बच्चों द्वारा भीख मांगना पूरे समाज के लिए शर्मनाक और चिंता का विषय है। समय रहते हम जागरूक नहीं हुए तो आने वाले वक्त में इससे जुड़े आंकड़े और भी भयावह होंगे और इन बच्चों की स्थिति बदतर होती चली जाएगी।
हल्की धूल भरी लखनऊ की एक शाम। पाॅलिटेक्निक चौराहे पर पुलिस बूथ के बाईं ओर ओवरब्रिज के नीचे फटे, मैले कपड़ों में बिना चप्पलों के पांच से आठ साल की उम्र के चार-पांच बच्चे भीख मांग रहे थे। वे भिक्षा में मिले चंद सिक्कों को इस तरह गिन रहे थे जैसे अभी कोई आकर उनसे छीन लेगा। हम उन्हें देख ही रहे थे तभी एक औरत आती है और सभी बच्चों से भिक्षा के सारे पैसे लेकर अपनी पोटली में रख लेती है।
अचानक हमारे पास तीन-चार साल की एक मासूम सी बच्ची आ गई और उसने अपने दोनों हाथों को जोड़कर कहा, “बउजी, बउजी! सुबह से आज कुछ भी नहीं मिला है। दो रुपया दे दो।” पैसे ना देने पर वह अचानक पैरों को कस कर जकड़ लेती है। हमारे नाम पूछने पर उसने अपना नाम आरती (बदला हुआ नाम) बताया। हमारे द्वारा कुछ और पूछने पर वह झल्ला कर, बिना कुछ बोले ही वहां से ट्रैफिक के भीड़ में कही गुम हो गई।
उत्तर प्रदेश में भिक्षावृत्ति का कड़ा कानून लागू है लेकिन उसके बावजूद इसका खुले-आम उल्लंघन हो रहा है। राजधानी लखनऊ में न्यूज़टाइम्स पोस्ट ने अपनी दो महीनों की लंबी जांच-पड़ताल में यह पता लगाने की कोशिश की तो बाल-भिक्षावृत्ति से जुड़ी तस्वीरें और भी भयावह होती नजर आई। साथ ही यह भी पता चला कि बच्चों से भिक्षा मंगवाने का कार्य बड़े सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। कई मासूम बच्चों को इस जाल में फंसा कर उनका शोषण किया जा रहा है।
पड़ताल यह बताती है कि राजधानी लखनऊ में किस तरह सभी प्रमुख चौराहों, शाॅपिंग माॅलों, रेलवे स्टेशनों से लेकर पुलिस चौकियों के चंद कदम की दूरी पर ही पुरूष और महिलाएं चार-पांच साल के बच्चों से भिक्षावृत्ति कराते नज़र आते हैं। पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है और इन्हें आसानी से नज़रअंदाज़ कर जाती है।
रेहान के गायब होने पर पुलिस ने नहीं की मदद
रिपोर्ट में 19 जनवरी की एक घटना का ज़िक्र मिलता है। तीन वर्षीय मासूम रेहान (बदला हुआ नाम) अपने काका के पीछे जा रहा होता है। गलती से हाथ छूट जाता है, जिस कारण काका तो आगे निकल जाते हैं लेकिन रेहान पीछे ही रह जाता है। उन्हें लगता है वह शायद घर निकल गया होगा। कुछ देर बाद जब यह पता चलता है कि बच्चा घर आया ही नहीं तो पूरा घर और मोहल्ला परेशान हो जाते हैं और रेहान की खोज में लग जाते हैं।
पुलिस में एफआईआर दर्ज करवाई गई कि बच्चा गुम हो गया है। फिर भी कोई हल नहीं निकला। तीन दिन बाद जब रेहान के पिता वसीम को उनकी पत्नी ने सूचना दी कि उनका बेटा गुम हो गया है तो वह अपनी नौकरी छोड़ कर घर वापस आ गए और अपने बच्चे की तलाश में लग गए। घर वालों ने दिन-रात रेहान को हर गली, मोहल्ला, सड़क और चौराहे पर पागलों की तरह ढूंढा लेकिन वह नहीं मिला।
एक दिन एक 14-15 साल के नाबालिग भिक्षु ने रेहान के पिता और उनके मित्र को सूचना दी कि उसने रेहान को चारबाग रेलवे स्टेशन के बाहर एक वयस्क भिक्षु औरत के साथ भीख मांगते हुए देखा है। यह सुन कर वसीम को मानो सदमा सा लग गया। उन्होंने जब यह बात पुलिस को बताई तब पुलिस ने किसी भी तरह की मदद करने से इनकार कर दिया। पुलिस की मदद नहीं मिलने से उनका पूरा परिवार बिल्कुल टूट चुका था।
वसीम, उनकी पत्नी और उनके सभी मित्रों ने योजना बनाई कि अब अपने बच्चे का पता खुद लगाएंगे। अचानक उन्हें उस भिक्षु महिला का पता मिल गया जिसने उनके बच्चे को उठा कर उसे भिक्षावृत्ति में धकेला था। बताए गए स्थान पर वह महिला तो नहीं मिली पर उस महिला का पति ‘राम रतन’ मिल गया। उसने यह स्वीकार किया कि रेहान उनके साथ है। उसने बताया कि उसकी पत्नी अभी बिहार के मोकामा घाट, पटना गई हुई है। वसीम और उनके परिजनों की मुसीबत मानो और बढ़ती ही जा रही थी।
वसीम उसी रात अपने दोस्त की कार से राम रतन को लेकर पटना के मोकामा घाट पहुंच गए। वहां उन्होंने जो देखा उससे उन सभी के होश उड़ गए। वहां चारों ओर झुग्गियां ही झुग्गियां थी और इन झुग्गियों में चोरी किए हुए बच्चों को पांच-पांच हज़ार रुपए में बेच दिया जाता था। इसके बाद उन्हें चोरी और बाल-भिक्षावृत्ति के काम में लगा दिया जाता था।
वसीम को वहां उनका बच्चा तो मिला ही, साथ ही लखनऊ का ही एक और बच्चा मिला जिसे उसी महिला ने अगवा किया था। तकरीबन 18 दिन वसीम और उनके परिजन बिना पुलिस की सहायता के राजधानी की सड़कों से लेकर मोकामा घाट तक गए, तब जाकर उन्हें उनका बच्चा मिला। वहां से दूसरे बच्चे को चंगुल से मुक्त करवाकर उन्होंने पुलिस की भी मदद कर दी थी।
उच्च न्यायालय के आदेश पर 15 बाल-भिक्षुओं को रेस्क्यू किया गया
राजधानी में बच्चा अगवा कर उनसे भीख मंगवाने, तस्करी और बाल श्रम में धकेलने वाले कई वयस्क अपराधियों का सरगना सड़कों से लेकर झुग्गियों में भेष बदल कर बेखौफ घूम रहा है और अपना धंधा चमका रहा है लेकिन बच्चों की सुरक्षा के लिए बनी पुलिस की तमाम इकाईयां सक्रिय भूमिका नहीं निभा पा रही हैं।
राजधानी लखनऊ में थानों में दर्ज रिपोर्टों, उच्च न्यायालय के आदेशों और न्यायालय बाल कल्याण समिति के सूत्रों द्वारा दस्तावेज़ों को खंगालने पर न्यूज़टाइम्स पोस्ट को बच्चों से जुड़े सुनियोजित गिरोह का पता चलता है। बीते 8 अगस्त, 2018 को माननीय उच्च न्यायालय के आदेशानुसार न्यायालय बाल कल्याण समिति को एक आदेश जारी होता है कि राजधानी के वीवीआईपी स्थानों पर बाल-भिक्षावृत्ति क्यों हो रही है?
अगली सुबह ही चाईल्डलाइन की टीम, जिला बाल संरक्षण इकाई, बचपन बचाओ आंदोलन, विशेष किशोर पुलिस इकाई, चाईल्डलाइन में इंटर्नशिप कर रहे कुछ मनोविज्ञान के छात्र-छात्रा, समिति के आदेश पर कड़ी मशक्कत कर 15 बाल-भिक्षुओं को रेस्कयू कर समिति के सामने पेश करने में सफल रहे। इसके साथ ही उन्होंने 2 महिलाओं को भी पकड़ा जो बच्चों से भीख मंगवाती थी।
जिला बाल संरक्षण इकाई (डीसीपीयु) और बचपन बचाओ आंदोलन से जुड़े सूत्रों ने हमें बताया कि वे सभी 15 बच्चे बहुत डरे हुए थे। चाईल्डलाइन में इंटर्न कर रहे इंटर्न सूत्रों ने नाम ना लिखने की शर्त पर बताया कि जिस तरह से पकड़ी गई महिलाएं लगातार झूठ बोल रही थी, उससे यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि ये बच्चे उन महिलाओं के तो बिल्कुल भी नहीं थे।
बाल-भिक्षुओं को प्रशिक्षण देती थी पकड़ी गई भिक्षु महिलाएं
लखनऊ न्यायालय बाल कल्याण समिति की महिला सदस्य सुधा रानी बताती हैं कि बाल-भिक्षावृत्ति का धंधा सुनियोजित है। वह आगे बताती हैं कि उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार सीब्ल्यूसी और सभी इकाईओं की टीमों द्वारा रेस्कयू कर लाए गए 15 मासूम बच्चों को दोनों भिक्षु महिलाएं भीख मांगना सिखाती थी। उन्होंने आगे बताया कि इन बच्चों को इस चंगुल में फंसा कर इनका पूरी तरह से शोषण हो रहा था और कुछ बच्चों को बच्चियों के रूप में भीख मांगने की ट्रनिंग दी जाती है। इस गिरोह का एक स्कूल भी है, जहां शिक्षा की जगह भिक्षा मांगने की ट्रेनिंग दी जाती है।
राजधानी में हर चौराहे से लेकर सभी स्थानों पर महिलाएं एक कोने में बैठती है और बच्चों-बच्चियों द्वारा सुनियोजित तरीके से भिक्षा मंगवाई जाती है। उससे भी कहीं ज़्यादा चिंता की बात यह है कि इस कार्य में काफी संख्या में चार-पांच साल की बच्चियों की ज़िन्दगी नर्क बन जाती है लेकिन समाज में उनकी सुरक्षा के ज़िम्मेदार लोग मानो आंखों पर पट्टी बांध कर बैठे हैं।
उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ने बाल भिक्षावृत्ति रोकने के लिए पुलिस थानों को लिखी चिट्ठी
बीते 21 जून को बच्चों से जुड़े गंभीर और सुनियोजित अपराधों को लेकर उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह ने सभी थानों को और बच्चों की सुरक्षा के लिए बनी सभी इकाईयों को एक चिट्ठी जारी कर निर्देश दिए। साथ ही इस पर चिंता भी व्यक्त की। चिट्ठी के कुछ अंशः
प्रिय महोदय/महोदया,
आप अवगत हैं कि बच्चों का गुम हो जाना एक अत्यंत गंभीर प्रकरण है। कुछ बच्चे ज़रूर अपनी इच्छा से घर छोड़कर भाग जाते हैं लेकिन इस बात से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता है कि बच्चे फिरौती मांगने के लिए, संगठित गिरोह द्वारा भीख मंगवाने के लिए, मादक दव्य का व्यापार करवाने के लिए, जेब कटवाने के लिए, बाल श्रमिक के रूप में उपयोग के लिए एवं अंग प्रत्यारोपण के लिए अगवा किए जाते हैं। विशेष रूप से लड़कियों को यौन शोषण के लिए विभिन्न शहरों एवं विदेश में अनैतिक व्यापार के लिए अगवा किया जाता है।
आप सहमत होंगे कि जहां एक ओर यह एक गंभीर आपराधिक कृत्य है, वहीं दूसरी ओर बच्चों का गुम हो जाना उनके माता पिता एवं उनके पारिवारिक सदस्यों के लिए मानसिक आघात है। पुलिस को गुमशुदा बच्चों के संबंध में अत्यंत संवेदनशील होने की आवश्यकता है। बच्चों के गुम होने के मामले माननीय न्यायालयों, आयोगों और मीडिया में प्रमुखता से उठाए जाते हैं। गुमशुदा बच्चों की बरामदगी एवं पुलिस कार्यवाही संबंधी परिपत्र समय-समय पर विस्तृत दिशा-निर्देश के साथ निर्गत किए गए हैं, जो पाश्वांकित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यालय स्तर से निर्गत परिपत्रों का सही तरीके से अनुपालन नहीं किया जा रहा है।
बात राजधानी लखनऊ की करे तो हमारी तहकीकात बताती है कि निदेशालय, समाज कल्याण विभाग, जिला प्रोबेशन अधिकारी और बाल कल्याण समिति के यह संज्ञान में ही नहीं है कि उनके शहर लखनऊ में मासूम भिक्षुओं का आंकड़ा क्या है। यह भी पता चला की संविधान के मौलिक अधिकार – अनुच्छेद 21ए का साफ तौर पर उल्लंघन हो रहा है क्योंकि ना तो उन बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल रही और ना ही उनके रहने का कोई आसरा है।
अगर असलियत में इन बच्चों लिए कुछ हो भी रहा है तो वह सिर्फ कागज़ों की लाल, नीली स्याही तक ही सीमित है। यह चिंताजनक बात है कि हज़ारों की तादाद में कई मासूम बच्चे भिक्षावृत्ति के धंधे मे लगे हैं और खानाबदोश की ज़िंदगी जी रहे हैं।
सीब्ल्यूसी की महिला सूत्र नाम नहीं लिखने कि शर्त पर कहती हैं कि बाल-भिक्षुओं का आंकड़ा किसी भी संस्था के पास ना होना बहुत ही चिंताजनक बात है। उन्होंने यह भी कहा कि इसकी ज़िम्मेदारी लेबर विभाग को लेनी होगी क्योंकि किसी बच्चे से कोई भिक्षावृत्ति करा रहा है तो यह बाल-मज़दूरी की श्रेणी में आएगा लेकिन लेबर विभाग इससे किनारा कर लेता है।
लखनऊ के राजकीय बाल गृह के एक वरिष्ठ कर्मी अपना नाम सामने ना आने की शर्त पर कहते हैं कि बाल भिक्षावृत्ति को रोकने के लिए कोई आगे नहीं आना चाहता है। वह कहते हैं कि इसमें ऊपर से नीचे सब खेल हो रहा है और पुलिस अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए। वह आगे बताते हैं कि लखनऊ में ऐसे बाल-भिक्षुओं की संख्या हज़ारों में है पर दुर्भाग्य यह है कि उनके लिए बाल गृहों की संख्या काफी कम है।
महिला एवं बाल विकास विभाग के तहत एकीकृत बाल संरक्षण योजना और तमाम तरह की योजनाएं उन बच्चों के लिए चलाई जा रही है जो बाल-भिक्षावृत्ति में फंसे हुए हैं लेकिन ऐसा लगता है कि ये योजनाएं उन बच्चों तक नहीं पहुंच पा रही हैं।
उत्तर प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष डॉ विशेष गुप्ता बाल-भिक्षावृत्ति जैसे गंभीर मुद्दे पर कहते हैं कि यह बाल संरक्षण आयोग की ज़िम्मेदारी है। वह आगे कहते हैं कि राजधानी में सैकड़ों गैर सरकारी संगठन बच्चों की शिक्षा और उनके बचाव के लिए काम कर रहे हैं। उनके पास लाखों रुपए का बजट है जो राज्य की सरकार द्वारा दिया जाता है। हालांकि देखने में यह आ रहा है कि कुछ संगठनों का काम तो अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर देखने और सुनने को मिलता है पर ज़मीनी स्तर पर उनका काम नज़र नहीं आता है। वह आगे बताते हैं कि ऐसे बच्चों की सुरक्षा के लिए बनी पुलिस की इकाईयों में उतना अधिक तालमेल नहीं है जितना होना चाहिए।
बाल-भिक्षावृत्ति को जड़ से खत्म करने के लिए आंदोलन कर रहे छात्र शरद पटेल से बातचीत
लखनऊ में भिक्षावृत्ति और बाल-भिक्षावृत्ति को जड़ से खत्म करने के लिए पिछले चार वर्षों से लखनऊ के छात्र शरद पटेल सड़कों पर उतरे हुए हैं। शकुंतला विश्वविद्यालय में एमएसडब्ल्यू के छात्र और शोधार्थी शरद पटेल हमें बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में खुले तौर पर भिक्षावृत्ति कानून लागू होने के बावजूद भी इसका उल्लंघन किया जा रहा है। वह आगे बताते हैं कि दुबग्गा बाई पास और सीतापुर रोड से उन्होंने करीब छः से सात महीनों में 74 बाल-भिक्षुओं को इस दलदल से निकाल कर उनका परामर्श कर उन्हें शिक्षा से जोड़ा है।
शरद हमें आगे बताते हैं कि यह चिंताजनक बात है कि बाल और बालिका गृह उतनी अधिक संख्या में नहीं हैं जितनी ज़रूरत है और जो हैं उनमें भी बच्चों के व्यवहार परिवर्तन के लिए उतने बेहतर ढंग से उपचार नहीं हो रहा है जैसा होना चाहिए। वह आगे बताते हैं कि मुद्दा चाहे वयस्क या बाल-भिक्षुओं का हो, अगर हमें उन्हें इस चंगुल से वाकई मुक्त कराना है तो पहले उनके व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा और उनका पुनर्वास करना होगा।
वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि समाज, सरकारी संगठन, गैर सरकारी संगठन, राज्य सरकार, केंद्र सरकार, सभी को इस समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होना पड़ेगा तभी उन बच्चों की ज़िंदगी में बेहतर बदलाव आ पाएगा। अगर हमने इसे आज नहीं रोका तो कल बाल भिक्षुओं की संख्या बढ़ती जाएगी जो पूरे समाज के लिए शर्मनाक बात होगी।