बी.आर अंबेडकर महान समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में नागरिकों की भूमिका की महत्ता पर विशेष ज़ोर दिया।
उन्होंने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को समझते हुए विभिन्न वर्ग, धर्म और जाति-विशेष की बहुलता पर आधारित भारत को किस प्रकार आधुनिक राष्ट्र के रूप में परिणत किया जा सकता है, इस पर ज़ोर दिया।
अंबेडकर ने समाज की अंतिम पंक्ति पर खड़े लोगों के अंदर यह विश्वास दिलाया कि वे राष्ट्र निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार तथा राजनीति के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र निर्माण में संलग्न हैं। आरक्षण के प्रावधान ने इन वर्गों की भी प्रशासन में सहभागिता सुनिश्चित की, जिन्हें सदियों से इससे दूर रखा गया।
भारत में पहली बार ऐसा हो रहा है कि दलित राजनीति की मुख्यधारा में हैं। इससे पहले उन्हें सिर्फ एक वोट बैंक समझा जाता था। आज दलित नेतृत्व मुख्य रूप से युवा वर्गों के हाथ में है, जहां से वे लोग तकनीक, पत्र-पत्रिकाओं का उपयोग और यूट्यूब पर चैनलओं के माध्यम से आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए सरकारी नीतियों को जनता के सामने रखते तथा उन्हें जागरूक करते हैं।
सोशल मीडिया ने उन्हें एक ब्रह्मास्त्र के रूप में हथियार प्रदान किया है, जो सूचनाओं के त्वरित प्रसार का सुलभ और सस्ता माध्यम है। एक ओर जहां आज से पहले दलितों पर अत्याचार के मामले जनता के सामने ही नहीं आते थे, वहीं, दूसरी तरफ आज प्रतिरोध की भावनाओं को उफान मिल रहा है।
दलितों में सांगठनिक क्षमता तथा उनके द्वारा भारत बंद जैसे बड़े कार्यक्रम को अंजाम देना दर्शाता है कि वह किस प्रकार सार्वभौमिक रूप से पूरे भारत में दलित इकट्ठा हो रहे हैं। उत्तर भारत के दलित के दर्द को दक्षिण भारत में भी महसूस किया जाता है। दलितों ने अपनी वोट की शक्ति को पहचान लिया है।
आज वह आत्म-सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीवन जीने की राह पर चल निकले हैं। किसी भी क्रांति से पहले जहां एक बौद्धिक क्रांति की आवश्यकता होती है, वहां तकनीक के माध्यम से यह क्रांति पैदा हो चुकी है।
आरक्षण के दम पर दलितों की तीसरी पीढ़ी पैदा हो चुकी है, जो बुद्धिमान, ज्ञानवान, प्रतिभावान, कुशल नेतृत्वकर्ता, व्यवहार में वस्तुनिष्ठता और संविधान के प्रति समर्पण के भाव को दर्शाते हैं, जो समानता के सिद्धांत पर अंबेडकरवादी विचारों को लागू करना चाहते हैं, जिसमें समानता और सामाजिक न्याय मुख्य रूप से शामिल हैं।
2018 में भारत बंद, उना और सहारनपुर जैसे बड़े दलित विरोधी घटनाक्रम हमारे सामने आए। डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर की लिखी हुई किताबें प्रथम पीढ़ी के दलितों के लिए पढ़ना संभव नहीं था। दूसरी पीढ़ी के दलितों द्वारा उनके अनुवाद तथा तीसरी पीढ़ी द्वारा उनका प्रत्यक्ष रूप से आत्मा में सम्मिलित किया जाना इस क्रांति का मुख्य कारण है।
जहां तीसरी पीढ़ी का दलित ब्रांडेड कपड़े, बड़ी-बड़ी गाड़ियों तथा समानता के सिद्धांत को लेकर चलता है, वहीं दूसरों के समान सम्मान का भाव भी रखता है। इन सबके बीच उत्तर प्रदेश मुख्य राजनीति का केंद्र रहा है और जहां से दलित राजनीति के नेतृत्वकर्ता भी निकल कर सामने आए हैं।
मायावती ने दलितों के सम्मान और स्वाभिमान को एक दिशा प्रदान की। उन्होंने दर्शाया कि दलित भी राजनीति का सिरमौर हो सकता है। तकनीकी युग में अखिल भारतीय स्तर पर दलित राजनीति का नया चेहरा बने चंद्रशेखर उर्फ रावण ने प्रतिशोध का बदला प्रतिशोध की भावना को दलितों में जगा कर उनके दिलों में अपनी जगह बना ली है।
आज वह संपूर्ण भारत में दलितों के नेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं। वहीं, स्थानीय स्तर पर पढ़े-लिखे युवा सामाजिक क्रांति के सरोकार के लिए प्रयासरत हैं। दलित देश की एक बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके कदम देश को दिशा प्रदान करेंगे। अब देखना यह होगा कि किस प्रकार दलित राजनीति को प्रभावित करते हैं या खुद उससे प्रभावित हो जाते हैं, जो सदियों से होती आ रही है।