राजधानी दिल्ली में उस दिन तेज़ बारिश हुई थी। जहां की हवा में ज़हर घुली हो, वहां बारिश की बौछार ऐसी लगती है जैसे सुबह-सुबह कोई बड़ी-सी दुकान के सामने पानी का छिड़काव करता हो।
बारिश होने का मतलब है बस्ती की गलियों का कीचड़ से लबरेज़ होना और अगर तेज़ बारिश हुई तो सिर्फ गलियां दिखाई ही नहीं देंगी बल्कि यह कहिये कि वह बस्ती एक छोटा सा वेनिस शहर बन जाएगा। लोगों का खाना-पीना, सब दूभर हो जाएगा।
यह तो साल-दर-साल की बात है। बस्ती वालों को इसके साथ जीने की आदत हो गई है। वह किसी सरकारी योजना का इंतज़ार नहीं करते कि कोई सरकारी योजना आएगी और उनकी बस्ती की काया पलट कर देगी।
उनका इश्क उसी बस्ती में परवान चढ़ा। शादी हुई दो बच्चे हुऐ और आज ऐसी तेज़ बारिश कि उफ्फ सारे घर में पानी-ही-पानी। पड़ोस की सारी औरतें और दाई माँ भी आ गयी थी। उन्होंने अपनी साड़ियां और सलवार घुटनों तक उठा लिये थे ताकि उनके कपड़े भींगने से बच सकें।
घर के बाहर थोड़ी-सी जगह थी, जहां पड़ोस के दो-चार मर्द और पूजा का पति दीपक खड़ा था। सभी अंदर से आती पूजा की चीखों को सुन रहे थे। रिक्शा चालक राजू, पूजा के दो बच्चों को अपनी गोद में बिठाकर आने वाले नए मेहमान का नाम क्या रखेंगे, इस बारे में बात कर रहा था।
उनकी दोनों की उम्र 4 और 5 साल थी। वे दोनों बच्चे भी यही इसी झोपड़ी में पैदा हुए थे। उनको भी दाई माँ ने ही उनकी माँ की कोख से निकाला था। उनका नाम सोनू ओर मोनू था। राजू रिक्शा वाले ने ही इनका नाम रखा था। इनका बाप दीपक भी रिक्शा ही चलाता है और बहुत दारू पिता है।
कलाबाज़ी के ज़रिये पैसे कमाने की चाह
सोनू और मोनू को इनके दोस्तों ने कलाबाज़ी करना सीखा दिया या इन्होंने देख-देख कर खुद ही सीख लिया। सोनू और मोनू पास ही के राजघाट वाली रेड लाइट पर, जैसे ही लाइट रेड होती है और गाड़ियां रुक जाती हैं, तो सड़क का वह हिस्सा सोनू, मोनू और उनके दोस्तों का स्टेज बन जाता है, जहां वे अपनी कलाबाज़ियों का मंचन करते है।
उनके मंचन का सबसे आकर्षक हिस्सा वह होता है जब सोनू ओर मोनू एक 8 या 10 इंच व्यास का लोहे का बना गोल आकार का एक बड़े से कड़े के अंदर से निकल जाते हैं। उनकी कलाबाज़ियों का मंचन तब खत्म होता है, जब ट्रैफिक सिग्नल ग्रीन होने में 20 सेकंड रह जाते हैं।
इन्हीं 20 सेकंड में उनको अपने प्रदर्शन या कहें कि मेहनत का मेहनताना पास ही खड़े गाड़ी वालों और बाइक वालो से लेना होता है। वे मांगते वक्त कुछ कहते नहीं हैं। बस हाथ फैला देते हैं। सोनू और मोनू कलाबाज़ियों से कमाया हुआ पैसा अपनी माँ को लाकर देते थे।
दीपा के आते ही खुशियों की दस्तक
ऐसे ही उनकी ज़िन्दगी चल रही थी मगर अब एक नया मेहमान उनके घर में आने वाला था, जिसका नाम उन्होंने राजू रिक्शे वाले के साथ मिलकर सोच लिया था। अगर लड़की हुई तो दीपा और अगर लड़का हुआ तो नोनू। तभी अंदर से एक औरत आती है और खबर देती है कि लड़की हुई है।
तो सोनू ओर मोनू दोनों ने राजू रिक्शे वाले की आंखों में देखा और कहा, “दीपा नाम पक्का हुआ।” तभी उनके बाप ने दोनों को मिठाई लेने के लिए भेज दिया और मोहल्ले पड़ोस में मिठाई बांटी गई। सोनू और मोनू दोनो खुश थे कि घर मे बहन हुई है। उन्हें भी पड़ोसी दादी ने बताया था कि घर मे एक बहन तो होनी ही चाहिये।
सोनू और मोनू अपनी माँ के अगल बगल सोया करते थे मगर जैसे ही दीपा पैदा हुई तो उन दोनों के सोने की जगह छीन गई। उन दोनों को अब झोपड़ी के एक कोने में जिसमें रसोई है, वहां उनके सोने की जगह बनाई गई। रसोई समेट कर उनके सोने की जगह बनाई जाती और सुबह होते ही रसोई फिर अपना आसन ग्रहण कर लेती।
सोनू और मोनू को इसी बात की तल्खी दीपा से हो गई कि उसके आने से उनके सोने की जगह छीन गई। जिससे उन्हें लगा कि उनकी माँ का उनसे प्यार कम हो गया। खैर, वे रोज दोस्तों के साथ ट्रैफिक सिग्नल पर जाते और जो भी थोड़ा बहुत कमाते अपनी माँ को लाकर दे देते।
दीपा भी भाईयों के साथ सिग्नल पर जाने लगी
इसी तरह बारिश का मौसम गुज़रा और वक्त गुज़रता चला गया और देखते-देखते 2 साल बीत गए। सोनू-मोनू की तल्खी दीपा के लिए खत्म हो गयी थी। वे दीपा को भी अपने साथ सिगनल पर ले आते थे। कलाबाज़ियों के मंचन के बाद दीपा को गोदी में लेकर पैसे मांगने से उन्हें ज़्यादा पैसे मिलते थे।
इसलिए दीपा भी उनके कलाबाज़ी गैंग की हिस्सा बन गई थी। सोनू-मोनू अब कलाबाज़ी में पंडित हो गए थे और नए-नए ढंग की कलाबाज़ियां भी करने लगे थे। वहीं, ट्रैफिक सिग्नल उनका स्कूल, उनका मंच, उनकी कल्पना, उनकी इच्छाएं सब कुछ था। वे जब अपनी उम्र के बच्चे को किसी बड़ी सी सुंदर गाड़ी में साफ कपड़ो में बैठे देखते तो उनका भी मन उसी तरह के कपड़े और गाड़ी में बैठ के घूम आने का मन करता।
उनका भी मन वहीं पास में एक अच्छे से रेस्तरां में बैठकर खूब खाने का करता। स्कूल बस में बैठे बच्चों को मस्ती करते हुए जाते देखते वक्त उनको लगता कि यह इतने सारे बच्चे एक जैसे कपड़े पहनकर कहां जाते हैं। वे कल्पना करते कि इस दुनिया मे कितनी सारी खाने की चीज़ें होती हैं।
सबसे अच्छी चीज़ मीठी होती है या नमकीन। ये इतनी सारी गाड़ियां कहां से आती हैं और कहां जाती हैं। सिग्नल में 3 ही रंग की लाइट क्यों हैं? इन सब सवालों के उनके पास अपने ही जवाब होते।
दीपा भी कलाबाज़ियां करने लगी
दीपा 3 साल की हो गई थी। सोनू-मोनू 7 और 8 साल के हो गए थे। दीपा भी अब कलाबाज़ियां करने लगी थी मगर उसने कभी ट्रैफिक सिग्नल के मंच पर कलाबाज़ियां नहीं की थी या यूं कहिये कि उसने अभी मंचन करना शुरू नही किया था।
यह भी कह सकते हैं कि जैसे बड़े-बड़े कलाकारों के बच्चों की पहली फिल्म जब आती है, तब कहा जाता है कि फलाने बड़े कलाकार के बेटे या बेटी को लॉन्च किया जा रहा है और अंधाधुन पैसा उसके लॉन्च में बहाया जाता है। तो ऐसे ही दीपा को अभी लॉन्च नहीं किया था उसके भाइयों ने, इसके दो कारण थे।
एक तो दीपा अभी छोटी थी और दूसरा उसे अभी मंचन करने में डर लगता था या झेंप होती थी मगर सोनू-मोनू चाहते थे कि दीपा ट्रैफिक सिग्नल पर मंचन करना शुरू कर दे। इसके भी उनके पास कारण थे। एक तो लोग छोटे बच्चों को करतब करते देखना ज्यादा पसंद करते हैं और अधिक दयाभाव भी इससे पैदा हो जाता है, जिस वजह से लोग अधिक पैसे भी देते हैं।
सोनू-मोनू के तर्क भी वाज़िब थे आखिर घर जो चलाना था। बाप तो शराब के नशे में चूर रहता है, माँ सेठों के यहां बर्तन साफ करती है और घर साफ करती है, तब जैसे-तैसे उन्हें शाम का खाना नसीब होता है। ऐसे में सोनू-मोनू भी चाहते थे कि उनकी कमाई बढ़े। पहले तो वे छोटे थे और दीपा भी। दीपा को गोद मे लेकर पैसे मांगने पर ज़्यादा पैसे मिलते थे मगर अब दीपा को गोद में लेकर पैसे मांगने से पहले जितना पैसा नहीं मिलता था, क्योंकि वह भी 3 साल की हो गई थी।
हाँ, अगर दीपा सिग्नल पर कलाबाज़ियों का मंचन शुरू कर दे तो छोटे बच्चों पर दयाभाव वाली बात काम कर जाए। यही सोच कर सोनू-मोनू चाहते थे कि दीपा मंचन शुरू कर दे। दीपा का आत्मविश्वास बढ़े इसलिए सोनू-मोनू ने उसकी ट्रेनिंग अच्छे से शुरू कर दी। रोज़ सिग्नल वाले पार्क में शाम को दीपा को ट्रेन किया जाता।
दीपा को भी बड़ा मज़ा आता अपने भाइयों के साथ मगर जैसे ही सिग्नल पर मंचन की बात आती तो वह सहम जाती और उसके भीतर का डर उसके रोंगटे खड़े कर देता। उसके भाइयों को यह एहसास होता तो सोनू उससे बोलता, “मेरी प्यारी छोटी बाबू दीपा तू तो बस्ती की सबसे अच्छी कलाबाज़ है। कोई नहीं बस्ती में जो तेरा मुकाबला करे। तुझे डरने की कोई ज़रूरत नहीं, हम हैं ना साथ। बस जैसा तू यहां कर रही है, वहां सिग्नल पj भी वैसा ही करना। कोई दिक्कत नहीं होगी।”
थोड़ा हिम्मत करके फिर से प्रैक्टिस में जुट जाती है। तभी सोनू-मोनू दोनो तय करते हैं कि कल दोपहर में दीपा का पहला मंचन कराएंगे और वे दोनों दीपा को मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। वे दीपा को मना भी लेते हैं। आज दीपा का कलाबाज़ी मंचन है। सुबह से ही दीपा के भीतर कभी कुछ ठंडा सा मीठा दर्द उमड़ के आता है कभी गर्म सा एहसास।
जब यह ठंडा-मीठा सा दर्द उमड़ता है, तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आज मुझे सिग्नल पर कलाबाज़ी मंचन करना है, यह सोच-सोचकर उसे डर और खुशी दोनों को मिलाकर कुछ महसूस हो रहा है। वह हर काम बड़ी जल्दी-जल्दी कर रही है। उसके दोनों भाई सोनू-मोनू भी खुश हैं और थोड़ा डर भी रहे हैं।
सोनू कह रहा है कि करती तो बढ़िया है बस घबरा ना जाए। इसपर मोनू कहता है, “हद से हद क्या होगा गिर जाएगी, इससे भी तो लोगों में दया पैदा होती है। लोग और ज़्यादा पैसा देंगे। सब ठीक ही होगा सोनू तू चिंता मत कर।”
दोपहर हो गई थी। दिल्ली में गर्मी परवान पर थी। यकीन ना हो तो भारी दोपहर में जाकर देखना और यह बात किसी वैज्ञानिक को नहीं पता, यह सिर्फ सोनू-मोनू, दीपा और उनके कलाबाज़ी गैंग को पता है, क्योंकि कलाबाज़ी करते समय हाथ सड़क पर रखने पड़ते हैं और वे तो हैं ही इतने गरीब कि चप्पल भी पैरों में नहीं होती।
उनके हाथ और पैर में पड़े छाले जो कि गर्म सड़क से जलने की वजह से हुए हैं, तो दिल्ली में गर्मी का मौसम सड़क की गर्मी की वजह से होता है। यह बात वे जान गए थे। इसी गर्म सड़क पर आज दीपा को मंचन करना है।
कलाबाज़ी में दीपा की बारी
इस बार जैसे ही रेड लाइट होगी तो दीपा के मंचन करने की बारी होगी। दीपा का दिल ज़ोर से धड़क रहा है और उसकी आंखें रेड लाइट पर लगी बत्ती पर है, जिसमें नंबर कम होते जा रहे हैं।
खैर, दीपा पहले धीरे से फिर तेज़ी से बीच सड़क पर आ खड़ी होती है। सड़क भयानक गर्म है मगर दीपा को तो मंचन करना है और दीपा शुरू हो जाती है। एक के बाद एक कलाबाज़ियों का मंचन कर रही है। गाड़ियों वाले, बाइक वाले ऑटो वाले और तमाम सवारी उसे देख रहे हैं।
दीपा पूरी लगन से अपने भाइयों की सिखाई हुई बातों को ध्यान में रखते हुए कलाबाज़ियां दिखा रही है। उसके दोनों भाई और साथी सड़क के किनारे खड़े होकर देख रहे हैं। तभी किसी गाड़ी वाले ने कहा, “अरे देखों कितनी छोटी बच्ची कितनी अच्छी कलाबाज़ी दिखा रही है।”
जैसे ही यह शब्द दीपा के कानों में पड़े, उसके छोटे से बदन में एक तरह की सिरहन दौड़ गई और दीपा ने अच्छे से पूरी कलाबाज़ी दिखाई। सिग्नल ग्रीन होने से ठीक 15 सेकंड पहले उसने अपनी कलाबाज़ियों का मेहनताना मांगना शुरू किया और उसके हाथ में सबसे आखिर में 50 रुपये उसके खुद के कमाए हुए थे।
उसके भाइयों ने कहा आज तो दावत होगी। दीपा की आँखों की चमक देखते ही बनती है। यह तो दीपा की कहानी थी मगर आज ना जाने कितने सोनू-मोनू और दीपा इन सिग्नलों पर अपने बचपन के चेहरे पर प्यार भरी मुस्कान के साथ ज़िन्दगी जी रहे हैं। कौन इनको बताएगा कि जिंदगी खूबसूरत तो है मगर अधिकारों के साथ।