देश की राजधानी दिल्ली का जायज़ा लीजिए। सड़क कम गाड़ियां ज़्यादा, कंक्रीट की सड़कों पर गाड़ियों का जंगल उगा जा रहा है। अगर आप इस हुजूम में फंस गए तो क्या रात क्या दिन ज़िंदगी बसर सड़क पर ही होती प्रतीत होती है। चाहे फिर लाखों की गाड़ी हो या करोड़ों का बैंक बैलेंस सड़क पर इस तरह फंसे तो सबकुछ धरा का धरा रह जाता है।
यहां सिस्टम नहीं बल्कि पैसा काम करता है और पैसा इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं सुविधा देखता है। सोचिए जनता के लिए 20 मेट्रो , 10 हज़ार बस, टेम्पो, टैक्सी हैं पर 80 लाख कार इस कदर हावी हैं कि आधी उम्र तो सड़क पर गाड़ी में बैठे-बैठे बीत जाती है। बात दरअसल दिल्ली की नहीं भारत की हो रही है जहां दिल्ली जैसे दर्जनों शहर हैं। इस परिदृश्य में स्मार्ट शहर बनाने की सनक सवार है मोदी सरकार को।
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पहले उन्हें गांवों को स्मार्ट बना कर हाशिए पर पड़े भारत को सम्मानजनक ज़िन्दगी देनी चाहिए। हाशिए पर पड़ा भारत यानी वह भारत जहां खेती की ज़मीन पर निर्भर साढ़े तीन करोड़ किसान-मज़दूरों के परिवारों को कोई पूछने वाला नहीं है क्योंकि सत्ता फिक्र करती है तो सिर्फ शहरों की।
सूखे से जूझना और बरसात के पानी में डूबना देश का ऐसा अनूठा सच है जहां इक्कीसवीं सदी में विकास का हर नारा झूठ लगता है। दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद में स्कूल की फीस ना चुका पाने के हालात ने एक लड़की को खुदकुशी करने पर मजबूर कर दिया। यह तो दिल्ली से सटे क्षेत्र की बात है इसलिए जग ज़ाहिर हो गई वरना देश के कोने-कोने में इन हालातों की शिकार कितनी मासूम आवाज़ प्रतिदिन दब जाती है।
दूसरी तरफ बेरोज़गारी की त्रासदी से हर दिन दो सौ से ज़्यादा बच्चों को घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है। अब इन परिस्थितियों में बच्चों को कौन सी शिक्षा दी जाए यह प्रश्न स्वभाविक है क्योंकि मुश्किल कल की नहीं बल्कि मुश्किल तो आज की है।
शिक्षा के मद्देनज़र देश का सच यह है कि आज भी 22% बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं और पहली से आठवीं कक्षा तक 37% बच्चे मज़दूर बनने के लिए स्कूल छोड़ देते हैं।दसवीं पास करने वाले महज 21% बच्चे ही रह जाते हैं। सिर्फ 2% बच्चे उच्च शिक्षा ले पाते हैं और उनमें से भी 70% देश में पढ़ाई के बाद काम नहीं करते यानी अधिकतर विदेश रवाना हो जाते हैं। इसी देश में शिक्षा के नाम पर कमाई करने वाले हर वर्ष साढ़े चार लाख करोड़ का कारोबार करते हैं। सरकार के शिक्षा के बजट से तीन गुना ज़्यादा रईस परिवार अपने बच्चों को विदेश में पढ़ने के लिए हर वर्ष खर्च कर देते हैं।
अब ज़रा सोचिए देश स्मार्ट बन रहा है या फिर देश इंडिया और भारत में बंट रहा है। ऐसी स्थिति में संविधान के तहत दिया गया शिक्षा का अधिकार भी कठघरे में क्यों ना दिखाई दे?आज जिस कल की नींव रखी जा रही है उसका सच यही है कि देश की अर्थव्यवस्था ही चंद हथेलियों पर सिमट रही है यानी देश की कुल अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा कर्ज के रूप में हड़प कर विदेश भाग जाने की होड़ मची है देश के ठगों में। देश को लूटने वाले ये ठग विदेश से ठेंगा दिखा रहे हैं और हमारा सिस्टम ठेंगा देख रहा है।
सी.बी.आई. बैंक फ्रॉड के 150 मामलों की जांच कर रही है जिसकी रकम महज 20,000 करोड़ है। तो सोचिए देश की मज़बूती किन हाथों में सौंपें खासकर तब जब देश में सबसे ज़्यादा व्यवस्था मोबाईल पर आ टिकी है। हाथों में मोबाईल से पानी के खौफ को भी सेल्फी में उतारने का जुनून है। लातूर जैसे सूखे इलाके में पानी लाने की जगह मंत्री जी सूखे को ही सेल्फी में उतारने लगी। ज्ञात हो कि महाराष्ट्र की मंत्री पंकजा मुंडे मुंबई यानी इंडिया से लातूर यानी भारत पहुंची और लातूर के सूखे का मुआयना कर रही मंत्री जी ने सेल्फी ले ली।
कल्पना की कोई सीमा नहीं है इसलिए इंडिया के लिए सरकार कल्पना में लीन होकर एफ.डी.आई, स्मार्ट शहर और बुलेट ट्रेन जैसे सपनों के लिए विदेशी पूंजी और विदेशी तकनीक से रास्ता निकालने की कोशिश में है। स्वदेशी सोच यानी भारत विदेशी पूंजी के तले काफूर होने को मजबूर है क्योंकि एफ.डी.आई. का विरोध करने वालों ने ही मान लिया है कि एफ.डी.आई. के ज़रिए देश विकास के रास्ते पर चल सकता है और रोज़गार बढ़ सकते हैं।
भारत का सच यही है कि उद्योग धंधों की रफ्तार रुकी हुई है, रोज़गार पैदा नहीं हो पा रहे हैं, नई इंडस्ट्री लग नहीं रही है, खेती-उद्योग का योगदान जी.डी.पी. में घटते-घटते अपनी निचली सीमा से कदम ताल कर गया है। स्वदेश का पाठ वाकई पीछे छूट गया है जो हुनर को रोज़गार देता और रोज़गार से सरोकार बनाता।
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पी.एम.ओ. में राज्य मंत्री यह समझा ही नहीं पा रहे थे कि आखिर स्मार्ट सिटी होंगे कैसे क्योंकि अभी तो हम जिन शहरों को साइबर सिटी के रुप में जानते-पहचानते आए हैं उनका हाल कैसे बेहाल हो जाता है यह हर साल की बरसात में सामने आ जाता है।
क्या स्मार्ट शब्द उस आधुनिकता से जुड़ा है जो सिर्फ और सिर्फ तकनीक पर निर्भर व्यवस्था से होगा? क्या स्मार्ट सीटी में पैर ज़मीन पर नहीं आसमान में रखे जाएंगे? देश में 100 स्मार्ट सिटी और शहरी व्यवस्था को सुधारने का जो बजट है अगर दोनों को मिला दिया जाए तो 7296 करोड़ रुपए होते हैं जबकि स्मार्ट सीटी के लिए 4091 करोड़ बजट रखा गया है यानी लगभग आधा।
कल्पना कीजिए कि बरसात में जिस गुड़गांव की सड़कें ऐसे नालों में तब्दील हो जाए कि वहां दिन के 22 घंटे का जाम लग गया हो और हालात नियंत्रण में लाने के लिए धारा 144 लगानी पड़ी हो उस गुडगांव नगर निगम का सालाना बजट 2000 करोड़ का है। ऐसे में एक गुड़गांव शहर के अपने बजट से सिर्फ दोगुने बजट में देश कैसे नरेंद्र मोदी के 20 स्मार्ट सिटी बनाने की कल्पना को स्वीकार करेगा?
स्मार्ट सिटी का रास्ता सही दिशा में नहीं जा रहा है या फिर भारत में स्मार्ट सिटी की सोच ही भ्रष्टाचार की जननी है? गुड़गांव ही नहीं बल्कि बैंगलोर, मुबंई या फिर किसी भी शहर का इन्फ्रास्ट्रक्चर इस तरह तैयार ही नहीं किया गया है कि अगले दस से बीस साल में शहर की आबादी यदि उम्मीद से कहीं ज़्यादा बढ़ रही हो तो शहर की व्यवस्था चरमराने ना पाए। सच्चाई तो यह है कि 70 से 90 के दशक के बाद से किसी शहर के इंफ्रास्ट्रक्चर में कोई बदलाव हुआ ही नहीं है।
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30 एम.एम. से ज़्यादा बरसात होने पर निकासी की कोई व्यवस्था किसी शहर में हुई ही नहीं जबकि दस लाख से ऊपर की आबादी वाले सौ से ज़्यादा शहरों में बीते दो दशक में आबादी तीन गुना से ज़्यादा बढ़ चुकी है। ग्लोबल वार्मिंग ने भी मौसम बदला लेकिन बदलते मौसम का सामना करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर बदल कर मज़बूत कैसे किया जाए इस दिशा में मोदी सरकार ने गंभीरता कभी दिखाई ही नहीं।
स्मार्ट सिटी का खाका तैयार करने वाले नौकरशाहों के आंकड़ों को समझें तो उनके मुताबिक 13 करोड़ लोगों को स्मार्ट सिटी के बनने से फायदा होगा। सवा सौ करोड़ के देश में जब जीने की न्यूनतम ज़रूरतों के लिए हर साल गांव से 80 लाख से एक करोड़ ग्रामीणों का पलायन शहर में हो रहा है तो शहरों के बोझ को सहने की ताकत बढ़ाने की ज़रूरत है या यूं कहे कि गांव को स्मार्ट और सक्षम बनाने की ज़रूरत है। गांव से पलायन रुकेगा तभी शहर से भार घटेगा। इसके परिणामस्वरूप इंडिया और भारत का फर्क मिटेगा।
तो ज़रा सोचिए कि क्या मोदी सरकार की कल्पना से निकलते शिगूफे एक सनक मात्र ही सिद्ध नहीं होते हैं? वैसे इस कड़ी में प्रधानमंत्री द्वारा कही एक और बात को भी जोड़िये। उन्होंने कहा था कि ई-बैंकिंग, मोबाइल-बैंकिंग और ऐसे बहुत सारे तकनीक के इस्तेमाल का समय सब के लिए खासतौर पर युवा मित्रों के लिए आ गया है। तो प्रधानमंत्री एक तरफ गणेश जी में सर्जरी का कमाल देखते हैं तो दूसरी तरफ अमेरिकी बैंकों द्वारा बनाई गई कार्ड संस्कृति को बेचते हैं।
देश का अपना आधार-भूत ढांचा कहां है? चीनी, अमेरिकी मोबाइल फोनों के उपभोक्ताओं की संख्या भले ही लगभग 103.5 करोड़ हो गई हो लेकिन इनमें से केवल 30% ही स्मार्टफोन उपभोक्ता हैं। इस पर भी मोबाइल डाटा का इस्तेमाल महज एक तिहाई लोग ही करते हैं जिनमें अधिकांश शहरी हैं।
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ग्रामीण भारत की बात करें तो अभी तक इंटरनेट वहां पूरी तरह से पहुंच नहीं सका है। गांवों में ई-वॉलेट, प्लास्टिक मनी, नेट बैंकिंग अभी तक दूर की कौड़ी है। असल में यहां साक्षरता का ही अता-पता नहीं है फिर डिजिटल चीज़ों की अज्ञानता होना स्वाभाविक है। इंडिया और भारत में अंतर रहते हुए देश कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर कभी नहीं बढ़ पाएगा। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने वाले मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा पिछड़े भारत में ही बसता है जो उनके ‘अच्छे दिन’ के जुमले से भ्रमित हो गया था।
पत्रिका में छपी खबर के अनुसार डिजिटल इंडिया के इस युग में उमरिया जिले के पाली विकासखंड के ग्राम पंचायत मुदरिया के अंतर्गत बघौड़ नामक गांव में लोगों को पीने के लिए साफ पानी भी नहीं मिल पा रहा।
इस गांव में महज पानी की ही समस्या नहीं है बल्कि इस गांव में ना सड़क है, ना लाइट है, ना स्कूल है, और ना ही स्वास्थ्य व्यवस्था है। खैर हमें और आपको इंडिया में रहने वाले भारत का दर्द क्यों दिखे? सच की तलाश कीजिएगा कि इंडिया के 4% के मुकाबले 96% भारत कहां और क्यों छूटा जा रहा है? नोटबंदी का सच जैसे-जैसे सामने आएगा भारत खुद को प्रताड़ित, शोषित और ठगा हुआ सा महसूस करेगा।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य मोहम्मद सरताज आलम की किताब ‘जुमलों से पेट नहीं भरता’ से लिए गए हैं।