‘राजनीतिक भागीदारी’ इस शब्द का उच्चारण जितना महान और विशाल है, अगर महिलाओं के पक्ष में देखें तो बहुत ही कमतर और तुक्ष दिखाई पड़ता है, क्योंकि भारत जैसे देश में जब सारी राजनीतिक पार्टियों को कोई और राह दिखाई नहीं पड़ती तब उन्हें महिलाओं की अचानक से याद आती है, जिन्हें वे हथियार के तौर पर समाज में इस्तेमाल करते हैं।
उन्हें राजनीति के अखाड़ों में उनके पतियों, भाइयों और पिताओं के पीछे खड़ा करके अपने-अपने पार्टी की प्रत्याशी के तौर पर दिखाते हैं। भारत में महिलाएं मतदान में भाग लेती हैं, पुरुषों की तुलना में निचले स्तरों पर सार्वजनिक कार्यालयों और राजनीतिक दलों के लिए कार्य करती हैं। राजनीतिक सक्रियता और मतदान महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के सबसे मज़बूत क्षेत्र रहे हैं।
ऐसा इसलिए नहीं कि इनको उस तरह से रखा गया या वह पदवी दी गई बल्कि इस वजह से क्योंकि हमारा समाज घरेलू तौर पर महिलाओं को असीम शक्तियां प्रदान करता है। पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक। इसमें घरों में जाकर प्रचार करने से लेकर महिलाओं, बच्चों और माताओं से वार्तालाप करने तक सब आता है और यह राजनीतिक पार्टियों के लिए भी बहुत आसान हो जाता है, क्योंकि यह किसी रैली को कंडक्ट कराने से ज़्यादा आसान और किफायती है।
महिलाओं का वोट देने का अधिकार
अंग्रेज़ों से आज़ादी पाने के बाद जब भारत में भारतीय संविधान 1950 में आधिकारिक तौर पर गठित हुआ, तब भारतीय महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया गया। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक कदम था क्योंकि उस समय किसी भी यूरोपियन देश में किसी भी महिला को वोट देने का अधिकार नहीं था, यह प्रथा भारत में चली थी।
इसके लिए मैं हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा उनके मंत्रिमंडल का शुक्रिया व्यक्त करता हूं। यह अधिकार उन्हें उनके पिता या पति की जायदाद अथवा उनकी शिक्षा को देखकर दिया गया, जिसे मैं थोड़ा बायस्ड मानता हूं। इसने बड़ी संख्या में भारतीय महिलाओं (और पुरुषों लेकिन महिलाओं की तुलना में बहुत कम) को मतदान से बाहर कर दिया, क्योंकि वे गरीब थीं या पढ़ी-लिखी नहीं थीं।
1962 में 16.7% और 2009 में 4.4% के अंतर के साथ पुरुष और महिला मतदाताओं के बीच का अंतर समय के साथ कम होता गया और 2014 के संसदीय आम चुनावों के दौरान महिलाओं का मतदान 65.63% था, जबकि पुरुषों के लिए यह 65.09% था। यह आंकड़ा काफी कम होता दिखाई दिया।
ये आंकड़े क्या सच बोलते हैं? वास्तविकता के धरातल पर हमें कुछ और ही देखने को मिलती हैं, जहां भारतीय महिलाएं वोट देने तो जाती हैं मगर किसे देना है यह उनके पिता, पुत्र या पति द्वारा पहले से ही तय दिया जाता है। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि हमरा समाज, हमारा परिवेश और हमारा कल्चर हमेशा महिलाओं को घरेलू ही समझता रहा है, उन्हें राजनीतिक दृश्टिकोण से बहुत ही नासमझ और अवैचारिक समझा गया है। जबकि बीहड़ गाँव से लेकर बड़े शहरों तक, महिलाओं ने राजनीतिक सशक्तिकरण का कार्य बखूबी निभाया है।
महिलाओं के लिए राजनीतिक संघर्ष
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के वार्षिक वैश्विक जेंडर गैप इंडेक्स अध्ययनों के अनुसार, जो इस तरह के व्यापक पैमाने पर विचार करता है, भारत कई वर्षों से दुनिया भर के शीर्ष 20 देशों में और 2013 में 9वें सर्वश्रेष्ठ स्थान के साथ एक अलग नज़रिया पेश करते हुये डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम को भी पीछे छोड़ दिया है।
महिलाओं के लिए राजनीति में आरक्षण की कवायद 1994 से चलती चली आ रही है। पहले यह 33% थी अभी राजनीतिक कम्पटीशन की वजह से 50% कर दिया गया है। कई राज्यों जैसे कि आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, ओडिसा, राजस्थान, त्रिपुरा, और उत्तराखंड में यह 50% आरक्षण लागू भी है।
ओडिसा, इकलौता एक ऐसा राज्य था जिसने 1994 के 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन के पहले ही महिलाओं के लिए आरक्षण ले आया था। उनके पास 1992 में 28069 महिलाएं और 1997 में 28595 निर्वाचित महिलाएं थीं। पेयजल और सड़क सुधार ऐसे मुद्दे हैं जो महिला निर्वाचित अधिकारियों द्वारा सबसे अधिक उठाए जाते हैं।
इसके अलावा भारत की लगभग सभी बड़ी पार्टियों के पास पाने अपनी-अपनी महिला पार्टियां भी हैं। जैसे कि भाजपा की शाखा भाजपा महिला मोर्चा है, काँग्रेस की शाखा अखिल भारतीय महिला काँग्रेस है और भाकपा की शाखा राष्ट्रीय महिला फेडरेशन है।
जहां काँग्रेस ने पार्टी के सभी स्तरों में महिलाओं के लिए 33% कोटा लागू करके महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई तथा जून 2009 में लोकसभा के पहले स्पीकर बनने के लिए एक महिला को नामित किया और भारत की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के चुनाव का भी समर्थन किया, वहीं भाजपा ने महिलाओं के नेतृत्व कार्यक्रम, महिला उम्मीदवारों के लिए वित्तीय सहायता और पार्टी नेतृत्व के पदों पर महिलाओं के लिए 33% आरक्षण लागू करके महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित किया।
भाजपा ने महिलाओं और पुरुषों के समान अधिकारों का विस्तार करने के लिए समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके महिलाओं का समर्थन भी किया।
प्रत्यक्ष रूप से हमे कहीं भी महिलाओं की भागीदारी देखने को नहीं मिलती है। वोटों की राजनीति के चलते महिला प्रत्याशी लायी तो जाती हैं, जो किसी बड़े पार्टी के नेताओं की बीवी, बहन, या कोई रिश्तेदार ही होती है। या फिर बॉलीवुड जैसे जगहों से महिलाओं को उम्मीदवार बनाकर ऐसे जगह से लड़वाया जाता है जहाँ उनके पार्टी के जीतने की उम्मीद ना के बराबर हो, इससे महिला राजनीति की शाख तो बची रहती है, लेकिन असली राजनीति की रीढ़ कमजोर होती नजर आती है। यहां तक कि वो महिलाएं जो राजनीति में हिस्सेदारी लेकर समाज में बदलाव लाना चाहती हैं, उन्हें सपोर्ट नहीं किया जाता।
महिलाओं की राजनीतिक सक्रियता
1990 के दशक में महिलाओं की 10-12% सदस्यता के साथ राजनीतिक दलों में महिलाओं की भागीदारी कम रही। सबसे पहले महिला संगठनों में से एक, भारत स्त्री महामंडल 1910 में बना और महिलाओं को पुरुषों से उत्पीड़न से बचने में मदद करने पर ध्यान केंद्रित किया।
2007 में पहली बार यूनाइटेड वुमन फ्रंट पार्टी बनाई गई जिसने संसद में पहली बार महिलाओं के लिए 50% आरक्षण की मांग रखी। महिलाओं को जब लगा कि उन्हें ही उनके हिस्से की लड़ाई लड़नी होगी, तब राजनीति में महिलाओं की ज़रूरत ने आग पकड़ ली और वे खुलकर सामने आने लगीं।
आज हम देखते हैं कि कई राजनीतिक पार्टियां बड़े-बड़े पदों पर महिला प्रत्याशियों को रखे हुए हैं फिर भी उनकी राजनीतिक सक्रियता के बारे में ध्यान से आकलन करते हैं तो समझ आता है कि यह बस दिखावे मात्रा के लिए है। वास्तविकता से इनका कोई लेना-देना नहीं है। सारा निर्णय इनके उच्चाधिकारियों के पास सुरक्षित रहता है। इन महिलाओं का निर्णय बिना बड़े अधिकारियों के आकलन के पास नहीं किया जाता है। यह एक बहुत ही असम्मानजनक बात है।
कोई भी देश हो, अगर उसे आगे बढ़ाना है तो उसे अपने देश की महिलाओं को साथ-साथ लेकर चलना होगा क्योंकि यह सिर्फ उस देश की इकॉनमी में ही नहीं, राजनीति में भी हिस्सेदार हैं और भारतीय महिलाओं को जिस तरह से देखा जाता है, वह बहुत निंदनीय है।
इतिहास गवाह है कि जब-जब महिलाओं को मौका मिला है, उन्होंने हर तरीके से अपनी काबिलियत सिद्ध की है और कई मायनों में पुरुषों से कहीं ज़्यादा बेहतर ढंग से सिद्ध किया है।
चाहे हम बहुत पीछे जाकर रानी लक्ष्मीबाई को देखें या 19वीं शदी की “आयरन लेडी” इंदिरा गाँधी को, ऐसे अनेकों सुन्दर उदाहरण महिलाओं के मिल जाएंगे, जिन्होंने विश्व स्तर पर भारत देश को गौरवान्वित किया है।
नोट: आंकड़े विकिपीडिया से लिए गए हैं।