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“बेगूसराय CPI के अस्तित्व की अंतिम लड़ाई का केन्द्र बन गया है”

कन्हैया कुमार

कन्हैया कुमार

हिंदी पट्टी में अच्छी-खासी ताकत व संसदीय उपलब्धियां रखने वाली सीपीआई आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। इस चुनाव में बेगूसराय में अपने युवा सितारे के कंधे पर सवार होकर वह अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है।

हिंदी पट्टी में खास कैटेगरी के वामपंथी के लिए फासीवाद विरोधी लड़ाई बेगूसराय में सिमट गई है। बेगूसराय कुछ समय के लिए वामपंथ की राजनीति को जीवन दे भी सकता है, जिसकी संभावना कम है लेकिन जीवन ना दे सका तो लेनिनग्राद अंतिम कब्रगाह साबित होगा।

सीपीआई की उम्मीद के अंतिम सितारे कन्हैया के वैचारिक राजनीति दृष्टि व व्यवहार को सीपीआई की विचारधारा व राजनीति से अलग कर नहीं ही देखा जाना चाहिए। बुनियादी तौर पर वामपंथी राजनीति के दायरे में वह सीपीआई की समर्पणकारी-दक्षिणपंथी व संसदीय अवसरवादी राजनीति का ही नया चेहरा है। इसी किस्म की राजनीति को नए दौर में आगे ले जाने और विकसित करने की क्षमता व संभावना को उसमें देखा जा रहा है।

चेहरे के बल पर वाम राजनीति संभव नहीं

बहुतेरे लोग उसे सीपीआई से अलग-थलग कर वाम राजनीति के उद्धारक के तौर पर देखते हैं। वाम राजनीति के पुनर्जीवन की उम्मीद और नई संभावनाओं का सितारा मान बैठे हैं। वे भूल रहे हैं कि वाम-लोकतांत्रिक राजनीति का केन्दीय तत्व जन एजेंडा व जन-दावेदारी होता है। चेहरे के बल पर नहीं, जन-पहलकदमी के बल पर वह आगे बढ़ता है। नेतृत्व की सार्थकता व विकास यही से सामने आता है।

फोटो साभार: फेसबुक

वाम-लोकतांत्रिक विचारधारा व राजनीति की न्यूनतम समझ रखने वाले भी यह जानते हैं कि कुछ सितारों-नायकों के बल पर वाम राजनीति का ठहराव व गतिरोध नहीं टूटना है। वह भी वैसे सितारे-नायक के ज़रिये जिसके निर्माण में संघर्ष कम, मीडिया की हिस्सेदारी ज़्यादा हो। वही मीडिया जो मनुवादी और कॉरपोरेट दलाल है।

आंदोलन से उभरने वाले कन्हैया

जो संघर्ष की लंबी प्रक्रिया में सितारे के रूप में निर्मित नहीं हुआ हो, बल्कि एक आंदोलन से आकस्मिक तौर पर चर्चा व चमक में आ गया हो।वाम राजनीति की नई ज़मीन तोड़ने में विफलता, ठहराव-गतिरोध की स्थिति और निराशाजनक राजनीतिक माहौल में वाम-लोकतांत्रिक दायरे में चमकते सितारे से उम्मीद करने वालों की ऩजरें ज़मीन के बजाय ऊपर की ओर देख रही है। खास तौर पर स्वप्न लोक में जीने वाले भावुक किताबी कम्युनिस्ट और सास प्रजाति के वामपंथी ‘जय कन्हैया’ कर रहे हैं।

स्वतंत्र दावेदारी की स्पिरिट के साथ संसदीय चुनाव में कन्हैया और सीपीआई दांव लगाने के लिए तैयार नहीं थे। कन्हैया की गढ़ी गई छवि और ऊंचाई पर खड़ी की गई उसकी लोकप्रियता व अपील की असलियत बिखर कर पहले ही सामने आ चुकी है।

कन्हैया और सीपीआई की जद्दोजहद महागठबंधन के समीकरण में फिट बैठकर आगे की राजनीतिक यात्रा करने की थी। सीपीआई के साथ कन्हैया की राजनीति का सार पहले ही सामने आ चुका है।

फोटो साभार: फेसबुक

जो लोग अभी कन्हैया के पक्ष में खड़े होकर राजद की आलोचना कर रहे हैं, उन्हें पीछे लौटकर भी याद करना चाहिए। हां,जरूर ही महागठबंधन ने स्वतंत्र तौर पर चुनाव लड़ने के लिए रास्ता दिखा दिया लेकिन नई स्थिति में कन्हैया और सीपीआई की राजनीति पप्पु यादव से लेकर कृष्णा यादव तक पहुंच गई। कृष्णा यादव निजी कारणों से सीपीआई की उम्मीदवार नहीं हो सकीं।

यह नया चेहरा-चमकता सितारा भी कुछ नया नहीं करने जा रहा है। सीपीआई की पुरानी राजनीति का नया चैंपियन बनने की कोशिश में है।
वामपंथी-लोकतांत्रिक राजनीति को नया जीवन देने और जुझारु छात्र-युवा आंदोलन के प्रतिनिधि के तौर पर मुख्य धारा की राजनीति में दावेदारी जतलाने व लोकतांत्रिक मूल्यों को विस्तार देने की हिम्मत के साथ खड़ा होने की संभावना व उम्मीद पर पहले ही सवाल खड़ा कर चुका है।

कन्हैया की राजनीतिक यात्रा

देशद्रोह के फर्ज़ी मुकदमे में जेल जाने के बाद जेएनयू और जेएनयू से बाहर के प्रतिरोध ने कन्हैया को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित बना दिया। शुरुआती दौर में मीडिया के बड़े हिस्से ने नकारात्मक प्रचार किया लेकिन जेल से आने के बाद मीडिया के बड़े हिस्से ने हीरो के रूप में पेश करना शुरू किया।

कुल मिलाकर राष्ट्रव्यापी आंदोलन और मीडिया के नकारात्मक-सकारात्मक प्रचार ने राष्ट्रीय चेहरा बना दिया। जेएनयू कैम्पस के दायरे का राजनीतिक चेहरा और जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष अकस्मात राष्ट्रीय राजनीति का युवा चेहरा हो गया। सामान्य तौर पर इस ऊंचाई तक पहुंचना इतने कम समय व संघर्ष के छोटे अंतराल में संभव नहीं होता है।

कन्हैया कुमार। फोटो साभार: Getty Images

जेल से बाहर आने के बाद छात्र-युवा आंदोलन व राजनीति से बाहर निकलते हुए मुख्य धारा की राजनीति की ओर उसने कदम बढ़ा दिया।
पहले अपने कुछ साथियों के साथ राहुल गाँधी से मुलाकात की। बिहार पहुंचे तो लालू यादव, नीतीश कुमार और अन्य पार्टियों के नेताओं से मुलाकात की। अंत में वामपंथी पार्टियों के नेताओं से मिले।

जदयू नेता नीरज सिंह की अगवानी और सरकारी मेहमाननवाज़ी चर्चा में रही। लालू यादव से मुलाकात तो पैर छूने के कारण खासा चर्चित हुआ। इसी के साथ शराब माफिया की मौजूदगी की भी चर्चा हुई।

लालू यादव से मिलने के बाद कन्हैया का बयान आया कि मनुवादी-जातिवादी ताकतों से लड़कर लालू यादव ने समाजवाद को एक मुकाम तक पहुंचाया है। उसने सामाजिक न्याय की लड़ाई में लालू यादव से सहयोग मांगने का उल्लेख किया। इस दौरान श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल के कार्यक्रम और उसके प्रचार-प्रसार ने भी उसके सरकारी पार्टी द्वारा प्रायोजित होने पर चर्चा को जन्म दिया।

जेल से निकलने के बाद बिहार तक पहुंचते हुए पहले ही कन्हैया ने अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा और दिशा का इज़हार कर दिया था। ‘आज़ादी’ और ‘जय भीम-लाल सलाम’ के नारे के साथ वामपंथी राजनीति को नए दौर में नए सिरे से गढ़ने की जद्दोजहद में उतरने के बजाय वह भाजपा विरोधी राजनीति में जगह बनाने और आगे बढ़ने के लिए परदे के पीछे पॉलिटिकल लॉबीइंग का मास्टर बनने की कोशिश में रहा है। उसके नारों-भाषणों और राजनीतिक व्यवहार में बड़ा गैप रहा है।

यह गैप तो चर्चित होने के बाद जेएनयू में ही खुलकर सामने आ गया था। छात्र संघ चुनाव में वादे व दावे के अनुरूप अध्यक्ष के तौर पर उसकी भूमिका सवालों के घेरे में रही है। लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का सवाल हो, सामाजिक न्याय की बात हो या फिर अनिवार्य अटेंडेंस विरोधी आंदोलन हो, वह अपनी जुबां से बुलंद करने वाले नारों से दूर खड़ा रहा है।

जेल से निकलने के बाद जेएनयू से बिहार तक पहुंचते हुए कन्हैया ने साफ तौर पर संकेत दे दिया था कि उसकी पीठ वाम-लोकतांत्रिक आंदोलन व राजनीति की ओर है और चेहरा भाजपा विरोधी शासक वर्गीय विपक्षी राजनीति की ओर। वह लेफ्ट-राईट की सीमा रेखा पर है लेकिन लेफ्ट के विस्तार के लिए नहीं है।

कन्हैया कुमार। फोटो साभार: Getty Images

कन्हैया की राजनीतिक यात्रा पर नज़र दौड़ाने पर एक छात्र नेता फिर अचानक राजनेता की हैसियत में आने के बाद का सफर देखिए तो अवसरवादी राजनीतिक व्यवहार साफ दिखता है। वाम-लोकतांत्रिक आंदोलन को नया जीवन देने और जन राजनीति को बुलंद करने-गढ़ने की प्रतिबद्धता के बजाय भाजपा विरोधी राजनीति के दायरे में बड़ा चेहरा हो जाने की तीव्र राजनीतिक महात्वाकांक्षा ही सामने आती है, जिसके लिए जेएनयू शुरुआती दौर में एक प्लैटफॉर्म होता है और फरवरी आंदोलन एक मौका। उसके बाद प्रवचनकर्ता के तौर पर उसकी भूमिका सामने आती है।

अभी बिहार का बेगूसराय चुनावी प्लैटफॉर्म है। सीपीआई की अवसरवादी राजनीति की सवारी है। संसद में छलांग लगाने की जद्दोजहद है। मनुवादी मीडिया और जनेऊ छिपाये वाम बुद्धिजीवियों की कतार चेहरा चमकाने में लगी हुई है।

वाम-लोकतांत्रिक राजनीति के भविष्य के लिए बेगूसराय से बहुत कुछ नहीं निकलना है लेकिन सीपीआई के लिए जिस तरह से लड़ाई बेगूसराय में ही सिमट गई है, उसके लिए अस्तित्व की अंतिम लड़ाई का केन्द्र बन सकता है।

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