बात 2016 की है। जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन के उस वक्त के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ज़मानत पर जेल से छूट कर आए थे। चारों ओर कन्हैया की चर्चा थी। उस वक्त लगभग सभी गैर भाजपा दल यह चाहते थे कि कन्हैया अब चुनाव की तैयारी करे।
ये सब आपसी बातचीत में कन्हैया को बिना शर्त अपना उम्मीदवार बनाने की बात कर रहे थे। उस वक्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ही कन्हैया को चुनावी राजनीति में लाने के मुद्दे पर असमंजस में थी। कन्हैया इसी पार्टी से जुड़े हैं।
आगे बढ़ते हैं 2018 में। अब आम चुनाव सर पर थे। इस बार भाकपा ने मन बनाया कि कन्हैया चुनाव लड़ेंगे। जैसे ही हवा में यह बात तैरने लगी, इसके साथ ही बहुत कुछ और तैरने लगा।
कन्हैया बेगूसराय के बिहट के रहने वाले हैं। भाकपा का वह लेनिनग्राद है या नहीं, यह नहीं पता मगर यह बिहार के उन चंद इलाकों में ज़रूर है, जहां आज भी हंसुआ और गेहूं की बाली का कुछ असर है। इसलिए यह माना जाने लगा कि भाकपा के कन्हैया बेगूसराय सीट से ही लड़ेंगे।
कन्हैया की उम्मीदवारी का अभी तक औपचारिक ऐलान नहीं हुआ था मगर भाकपा ने मन बना लिया था। कन्हैया, बिहार में काफी वक्त देने लगे थे। चुनाव में राजनीतिक मोर्चाबंदी होती, उससे पहले ही एक ज़बरदस्त राजनीति शुरू हो गई। कन्हैया के चुनाव लड़ने के खिलाफ तर्कों का अंबार लगना शुरू हो गया।
अगर कन्हैया के खिलाफ दिए गए तर्कों की फेहरिस्त बनाई जाए तो वह कुछ इस तरह बनेगी।
- बेगूसराय छोड़िए, कन्हैया को बिहार में जानता कौन है?
- कन्हैया ने बेगूसराय में किया क्या है?
- राजद के संभावित उम्मीदवार तनवीर हसन बहुत जुझारू नेता हैं।
- तनवीर हसन ही बेगूसराय में भाजपा को टक्कर दे सकते हैं।
- अगर तनवीर हसन की जगह किसी और को महागठबंधन ने टिकट दिया तो वह राजद छोड़ कर जदयू में चले जाएंगे।
- भाकपा की हैसियत क्या है? महागठबंधन को उसके लिए सीट क्यों छोड़नी चाहिए?
- कन्हैया को कुछ शहरी और पढ़े-लिखे लोग ही जानते हैं। गाँव की जनता उन्हें पहचानती तक नहीं है।
- वह तो एक खास जाति के लोगों से घिरा रहता है।
- मुसलमानों के बीच उसकी कोई पहचान नहीं है।
- महागठबंधन उसे क्यों टिकट दे? राजद को सबको देखना है। बिहार में राजद ही असली पार्टी है, जो भाजपा से मुकाबला कर सकती है।
- कन्हैया वोट कटवा साबित होंगे। उनके चुनाव लड़ने से गैर भाजपा दलों के वोट बंट जाएंगे और भाजपा को फायदा हो जाएगा।
- तनवीर हसन समाजवादी हैं। बहुत दिनों से काम कर रहे हैं। कन्हैया उनकी ज़मीन छीन रहा है। ऐसे तो स्थानीय नेता कभी उभर ही नहीं पाएंगे।
- कन्हैया को इस वक्त चुनाव लड़वाकर, भाकपा उसका कैरियर खत्म कर देगी। उसे तो इस वक्त महागठबंधन के साथ खड़ा रहना चाहिए।
- भाकपा ने बिना विचार विमर्श के एकतरफा उसकी उम्मीदवारी का ऐलान कर दिया। अभी तो बात ही चल रही थी।
- देखिएगा, वह भाकपा के साथ कितने दिन रहेगा।
दिलचस्प बात यह है कि यह सारे तर्क एक भौगोलिक सीमा या एक वैचारिक दायरे तक सीमित नहीं थे। बेगूसराय से कन्हैया की उम्मीदवारी ना हो, इसके लिए पूरे देश भर में एक ही मगर आक्रामक खुसफुसाहट थी। हर जगह एक जैसे ही तर्क चल रहे थे। ये तर्क देने वाले हर तरह के गैर-भाजपा विचार के लोग थे। यहां तक कि कन्हैया जिस पार्टी के हैं, उस पार्टी के कई अहम नाम भी इसी तरह के तर्क दे रहे थे।
यही नहीं, ऊपर गिनाए गए तर्क स्थिर नहीं थे। हर कुछ महीने बाद तर्क में एक नया आयाम जुड़ जाता था। जब एक तर्क असरदार साबित नहीं होता था या वह तर्क गलत निकलता था, तब नए तर्क हवा में तैरने लगते थे। हर तर्क का मकसद यह साबित करना था कि कन्हैया को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, बेगूसराय से तो एकदम नहीं।
चुनाव शुरू हो गए। महागठबंधन ने कन्हैया के लिए कोई सीट नहीं छोड़ी। बेगूसराय से अपना उम्मीदवार भी दे दिया। इसके बाद भाकपा के उम्मीदवार के रूप में कन्हैया मैदान में आ गए।
अब इन तर्कों के बहुत मायने नहीं होने चाहिए थे। हालांकि, अब कन्हैया के खिलाफ रहे कई लोग ज़ाहिर तौर पर अपना रुख बदल रहे हैं मगर कन्हैया के खिलाफ तर्कों का दौर थमा नहीं रहा है। कन्हैया के खिलाफ तर्क देने वालों में मीडिया भी है। पिछले साल भर से जो चल रहा था, उसके कई शक्ल और दिखने लगे हैं।
तर्कों का एक अहम सिरा, मुसलमानों की राजनीति में भागीदारी और हिस्सेदारी तक जा रहा है। इसमें एक तर्क यह है कि कन्हैया के नाम पर मुसलमानों को अपने प्रतिनिधित्व का मौका गंवाने से बचना चाहिए। यहां तक कहा जा रहा है कि क्या मुसलमानों के गर्दन पर चाकू चलाकर कन्हैया को सुरक्षित बनाया जाएगा।
यह भी कहा जा रहा है कि कन्हैया सुविधा प्राप्त सवर्णों के नेता हैं। अगर ऐसा नहीं होता तब वह किसी दलित, पिछड़े या अल्पसंख्यक समाज के किसी नेता को मज़बूती से समर्थन देकर चुनाव लड़ाते। जितने तर्क कन्हैया के खिलाफ इतने दिनों से इस्तेमाल किए गए, ऐसी बातें उसी का नतीजा हैं.
कन्हैया के चुनाव लड़ने से किन्हें और क्यों परेशानी हो रही है
आज कन्हैया कुमार किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। वह बिहार और बिहार के बाहर भी जाने जाते हैं। उनके भाषण लोगों को खींचते हैं। उनकी वैचारिक पहचान है। ऐसा लगता है कि उनकी यह पहचान ही उनके लिए परेशानी का सबब बनने वाली है। वह पहचान जो उनकी ताकत है, कितने लोगों के लिए असुरक्षा का सबब बन गई है। शायद उन्हें ऐसा लगा कि कन्हैया को जगह देने का मतलब एक चुनौती को दावत देना भी है। कई वजहों से वे सीधे-सीधे उसका विरोध नहीं कर सकते थे।
यह भी कह सकते हैं कि कन्हैया का सीधा विरोध करने की ठोस वजह नहीं थी। ये लोग कन्हैया को बिहार से लोकसभा तक पहुंचते हुए देखना नहीं चाहते थे इसलिए तर्क गढ़े गए। ऐसा लगता है कि यह एक प्रयास था कि भाकपा और कन्हैया को मानसिक रूप से इतना हीन और कमज़ोर बना दिया जाए और अपराध बोध से भर दिया जाए कि वह खुद ही चुनाव लड़ने से मना कर दे और पीछे हट जाएं।
देखा जाए तो कन्हैया के खिलाफ में जितने तर्क हैं, वे हर नेता पर आसानी से थोपे जा सकते हैं। खासतौर पर हम हर उस नेता के बारे में ये बातें सहज रूप से मान लेंगे, जिनसे सीधा वास्ता नहीं है। यही कन्हैया के साथ भी किया गया।
हर चुनावी क्षेत्र में तनवीर हसन जैसे जुझारू नेता मिल जाएंगे। उत्तर प्रदेश में अब तक सपा और बसपा अकेले चुनाव लड़ती आ रही हैं। इस चुनाव में वे साथ हैं। ऐसी अनेक सीटें हैं जहां समाजवादी पार्टी के मज़बूत समाजवादी नेता हैं मगर सपा ने वे सीटें, बहुजन समाज पार्टी या राष्ट्रीय लोकदल के लिए छोड़ दी। उन्हें भी तकलीफ हुई होगी मगर उन्होंने इसे बड़ा काम मानकर किया। महागठबंधन ने तो ऐसा एक भी उदाहरण पेश नहीं किया।
कन्हैया जीतेंगे या नहीं यह बेगूसराय की जनता तय करेगी। अभी कोई भविष्यवाणी करना जल्दबाज़ी होगी। जो लोग यह चाहते थे कि कन्हैया को चुनाव में टिकट नहीं मिले, उन्हें अंदाज़ा नहीं है कि कन्हैया की राजनीति फिलहाल खत्म नहीं होने वाली है।
इसका एक उदाहरण ही काफी है। जब महागठबंधन ने अपनी सीटों के बंटवारे के बारे में बताया तो सबकी क्या जानने की जिज्ञासा थी? चर्चा का विषय क्या था? यही ना कि कन्हैया के लिए सीट क्यों नहीं छोड़ी गई?
सीटों की घोषणा महागठबंधन की थी मगर चर्चा के केन्द्र थे कन्हैया कुमार। इसके बाद जब भाकपा की प्रेस कॉन्फ्रेंस में कन्हैया की उम्मीदवारी का औपचारिक एलान हुआ तब पूरी मीडिया इसे ज़ोर शोर से दिखा रही थी। क्या कन्हैया की ऐसी ही चर्चा की वजह से उनके लिए सीट नहीं छोड़ी गई?
तीन साल पहले जो लोग कन्हैया को हाथों-हाथ ले रहे थे और उसे अपना बनाने में लगे थे, वे अब क्यों बदल गए? राजनीति इतनी सरल नहीं होती है। कन्हैया के विरोध की मुख्य वजह यह है कि कन्हैया किसी भी सूरत में बिहार की पहचान ना बन सके। इन लोगों की ख्वाहिश यही है मगर काश, सब कुछ हम सबकी ख्वाहिश के मुताबिक होता।