार। ऐसे में रवीश कुमार पर एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी आ जाती है, पत्रकारिता को बचाने की जो वह बखूबी निभा भी रहे हैं या फिर कोशिश कर रहे हैं।
आज का दौर एक ऐसा दौर बन चुका है, जब मीडिया सत्ता का दरबारी बना बैठा है और मीडिया का काम सत्ता से सवाल करने की जगह उसकी गलत नीतियों का प्रचार करना और तारीफों के पुल बांधना रह गया है। मीडिया द्वारा ही हर गलत नीतियों के पीछे जब विपक्ष को दोषी ठहराया जा रहा है, तब अगर कोई पत्रकार लोकतंत्र को बचाने के लिए विपक्ष के प्रति नरम रवैया अपनाता है तो वह बात समझ आती है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है।
मगर रवीश कुमार जैसे पत्रकार से इस तरह की पत्रकारिता की उम्मीद नहीं की जा सकती है कि
वह कन्हैया कुमार के गॉंव जाएं और उनका टूटा फूटा घर दिखाएं, उन्हें गरीब बताने की कोशिश करें और उनसे पूछे कि आपको अपने पिताजी की याद आती है या नहीं।
यह किसी पत्रकार द्वारा किसी नेता को पूछे जाने वाले सवाल तो नहीं हो सकते हैं और रवीश कुमार जैसे पत्रकार से तो ऐसी उम्मीद बिलकुल नहीं की जा सकती है। आप कहीं ना कहीं कन्हैया का प्रचार कर रहे थे।
अगर यही काम मीडिया के किसी दूसरे बड़े चेहरे ने किया होता, तो शायद मैंने यह आर्टिकल भी नहीं लिखा होता, क्योंकि मुझे उनसे किसी तरह की कोई उम्मीद नहीं है। उनकी हालत हम जान चुके हैं, वे प्रधानमंत्री से कुछ ऐसे सवाल कर रहे हैं, “प्रधानमंत्री जी आप थकते क्यों नहीं”, तो उन मीडिया वालों से क्या ही उम्मीदें की जाए?
मेरा सवाल रवीश कुमार से क्यों है?
मेरा सवाल रवीश कुमार से इसलिए है, क्योंकि वह हर रोज़ रात को प्राइम टाइम में आकर कहते हैं कि यह पत्रकारिता नहीं है। यह गोदी मीडिया है और जो मीडिया प्रधानमंत्री से पूछ रहा है वह सवाल नहीं। हां, मैं मानता हूं कि मीडिया ने अलग-अलग इंटरव्यू में जो प्रधानमंत्री से सवाल किए हैं वे सवाल नहीं हैं पर रवीश जी आप ही बताइये कि आपने जो कन्हैया से पूछे वे सवाल थे?
मेरा मानना है कि हिंदुस्तान एक ऐसा देश है, जहां हर इंसान के कण-कण में राजनीति बसी हुई है। कोई भी पत्रकार या आम नागरिक बिना राजनैतिक विचारधारा का नहीं है। ऐसे में आपका भी किसी राजनैतिक विचारधारा की तरफ झुकाव होना स्वाभाविक है। अगर ऐसा है तब भी आपको अपना पत्रकारिता धर्म निभाना चाहिए था और कन्हैया कुमार से तीखे सवाल करने चाहिए थे। आपको बेगूसराय की समस्याएं जानकर कन्हैया से पूछना चाहिए था कि अगर वह जीत जाते हैं तो उन समस्याओं को कैसे सुलझाएंगे? जो बड़े बड़े वादे कन्हैया बेगूसराय की जनता से कर रहे हैं, उनके लिए कन्हैया के पास क्या विज़न है?
वरना उनके परिवार ने कितना संघर्ष किया है, वह तो हमने उनकी किताब (बिहार से तिहाड़) में पढ़ लिया है। जिसने नहीं भी पढ़ा, उसे ये सब बताना आपका काम नहीं है। ‘कन्हैया की पीएचडी के बारे में आस-पास वाले क्या सोचते हैं’, ‘जेएनयू को लोग नहीं जानते थे’, ये सभी बातें अभी करने की ज़रूरत नहीं है।
रवीश, आपसे हमेशा कुछ अच्छे की उम्मीद करते हैं
अगर आप ऐसा नहीं कर सकते हैं, तो आपको कोई हक नहीं कि आप चीख चीखकर पत्रकारिता को बचाने पर ज्ञान बांटे। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बचाने के लिए जो आपकी कोशिश है, अगर आप खुद ही उसमें एक कमज़ोर कड़ी बन जाएंगे और वही करने लग जाएंगे जो बाकि कर रहे हैं तो कैसे बचेगी पत्रकारिता?
फिर तो जैसे पार्टियों के मुखपत्र होते हैं, वैसे एक-एक पार्टी का एक-एक चैनल बन जाएगा। एक बीजेपी, एक कॉंग्रेस, एक लेफ्ट का। फिर सभी अपने अपनी विचारों के हिसाब से फिट होने वाला ही चैनल देखेंगे और लगभग इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। फिर इसमें सूचनाएं कहां बचेगी, फिर तो प्रोपेगेंडा ही बेचा जाएगा ना।
मैं आपका प्रशंसक हूं, बहुत बड़ा प्रशंसक पर मुझे आपकी कन्हैया वाली स्टोरी निष्पक्ष नहीं लगी, इसलिए मुझे यह लेख लिखना पड़ा। मैं आपको पत्रकारिता नहीं सीखा रहा, वह आप मुझसे कई गुना ज़्यादा बखूबी जानते हैं पर आज मैं आपकी आलोचना आपको बचाने के लिए कर रहा हूं। आपकी पत्रकारिता को बचाने के लिए कर रहा हूं, ताकि आप खुद को भगवान ना समझ बैठे, मैं आपको भगवान नहीं बनने दूंगा।