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भारतीय महिलाओं के हक की आवाज़ उठाने वाली पंडिता रमाबाई

पंडिता रमाबाई

पंडिता रमाबाई

“भाइयों, मुझे क्षमा कीजिए। मेरी आवाज़ आप तक नहीं पहुंच रही है लेकिन इसपर मुझे आश्चर्य नहीं है। क्या आपने शताब्दियों तक कभी किसी महिला की आवाज़ सुनने की कोशिश की? क्या आपने उसे इतनी शक्ति प्रदान की कि वह अपनी आवाज़ आप तक पहुंचा सके?”

1889 में मुंबई में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के पांचवे अधिवेशन में यह संदेश देकर पंडिता रमाबाई ने भारत में नारी मुक्ति आंदोलन की नींव रखी।

23 अप्रैल 1858 को पंडित अनंत शास्त्री डोंगरे और लक्ष्मीबाई डोंगरे के घर जन्मी रमाबाई, जिन्हें शिक्षित करने के लिए पिता अनंत शास्त्री ने सामाजिक बहिष्कार झेलते हुए आंघ्रप्रदेश के जंगल में आश्रम बनाकर भिक्षा पर जीवन यापन करना स्वीकार कर लिया। सोलह वर्ष की आयु में पिता और माता के निधन के बाद अपने भाई श्रीनिवास के साथ दक्षिण भारत से उत्तर भारत आने का निश्चय किया।

कलकत्ता में मिला रमाबाई को सम्मान

धार्मिक ग्रंथो का गायन और पाठ करते हुए पैदल 25 हज़ार किलोमीटर का सफर करने के बाद वे कलकत्ता आ पहुंचे, जहां मंदिरों में हरि कथा का पाठ करना शुरू किया। स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास रखने वाले कलकत्ता के प्रबुद्ध लोगों ने रमाबाई को सम्मान देते हुए पंडिता और सरस्वती की उपाधियां भी दी। अब रमाबाई पंडिता रमाबाई पुकारी जाने लगीं।

रमाबाई ने अपने भाषणों से पौराणिक तथा वर्तमान समय में स्त्रियों के गिरते स्तर  को सामने लाने की कोशश की। स्त्रियों के शोषण की कोशिशों को उन्होंने दुष्ट लोगों के मस्तिष्क की उपज कहा। अपने भाई श्रीनिवास की असमय मृत्यु होने की वजह से रमाबाई अकेली पड़ गईं और मेरठ आ गईं।

जब परिणय सूत्र में बंधी रमाबाई

कुछ दिन स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ रहने के बाद उन्होंने नीची जाति से आने वाले विपिन बिहारी के साथ सिविल मैरिज अधिनियम के अंतर्गत अदालत में शादी की। रमाबाई का मानना था कि विवाह में पति और पत्नी दोनों समान भागीदार है इसलिए ज़रूरी है कि विवाह में दोनों की सहमति हो।

विपिन बिहारी विद्धान और कवि थे, रमाबाई गृहस्थ जीवन में रम गईं और मनोरमा का जन्म हुआ। रमाबाई श्रेष्ठतर धर्म की खोज में पुराणों और धर्मग्रंथों के अध्ययन में भी लगी रहीं। सन् 1882 में हैजे की वजह से विपिन बिहारी मृत्यु के बाद रमाबाई पुणे आ गईं।

संघर्षों की कर्मभूमि पुणे

पुणे रमाबाई के संघर्षों की नई कर्मभूमि बनी। यहां रूढ़िवादी समाज का विरोध भी उनको झेलना पड़ा और साथ ही साथ सुधारवादी लोगों ने रमाबाई की सराहना भी की। महिलाओं की शिक्षा के लिए रमाबाई हंटर आयोग के समक्ष कठिनाईयों और समस्याओं की पुरज़ोर मुखालफत की।

बालिका विद्यालयों के लिए शिक्षिकाओं और निरीक्षिकाओं की नियुक्ति सरीखे उपचारों पर सुझाव दिए। उन्होंने चिकित्सक और पारा-चिकित्सक के रूप में महिलाओं के प्रशिक्षण पर काफी ज़ोर दिया। उनके विचारों से महारानी विक्टोरिया भी प्रभावित हुईं और लेडी डफरीन ने इस दिशा में ज़रूरी कदम उठाए। भारत में महिलाओं के लिए डफरिन मेडिकल औषधालयों की एक पूरी श्रृखंला खड़ी हुई।

समाजसेवा की मिसाल पेश की

रमाबाई ने इंगलैड और कुछ देशों की यात्रा के दौरान अपनी किताब “हाई कास्ट हिंदू विमेंस” भी लिखी, जो काफी लोकप्रिय रही। बच्चों की शिक्षा की माॉटेसरी शिक्षा पद्धति से प्रभावित होकर उन्होंने मराठी में ‘बालोधान’ नामक से किताब भी लिखी।

पंडिता रमाबाई गर्ल्स हॉस्टल। फोटो साभार: Twitter

रमाबाई की महान उपलब्धियों में विधवाओं और असहाय महिलाओं के लिए स्थापित किया गया “शारदा सदन” है। उन्होंने विधवा पुर्नविवाह को भी प्रोत्साहित किया। शारदा सदन धीरे-धीरे स्कूल और विश्वविधालय का रूप लेने लगा।

आरोप-प्रत्यारोप का दौर

पुणे के रूढ़िवादी समाज ने उनपर आरोप लगाया कि वह असहाय महिलाओं को धर्मांतरण कराकर उन्हें इसाई बना रही हैं।लोकमान्य तिलक के समाचारपत्र “केसरी” के लेखों में भी उनपर काफी हमले हुए। 1889 के दिसंबर महीने में इलस्टेटेड क्रिश्चन सोसाइटीनामक पत्रिका में सदन में रहने वाली दो विधवाओं के धर्मांतरण की संभावना की खबर छपी। इसने कट्टर राष्ट्रवादियों और हिंदू धर्म के रखवालों की नींद उड़ा दी।

शारदा सदन पर ज़बरदस्ती धर्मांतरण करवाने, ईसाई धर्म प्रचारक संस्था होने और विदेशी धन से चलने के कारण राष्ट्रविरोधी होने का धुआंधार आरोप लगाया गया। तिलक का अखबार केसरीखुल्लम-खुल्ला बोल रहा था कि स्कूल की आड़ में स्त्रियों को ईसाई बनाने का काम चला रखा है।

इसका सार्वजनिक रूप से खंडन करना रमाबाई को अच्छा लगा। उन्होंने एक प्रतिष्ठित अखबार में यह खबर छपवाई कि सच्चाई यह है कि सदन की हर लड़की को अपने धार्मिक रीति-रिवाज़ों के पालन करने की आज़ादी है।

रमाबाई डटी रहीं, वह ईसाई मिशनरियों के सहयोग और रूढ़िवादी समाज के आरोप में पिसती रहीं मगर महिलाओं के हक के लिए उनहोंने घुटने नहीं टेके।

भारत में महिलाओं के संघर्ष के इतिहास में रमाबाई का पूरा जीवन, चिंतन और संघर्ष फीनिक्स के उस पक्षी के समान है, जिसका उल्लेख पुरानी कहानियों में मिलता है। प्रत्येक त्रासदियों के बाद भी उनका स्तर हमेशा ऊंचा होता गया। रमाबाई के संघर्षों का ही परिणाम है कि आज भारतीय महिलाओं को स्वतंत्र रूप से अपने जीवन के बारे में सोचने का हक मिल सका है।

नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य ताराबाइ शिंदे की किताब ‘स्त्री पुरूष तुलना’ से लिए गए हैं।

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