कहा जाता है कि जिस देश में मीडिया सत्ता से सीधे सवाल पूछ रही हो, उस देश का लोकतंत्र मज़बूत होता है लेकिन इस बात से हम इस निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सकते कि भारत में मीडिया की वजह से लोकतंत्र कमज़ोर हुआ है। हालांकि हमें यह भी समझना होगा कि इस देश की मीडिया के एक वर्ग के लिए सत्ता से मोह रखना ही सबकुछ है। इसलिए सत्ता से सवाल पूछने वालों को नक्सली और देशद्रोही का तमगा दिया जा रहा है।
देश में लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्यौहार हम सबके सामने है और ऐसे में अलग-अलग इंटरव्यू द्वारा सत्ता अपनी उपलब्धियां जनता तक पहुंचाने की कोशिश में लगा है और इसमें कोई गलत बात भी नहीं है, क्योकि लोगों को सत्ता द्वारा किए गए कामों का ज्ञान होना चाहिए। हमें यह भी समझना होगा कि ऐसे इंटरव्यू में मीडिया का अहम रोल होता है।
क्या आप सत्ता में बैठे लोगों से उन सवालों को पूछने की हिम्मत कर रहे हैं, जिन सवालों के जवाब को जानकर जनता वोट डालने जाएगी या फिर आप सत्ता को अपना प्रचार करने का ही एक मौका दे रहे हैं?
हाल ही में लिए गए प्रधानमंत्री के कुछ इंटरव्यू को देखकर तो कम-से-कम यही अनुभव होता है कि आप मीडिया कम भाजपा कार्यकर्ता ज़्यादा नज़र आ रहे हैं, जो अपनी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहे हैं।
क्या चुनाव के वर्ष प्रधानमंत्री से यह सवाल होना चाहिए कि आप नवरात्रों में किस प्रकार का व्रत रखते हैं और आप क्या-क्या खाएंगे या सवाल यह होना चाहिए कि राजधानी में आप खुद को कैसे ढाल रहे हैं। इस दौर में मोदी जी से मीडिया के सवाल ही कुछ ऐसे होते हैं, जैसे लगता है कि भाजपा के दो कार्यकर्ता आपस में बात कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि आप निजी सवाल पूछ ही नहीं सकते लेकिन देश के प्रधानमंत्री से पिछले पांच सालों का हिसाब लेना भी तो मीडिया का काम है। कोई यह सवाल पूछने की हिम्मत क्यों नहीं करता कि जब राम मंदिर का मसला सुप्रीम कोर्ट में है, तो आपने 2014 में इसे मैनिफेस्टो में क्यों शामिल किया था?
कोई यह सवाल क्यों नहीं पूछता कि काँग्रेस भी कहती है सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतज़ार करेंगे और भाजपा भी कहती है कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है फिर दोनों में क्या फर्क है?
कोई यह सवाल क्यों नहीं पूछता कि अब देश के होम मिनिस्टर कह रहे हैं कि 370 खत्म करना ही एक रास्ता है फिर पिछले पांच सालों में आपने इसके लिए क्या कदम उठाए? कोई यह सवाल क्यों नहीं पूछता कि 35A पर पूरे पांच साल चुप्पी साधने के बाद आखिर कैसे चुनाव के वक्त आपकी पार्टी यह मसला रैलियों में उठा रही है?
कोई यह सवाल क्यों नहीं पूछता कि यूनिफॉर्म सिविल कोड पर जब लॉ कमीशन ने अपनी राय रख दी फिर सरकार ने उसका विरोध किस प्रकार किया और पांच सालों तक इस मसले पर क्या किया?
कोई यह क्यों नहीं पूछता कि जब सेना का नाम लेकर चुनाव ना लड़ने की अपील सबने की और चुनाव आयोग ने भी ऐतराज़ जताया फिर आपने क्यों कहा कि एक वोट बालाकोट में शहीद हुए जवानो के नाम डालिए? कोई यह सवाल क्यों नहीं करता कि आपकी पार्टी सेना को मोदी की सेना कह रही है, तो यह देशद्रोह है या नहीं?
यह भी तो पूछे कि क्यों आप योगी आदित्यनाथ और मेनका गाँधी के बयानों की निंदा नहीं करते और काँग्रेस के छोटे-छोटे नेताओं के बयानों पर आप पूरी रैलियां कर लेते हैं।
यह पूछने की हिम्मत भी तो करें कि कश्मीर में आपकी नीति फेल हुई या आपकी कोई नीति ही नहीं थी, जहां आपने एक महामिलावट गठबंधन किया फिर उसके बाद सरकार से अलग हुए।
यह भी तो पूछे कि सत्ता मिलने से पहले वाला गठबंधन अगर मिलावट है फिर बिहार में सत्ता मिलने के बाद सत्ता से अलग होकर नीतीश कुमार का आपसे मिलना महामिलावट क्यों नहीं है?
यह तो बस कुछ ही सवाल हैं और अगर नीतियों में चर्चा होने लगी तो बहुत सारे और सवाल भी होंगे लेकिन खुद को भाजपा कार्यकर्ता दिखाने की भागदौड़ में सवाल नहीं, बस मौका दिया जा रहा है जहां सवाल-जवाब नहीं केवल और केवल प्रचार होगा।