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“बीजेपी अपना चुनावी मैनिफेस्टो जारी करने में देर क्यों कर रही है?”

अमित शाह

अमित शाह

मौजूदा लोकसभा चुनाव में अपने प्रचार अभियान को सत्तारूढ़ दल चाटुकार मीडिया के साथ मिलकर देशद्रोह, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे के दम पर वोटरों के बीच परसेप्शन बनाने की कोशिश में लगी हुई है।

काँग्रेस अपने मैनिफेस्टो से पिछले चुनाव में भाजपा का नारा “सबका साथ, सबका विकास” को अपने तरीके से “सबके विकास में, काँग्रेस का हाथ” में बदलने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है। सत्तारूढ़ दल इसपर बयानबाज़ी तो कर रही है मगर अपने मैनिफेस्टो के बारे में कुछ नहीं कह रही है क्योंकि कहीं ना कहीं उनको भी मालूम है कि 2014 में उसने जो वायदे किए थे, उनमें से अधिकतर का पालन नहीं हुआ और वे जुमले सिद्ध हुए।

याद रहे कि वायदे को जुमले का पर्याय काँग्रेस या अन्य किसी विपक्षी दल ने नहीं, बल्कि स्वयं भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने निरूपित किया था।

काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने ‘न्यूनतम आय योजना’ अर्थात ‘न्याय’ लागू करने की बात जब रखी, इस चुनावी माहौल में जैसे “ठहरे हुए शांत पानी ने कंकर मार दिया हो। आनन-फानन में प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हुई। क्या पक्ष और क्या विपक्ष, दूर किनारे पर बैठे लोग भी विश्लेषण करने में जुट गए हैं कि आखिरकार यह योजना क्या है, कैसे लागू होगी, मतदाताओं के बीच इसका क्या प्रभाव पड़ेगा और अंतत: देश के सर्वहारा को इसका लाभ किस तरह पहुंचेगा!

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ऐसी ही कुछ खलबली नवंबर 2018 में पैदा हुई थी जब राहुल गाँधी ने विधानसभा चुनावों के दौरान छत्तीसगढ़ की धरती से किसानों की कर्ज़माफी का ही ऐलान नहीं किया था, बल्कि धान, सोयाबीन और तेंदूपत्ता आदि उत्पादों का न्यूनतम मूल्य भी एक लुभावनी सीमा तक बढ़ा देने का वायदा किया था।

तब भी भाजपा और उसके समर्थकों ने अविश्वास जताया था कि ऐसा नहीं हो पाएगा। तब के नतीजों ने सिद्ध किया था कि मतदाताओं ने भाजपा की शंका के मुकाबले काँग्रेस के वायदे पर एतबार ही नहीं किया बल्कि छतीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में सत्ता में आने का रास्ता भी बना दिया।

फोटो साभार: फेसबुक

काँग्रेस ने अपने घोषणापत्र में रोज़गार, किसानों की समस्या, गरीबों की समस्या, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, पर्यावरण और दमन के कानूनों पर समीक्षा को लेकर जो बाते कही हैं, उसने सत्तारूढ़ दल भाजपा से विकास का मुद्दा छीन लिया है क्योंकि भाजपा की सुई विकास से छिटककर पाकिस्तान, हिंदुत्व और आतंकवाद पर अटकी हुई है।

पूरा का पूरा सत्तापक्ष का कुनबा राजद्रोह और आस्फा के समीक्षा पर काँग्रेस को घेरने पर लगा हुआ है। शायद उनको याद नहीं है कि अपने मौजूदा शासन में ही उन्होंने आस्फा को कई राज्यों से हटाया है और सत्ता में आने से पहले राजद्रोह कानून पर उनकी दलीलें आती रही हैं।

बहरहाल, काँग्रेस के मैनिफेस्टो की सबसे आकर्षक योजना ‘न्यूनतम आय योजना’ यानि ‘न्याय’ है, जिसे थॉमस पिकेटी, पॉल क्रुगमेन और रघुराम राजन जैसे विश्वविख्यात अर्थशास्त्रियों से लंबे समय तक विचार-विमर्श से तैयार किया है।

यहां मुझे अचानक मनरेगा याद आता है, जिसे यूपीए-1 के दौरान ग्रामीण इलाकों में जाने-माने सामाजिक अध्येताओं से सलाह लेने के बाद ही लागू की गई थी। मनरेगा के तरह अगर न्यूनतम आय योजना यानि ‘न्याय’ ज़मीन पर सफलता से उतार दी गई, तो देश के उन तबको की क्रय क्षमता में गतिशीलता ज़रूर आ सकेगी, जिसकी क्रय क्षमता पर चोट नोटबंदी ने किया है।

हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि विमुद्रीकरण यानि नोटबंदी और जीएसटी के उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्हें मोदी सरकार ने बिना सोचे-समझे लागू किया और जिनका खामियाज़ा आज भी देश की जनता को उठाना पड़ रहा है। जीएसटी को लेकर तो मोदी-जेटली टीम ने जिस तरह बार-बार अपने निर्णयों में संशोधन किए हैं, वह हैरतअंगेज ही रहे हैं।

शिक्षा में जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करने का वादा, युवा भारत के लिए बहुत बड़ा तोफहा है। ध्यान रहे देश में अभी तक किसी सरकार ने यह नहीं किया है, यह घोषणा युवा भारत के लिए कई सभावनाओं को खोलने जैसा है, क्योंकि मौजूदा सरकार ने अपने हर बजट में इसे धीरे-धीरे कम किया है, जिसे लेकर युवाओं में गहरा अंसतोष है।

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार: Getty Images

अब देखना यह है कि मौजूदा सरकार अपना घोषणापत्र कब तक जनता के सामने लाती है क्योंकि काँग्रेस ने एक मानसिक दबाव बनाकर परसेप्शन का माहौल अपनी तरफ खींच लिया है। चूंकि मौजूदा सरकार के सारे वादे जुमले सिद्ध हुए हैं, तो उनपर विश्वास बहाल करने का दबाव भी है।

मैनिफेस्टो के वादों और वाक-युद्ध में असली चाभी अब मतदाताओं को पता है। चूंकि काँग्रेस ने विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करके अपने वादों को फौरी तौर पर ज़मीन पर उतारने में सफल रही है। इसलिए बाज़ी उनके पक्ष में जा सकती है मगर लोकसभा चुनावों में भी मैनिफेस्टो के वादे जादुई छड़ी का काम करेंगे।

इसके लिए मई के अंतिम पखवाड़े का इतंज़ार मानसून के साथ-साथ करना होगा। चुनावी नतीजों से नहीं, मानसून के पानी से मतदाताओं को थोड़ी देर के लिए राहत तो मिलेगी ही।

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