भारत में इस समय लोकसभा चुनावों का दौर है, जो कि लोकतंत्र की महत्वपूर्ण विशेषता को दर्शाता है, सामान्य प्रतिनिधित्व पर ज़ोर देता है। भारत में राजनीति ने अभी तक महिलाओं को उनका अधिकार प्रदान ही नहीं किया है, वह अधिकार है राजनीति के अंतर्गत निर्णय लेने का और संसद और विधानसभा में उनका निश्चित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना।
इस चुनाव में प्रत्येक राजनीतिक दल अपने-अपने तरीकों से लोगों के मत प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं दूसरी और राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में महिला सशक्तिकरण और राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व का मुद्दा पूरी तरीके से गायब है। यदि हम भारत में महिलाओं की स्थिति 2014 के लोकसभा चुनाव के आधार पर देखें तो वह लगभग 12% के आसपास है। यानि अभी भी आधी आबादी को अपना पूरा हक प्राप्त ही नहीं हुआ है।
इसके पीछे हमारे समाज की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अशिक्षा मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है।
- यदि हम इतिहास में देखे तो अमेरिका और ब्रिटेन पहले ऐसे देश हैं, जहां महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुआ।
- वहीं भारत में वोट देने का अधिकार आज़ादी के बाद ही प्राप्त हो गया था।
- यदि हम भारत में महिलाओं की भागीदारी एक मतदाता के रूप में देखें तो उसमें काफी वृद्धि हुई है परंतु जब बात की जाती है एक प्रतिनिधि के रूप में चुनाव लड़ने की, वहां उनकी संख्या काफी कम है।
राजनीति में जो महिलाएं हैं भी उनमें आम तबका का प्रतिनिधित्व लगभग नदारद है
यदि हम वर्तमान समय की बात करें तो राजनीति में वही महिलाएं सक्रिय हैं, जिनका परिवार राजनीति में सक्रिय है, चाहे वह सोनिया गांधी हो या डिंपल यादव। वहीं दूसरा माध्यम फिल्म, खेलकूद से जुड़ी महिलाएं रही हैं, जो कि राजनीति में आई हैं और राजनीतिक दलों ने अपने हितों को प्राप्त करने हेतु महिलाओं को टिकट दिए हैं परंतु वास्तविक सच्चाई यही है कि देश की 50% आबादी को अभी भी राजनीति से दूर रखा गया है।
पिछले दो दशकों में वैश्विक स्तर पर सौ से अधिक देशों ने 1995 में बीजिंग में आयोजित महिला विश्व सम्मेलन के बाद से महिलाओं को राजनीति में आने के लिए सकारात्मक कार्रवाई नीति (Affirmative action) पेश की है। सकारात्मक कार्रवाई नीति का लक्ष्य महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है, संसद और राज्य विधायी निकाय में।
क्यों ज़रूरी है महिला आरक्षण?
भारत में काफी समय से महिलाओं की भूमिका को संसद और विधानसभा में निश्चित करने हेतु 33% आरक्षण की बात की जाती रही है परंतु इसे कभी भी लागू नहीं किया गया है। यह केवल अखबारों की हेडलाइंस के रूप में रह गए हैं। यदि हम 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बंगाल में तृणमूल कॉंग्रेस ने 40% और उड़ीसा में बीजू जनता दल ने 33% टिकट महिलाओं को प्रदान किए हैं, जो सकारात्मक कदम है।
वहीं यदि आरक्षण व्यवस्था का उदाहरण हम पंचायत स्तर पर देखें, जहां महिलाओं की भूमिका में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जहां उनकी भागीदारी 33% से 50% रही है। परंतु सभी महत्वपूर्ण निर्णय चाहे वह नीति निर्माण करना हो या उन्हें लागू करना हो सभी फैसले राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर लिए जाते हैं, जहां महिलाओं की भूमिका को निश्चित करना बहुत ज़रूरी है।
चाहे वह संसद हो या विधानसभा भारत में आरक्षण एक ऐसा माध्यम बनकर उभर सकता है, जिससे कि राजनीति में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित की जा सकती है और समाज को काफी हद तक बदला जा सकता है ।
ऐसा भी नहीं रहा है कि महिलाएं पूरी तरीके से सक्रिय राजनीति से बाहर रही हैं, विजयलक्ष्मी हो या आज के समय में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज या लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन सक्रिया राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का ये बेहतर उदाहरण हैं। यदि हम संसद और विधानसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को निश्चित करते हैं तो यह महिला सशक्तिकरण के रूप में एक महत्वपूर्ण पहल होगी, जहां उनका प्रतिनिधित्व निश्चित होगा और नीति निर्माण में भी उनका योगदान सामने आएगा।