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चुनावी राजनीति और वादों के चक्रव्यूह में उलझे बुंदेलखंड के लोग

बुंदेलखंड के लोग

बुंदेलखंड के लोग

बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण हिस्सा है। बुंदेलखंड दो राज्यों (मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) में बंटा हुआ है। उत्तर प्रदेश वाले बुंदेलखंड क्षेत्र के अंतर्गत सात जनपद झांसी, जालौन, हमीरपुर, ललितपुर, महोबा, चित्रकूट और बांदा आते हैं।

इस सरज़मी को कई वीरों, कवियों, संतों, महापुरुषों और नदियों ने सुशोभित किया है। प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से देखा जाए, तो यह क्षेत्र काफी धनी रहा है लेकिन कुछ वर्षों से इस क्षेत्र की दशा और दिशा दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है। आज इसको उपेक्षित स्पेस के रूप में जाना जा रहा है।

जब भी देश-प्रदेश में चुनावी माहौल बनता है तो यह माहौल अपने साथ यहां के लोगों के लिए बहुत सी हसरतें लेकर आता है लेकिन यह माहौल बाद में इन लोगों की हसरतों पर पानी भी फेर जाता है। ऐसा ही कई बार हो चुका है।

2014 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के बाद भी यही हुआ। अब लोकसभा 2019 के चुनाव का बिगुल बज चुका है। सभी नेताओं ने बुंदलेखंड की रणभूमि में अपनी कमर कस ली है। इस बार चौथे चरण में क्षेत्र की लोकसभा सीटें जालौन-उरई, झांसी-ललितपुर, हमीरपुर-महोबा और पांचवे चरण में बांदा-चित्रकूट में मतदान होना प्रस्तावित हुआ है।

चुनाव आते हैं, चले जाते हैं, बुंदेलखंड की गंभीर समस्याओं का समाधान चुने हुए नेतागन आज भी नहीं ढूंढ पाएं हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है कि इन समस्याओं का समाधान ढूंढना कोई असंभव कार्य है। हर समस्या अपने साथ समाधान भी लेकर आती है, बस आज ज़रूरत है तो समाधान की दिशा में ईमानदारी से प्रयत्न करने की।

ग्रामीणों से बातचीत की तस्वीर।

कई वर्षों बाद भी ज़मीनी स्तर पर किसी तरह का समाधान देखने को नहीं मिल पा रहा है। इसके लिए यहां की जनता किसको (राजनेताओं, नौकरशाहों, गैर-सरकारी संस्थानों, प्रभुत्वशाली व्यक्तियों) ज़िम्मेदार ठहराये? यह महत्वपूर्ण और गंभीर सवाल है। बुंदेलखंड की सुध लेने वाला कोई नज़र नहीं आ रहा है। हर बार की तरह इस बार भी चुनावी माहौल में बुंदेलखंड के मुद्दों की चर्चा काफी उफान पर है।

दरअसल, बुंदेलखंड के गंभीर मुद्दे चुनावी राजनीति और राजनेताओं के लिए सुअवसर लेकर आते हैं। ऐसा महसूस होता है कि कोई भी राजनैतिक दल स्थाई समाधान खोजना ही नहीं चाहता है।

गंभीर समस्या तो यह है कि अगर इन मुद्दों का समाधान निकाल लिया जाएगा तो उलझाऊ चुनावी वादे कौन करेगा? फिर राजनीति करने के लिए मसाला कहां से आएगा?

इस क्षेत्र की समस्याएं बहुत सारे लोगों के लिए वरदान साबित हो रही हैं। ये लोग वीणा तो उठाये हैं समस्याओं के समाधान के लिए लेकिन इसमें इनका व्यक्तिगत स्वार्थ छिपा रहता है।

वर्तमान में फिर से लोगों की उम्मीद जगी कि बुंदेलखंड के दिन बहुरेंगे। सभी राजनीतिक दल दावा कर रहे हैं कि वे इस क्षेत्र की तस्वीर बदल देंगे। जो अब तक नहीं हुआ, वह इस बार ज़रूर करेंगे। यदि उनकी सरकार बनी तो बुंदेलखंड को उसकी समस्यायों से निजात दिलाएंगे।
वास्तव में राजनीतिक दलों के लिए सबसे बड़ी परीक्षा बुंदेलखंड के कुछ अहम मुद्दों पर खरा उतरने की है। क्या वास्तव में ऐसा हो सकेगा?

बुंदेलखंड की कुछ गंभीर समस्याएं जिनकी चर्चा करना अति आवश्यक है-

  1. वर्ष 1955 में प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा बुंदेलखंड को एक अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव पेश किया था। वर्षों बाद भी बुंदेलखंड को अलग राज्य का दर्जा नहीं मिल पाया है, ना ही कोई राजनैतिक दल इस मांग को प्राथमिकता देते हुए नज़र आ रहा है। इस मांग के लिए मौखिक रूप से वादे तो किये जाते हैं लेकिन इसको वास्तविक रूप देने से सभी कतरा रहे हैं।
  2. बुंदेलखंड में 80.53 %किसानों पर 6,900 करोड़ रुपये के करीब कर्ज़ हैं, जिसकी वजह से किसानों की आत्महत्या का ग्राफ दिनों दिन बढ़ रहा है। यहां अप्रैल वर्ष 2003 से मार्च 2015 तक 3280 किसानों ने आत्महत्या की है, जो कि एक गंभीर मुद्दा है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरों के अनुसार वर्ष 2009 में यहां 568, 2010 में 583, 2011 में 519, 2012 में 745, 2013 में 750 और दिसंबर 2014 तक 58 किसानों ने आत्महत्या की हैं।

बिजनेस स्टैण्डर्ड पत्रिका के अनुसा

  1. नौजवान आबादी के लिए रोज़गार के अवसरों के अभाव ने अपराध के क्षेत्र में रोज़गार सृजित कर दिए हैं। जिन नौजवानों को रोज़गार नहीं मिल रहा है, वे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
  2. प्राकृतिक संपदा का अवैध खनन भी एक मुद्दा है। सीएजी रिपोर्ट (2011) के अनुसार बुंदेलखंड से 200 करोड़ से ज़्यादा का राजस्व चोरी हुआ है। यह अनुमान लगाया जा सकता है इतना अवैध खनन मनी लैंडर्स, मीडिया, माफिया और सरकारी तंत्र की मिली भगत से होता है। लेकिन सार्वजानिक रूप से इसके रोकथाम की बात करते हैं।
  3. सिचाई एवं पेयजल की समस्या बुंदेलखंड के हर आम और खास की समस्या है। दो दर्जन से अधिक बांध, सैकड़ों तालाब, बेशुमार प्राचीन कुंए, ढेर सारे ट्यूबवेल और अनगिनत हैंडपंप ये सब पूरी तरह सूख चुके हैं। नदियों यमुना, बेतवा, केन, धसान, उर्मिल, शहजाद, जामिनी, रोहनी, उतारी और सजनाम जैसी हर छोटी-बड़ी नदी जल विहीन और विलुप्त होने की कगार पर है। करीब दो दर्जन बांधों आगौसी पम्प कैनाल, पारीक्षा, माटाटीला, मझगवां, उर्मिल, गंगउ, बरयारपुर, लहचूरा, रैघट, पहारी, कबरई, मौदहा, क्योलारी, उतारी, रंगावन, ओहन, गुन्ता, खप्पर, सजनम, पुंज, चन्द्रावल, गोविन्दसागर, शहजाद, जामिनी और अर्जुन सरीखे सभी सूखे पड़े हुए हैं। अरबों रुपये व्यय होने के बाद भी ये बांध सूखे क्यों हैं इसका जवाब देने वाला कोई नही है

असंतोष के कारण –

बुंदेलखंड के लोगों के अन्दर असंतोष और आक्रोश भरा हुआ है, जिसका मुख्य कारण वादा खिलाफी है। इस समय सभी चार लोकसभा और 19 विधानसभा सीटों पर भाजपा काबिज़ है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है पिछले लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में यहां के लोगों ने कितना भरोसा जताया था लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा का बुंदेलखंड में अपनी सत्ता स्थापित कर पाना मुश्किल है।

सपा-बसपा का गठबंधन और कॉंग्रेस कड़ी चुनौती देने के लिए तैयार है। 2014 के लोकसभा चुनाव में झांसी से बीजेपी उम्मीदवार उमा भारती जीती और केंद्र में मंत्री भी रहीं, जिन्होंने चुनाव से पहले अलग राज्य के गठन का वादा किया था लेकिन पूरे पांच साल बुंदेलखंड राज्य बनाने की दिशा में कोई पहल नहीं की। इस बार वह चुनाव में शामिल ना होने का फैसला कर चुकी हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री जी ने महोबा में जाकर एक रैली की थी, जिसमें उन्होंने कहा था,

इस सरज़मीं के पूर्वज कभी पानीदार हुआ करते थे, आज पानी की एक बूंद के लिए तरसता है, मैं इस सरज़मीं का यह गौरव लौटाकर रहूंगा, पानी लाकर रहूंगा, बुंदेलखंड के युवाओं को रोज़गार दूंगा।

ऐसे ही बहुत सारे वादे किए गए थे। दुख की बात है कि ये वादे पूरे ना हो सके। किसानों की कर्ज़माफी और रोज़गार सृजन से संबंधित जो थोड़े बहुत प्रयास हुए हैं, उन प्रयासों से यहां के लोग संतुष्ट नज़र नहीं आ रहे हैं।

बीएसपी ने अपने समय में अलग राज्य बनाने की बात की थी है लेकिन अपनी पार्टी के घोषणापत्र में इस मुद्दे को शामिल ना किये जाने पर सवाल खड़े होने लगे थे। इस बार का लोकसभा चुनाव बीएसपी और एसपी मिलकर लड़ रहे हैं। सर्वसम्मति से घोषणापत्र भी तैयार करेंगे। ऐसे में यह ज़रूरी नहीं कि अलग राज्य गठन की मांग पर एसपी, बीएसपी का साथ दे।

कॉंग्रेस पार्टी भी बुंदेलखंड राज्य गठन के मुद्दे पर स्पष्ट रूप से कुछ भी कहने से कतरा रही है लेकिन कॉंग्रेस के नेता इतना ज़रूर कह रहे हैं कि अगर केंद्र में उनके नेतृत्व में सरकार बनती है तो बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की ज़रूर पहल करेगी।

अब देखना है कि कौन सा राजनैतिक दल पिछले चुनाव की तरह भरोसा हासिल कर पाता है? बुंदेलखंड की जनता किसके वादों को प्राथमिकता देकर मतदान करेगी।

क्या कहते हैं राजनीतिक समीकरण ?

बुंदेलखंड में सबसे बड़ी संख्या अन्य पिछड़ी जाति के मतदाताओं की है। इसमें सर्वाधिक यादव फिर लोधी हैं। दूसरे स्थान पर दलित समुदाय में शामिल कई जातियां हैं, तीसरे पायदान पर सवर्ण हैं।

इस पूरे चुनाव के लिए सभी पार्टियों ने सोशल इंजीनियरिंग पर खास ध्यान दिया है। इस चुनाव का परिणाम अन्य पिछड़ी और अत्यंत पिछड़ी जातियों पर निर्भर कर सकता है। अन्य पिछड़ी जातियों में यादव, लोधी, कुर्मी के अलावा कई छोटी-छोटी जातियां कहार, कुशवाहा, गड़रिया, कुम्हार, नाई, भडभूजा, बढ़ई, मल्लाह, तेली मिलकर एक बड़ा वोट बैंक बनाती हैं।

फोटो साभार: जितेन्द्र

इसके आलावा मुस्लिम वोट बैंक भी अपना अलग महत्व रखता है। किसी भी राजनैतिक दल ने मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है, जिसकी वजह से इस समुदाय में नाराज़गी देखी जा सकती है।

सपा-बसपा गठबंधन के सीट बंटवारे की बात करें तो बांदा-चित्रकूट, झांसी-ललितपुर से सपा के प्रत्याशी मैदान में है, जबकि महोबा-हमीरपुर, उरई-जालौन से बसपा के। सपा ने बांदा-चित्रकूट से श्यामाचरण गुप्त को और झांसी-ललितपुर से श्यामसुंदर सिंह यादव को टिकट दिया है। बसपा ने महोबा-हमीरपुर से ठाकुर दिलीप कुमार सिंह को, उरई-जालौन से अजय सिंह पंकज (आहिरवार) पर भरोसा जताया है।

कॉंग्रेस ने बांदा-चित्रकूट से सपा के पूर्व सांसद बालकुमार पटेल को कमान सौंपी है। महोबा-हमीरपुर से प्रीतम सिंह लोधी ‘किसान’ को दोबारा मौका दिया है। कॉंग्रेस ने उरई-जालौन से बसपा के पूर्व सांसद बृजलाल खाबरी और झांसी-ललितपुर से शिवशरण सिंह कुशवाहा को चुनावी रण में उतारा है।

भाजपा ने महोबा-हमीरपुर से अपने मौजूदा सांसद पुष्पेन्द्र सिंह चंदेल व उरई-जालौन से सांसद भानुप्रताप सिंह वर्मा को दोबारा टिकट दिया है। भाजपा ने काफी माथा-पच्ची करने के बाद बांदा-चित्रकूट सीट के लिए आर.के. पटेल को और झांसी-ललितपुर सीट से अनुराग शर्मा को टिकट दिया है।

भाजपा से झांसी-ललितपुर सीट के लिए लोधी जाति के लोग टिकट की मांग लम्बे समय से कर रहे थे लेकिन उन्हें नहीं मिल पाया। इसकी प्रबल संभावना है कि भाजपा का लोधी वोट बैंक कटकर किसी अन्य राजनैतिक दल के साथ हो सकता है।

बसपा जिसका आधार दलित वोट है, आज ये वोट भी बिखरा हुआ नज़र आता है। इसकी मुख्य वजह है कि बसपा ने हमेशा से ही दलितों की उन समुदायों को तवज्ज़ों दिया है जिनकी संख्या आधिक है।

अगर उत्तर प्रदेश में देखा जाए तो दलितों की कुल 66 जातियां हैं. जिनमें से बुंदेलखंड में दलित जातियों में आहिरवार (चमार) संख्या में पहले पायदान पर, अनुरागी (कोरी) दूसरे पायदान पर हैं।

बसपा ने दलितों की छोटी जातियों कोरी, धोबी, बाल्मीकि, खटिक, कुछबंधियां, भाट, कंजर, कपाड़िया, बेड़िया, बहेलिया, नट आदि को अपने कैनवास से दूर रखा है। जिसकी वजह से ये जातियां अपने आपको उपेक्षित मान रही हैं।

ये जातियां मिलकर बड़ा वोट बैंक तैयार करती हैं। इनका राजनैतिक प्रतिनिधित्त्व हमेशा से ही कम रहा है और नाराज़ भी है। इनकी नाराज़गी का नकारात्मक परिणाम बसपा का वोट बैंक कम कर सकती है।

इस बार ये मतदाता बदलाव के मूड में नज़र आ रहे हैं। ये विकल्प के तौर पर किसी दूसरे दल के साथ जा सकते हैं। ऐसी ही कुछ स्थिति पिछड़े वर्ग की छोटी जातियों की भी है- कहार, आरख, काछी, कुम्हार, केवट, बढ़ई, सुनार, नाई आदि। इसके बाद जो सबसे बड़ी समस्या आती है, वह यह है कि इनमें से कई जातियां अपने क्षेत्र की डॉमिनेंट जातियों के प्रभाव में रहती आई हैं। दलित जातियों में बढ़ती राजनीतिक दावेदारी के बावजूद उनका एक हिस्सा इन जातियों के प्रभाव में वोट दे रहा है।

इस बार चुनावी माहौल कुछ बदला हुआ है–

लोकसभा चुनाव 2014 में कॉंग्रेस बुंदेलखंड में एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई थी। इस बार प्रियंका गॉंधी पूरी ऊर्जा के साथ पार्टी को जीत दिलाने के लिए अपना योगदान दे रही हैं। पार्टी के कार्यकर्त्ता काफी सक्रिय नज़र आ रहे हैं।

पिछली बार जो दलित और पिछड़ा वोट बैंक भाजपा के पक्ष में गया था, कॉंग्रेस पार्टी के कार्यकर्त्ता उस वोट को (गैर जाटव और गैर यादव) को हथियाने में लगे हुए हैं।

बुंदेलखंड क्षेत्र में भाजपा ने पिछली जीत राम मंदिर मुद्दा, ‘अच्छे दिन आएंगे’, ‘सबका साथ, सबका विकास’, ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसे नारों की वजह से लोगों का विश्वास जीता था। ना तो ‘अच्छे दिन’ आए और ना ही किसी वंचित का विकास हुआ है। बुंदेलखंड की समस्याएं वैसी की वैसी ही हैं। दलित और पिछड़े वर्ग के साथ कुछ ऐसी अमानवीय घटनाएं घटित हुई हैं, जिससे यह वर्ग काफी निराश नज़र आ रहा है। ऐसे वक्त में बसपा, सपा ने भी साथ छोड़ दिया था।

कॉंग्रेस के कुछ नेतागण बुंदेलखंड की तीन सीटें उरई-जालौन, महोबा-हमीरपुर, झांसी-ललितपुर में अच्छे मतों से अपनी जीत सुनिश्चित करने का दावा पेश कर रहे हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र के भाजपा के पिछड़ा वर्ग संगठन के अध्यक्ष का मानना हैं “सपा-बसपा गठबंधन लम्बे समय तक साथ चलने वाला नहीं है और कॉंग्रेस की स्थिति इस बार भी वैसी ही रहेगी जिस तरह से 2014 के चुनाव में रही थी।

फोटो साभार: जितेन्द्र

वर्षों बीत चुके इसी तरह की सियासत होती रही, वादे किए जाते रहे लेकिन मांग अब तक पूरी नहीं हुई है। दरअसल, सियासत के इस दांव-पेच, वाद-विवाद, आरोप-प्रत्यारोप में बुंदेलखंड के विकास की दिशा और दशा ही तय नहीं हो पाई है। बुंदेलखंड की बदहाली के लिए जितने बाहुबली नेता और ठेकेदार ज़िम्मेदार हैं, उससे कही ज़्यादा ज़िम्मेदार देश-प्रदेश की सरकारें भी रही हैं। वे बुंदेलखंड की प्राकृतिक सम्पदा पर तो अपना अधिकार जताती रही हैं, इसके विकास से उन्हें सरोकार सिर्फ इतना ही रहा जितने में बुंदेलखंड की जनता को विकास का भ्रम होता रहे।

बुंदेलखंड की मांगे आज भी राजनीति के हाशिये पर पड़ी हुई हैं। इन मांगों को राजनैतिक दलों द्वारा तभी उठाया जाता है, जब चुनावी बिगुल बजता है। यहां के लोग चुनावी राजनीति और वादों के चक्रव्यूह में लम्बे समय से उलझे हुए हैं। अब देखना यह है कि क्या बुंदेलखंड के लोग इस चक्रव्यूह को तोड़ने में सफल हो पाते हैं या नहीं? क्या इस बार ऐसे नेता को चुन पाएंगे, जो विकास को बुंदेलखड के धरातल पर ले जाए।

 

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